'आप' कैसे एक अहं का सर्कस बन गई
खबरों का इतिहास आज इंतजार का इतिहास है. हम हमेशा शानदार जीत के लिए इंतजार करते हैं. पाठक खबरों के होने का इंतजार करते हैं.
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खबरों का इतिहास आज इंतजार का इतिहास है. हम हमेशा शानदार जीत के लिए इंतजार करते हैं. पाठक खबरों के होने का इंतजार करते हैं और अभी तक शंका से परे कोई खबर नहीं है, कोई बड़ी घटना नहीं है, कोई अच्छी खबर नहीं है.
हमारे पास सभी नेताओं का भड़कना और अर्थशास्त्रियों का खालीपन है. पूरा भारत कुछ होने का इंतज़ार कर रहा है. चीजों में सुधार होने का, हिंसा में कमी होने का, देश को अच्छा महसूस होने का. हम दिल से जानते हैं कि कोई खबर नहीं है, केवल इंतजार का सन्नाटा है. बहुत कुछ हो रहा है इससे कोई इनकार नहीं करता है. अभी तक वे बिना उत्पाद के ही प्रक्रिया में हैं. उन्हें अभी भी परिपक्व होना होगा.
इसी दौरान प्रतीक्षा की प्रकृति के चलते एक राष्ट्र इंतजार कर रहा है. समय का अनुष्ठान बदल गया है. समाजवादी और उदारीकरण युग के बीच संस्कार के रूप में प्रतीक्षा कर रहा है.
संतोष देसाई ने एक बार लिखा था कि हमने अपना बचपन इंतज़ार में गुजारा और एक दूसरे को इंतजार करते हुए देखा. बोरियत समाजवाद की बेहतरीन लोक कला बन गया था. हमारे माता पिता इंतजार कर रहे थे. उन्होंने कभी राशन की कतारों में, कभी फिल्म की कतारों में और कभी रेलवे स्टेशनों पर धैर्यपूर्वक इंतजार करते हुए एक-दूसरे को देखा. घंटों उन्माद और खालीपन के बीच वादों के पूरा होने का इंतजार किया.
नई पीढ़ी के पास इंतजार की कुछ यादें हैं. यहां दृष्टिकोण में भी बदलाव है. नई पीढ़ी निष्क्रिय नागरिकों की बजाय ग्राहकों के रूप में व्यवहार करती है. वे सरकारी कार्यालयों को तेज गति सेवा के बजाय एक मॉल के रूप में लेते हैं. सेवा दिवस का आदेश होता है.
राजनीति एक हिट फिल्म की तरह महान बी ग्रेड धारावाहिक आप के आस-पास घूमती है. यह एक ऐसी परिवारिक फिल्म है जिससे सबको ज्यादा की उम्मीद होती है. आप की त्रासदी इस तथ्य के साथ शुरू होती है कि इसके यादगार किरदार पार्टी के कई संस्थापक ही हैं, जो अब आलोचक बन गए हैं.
आप की स्क्रिप्ट रामदास या भादुड़ी या फिर लुप्त हो चुकी शाज़िया इल्मी के अति आत्मविश्वास के बिना पूरी नहीं होती.
आप को देखना भयानक है. यह एक पौराणिक कथा में संघर्ष को तमाशे में बदलते देखने की तरह है. और बाद में यह एक बेतुका नाटक हो जाता है. सच्चाई यह नहीं कि अरविंद केजरीवाल पीछा कर रहे हैं. लेकिन वे हठधर्मिता और सुविधा पर निर्भर हैं.
विचित्र रूप से इस विवाद के चलते पार्टी ने केजरीवाल को मूडी और बीमारी के भ्रम में जीने वाला बना दिया है. उनका भाषण ईमानदारी की विफलता था. उन्होंने दर्शकों की प्रतिक्रिया को ध्यान में रखकर अपने शब्दों को सेंसर की तरह संपादित कर साफ रूप में प्रस्तुत किया.
केजरीवाल को अहसास होना चाहिए कि उनकी बेईमानी चुप्पी में झलक रही है. वह पार्टी की शुद्धता का हवाला देकर पीठ पीछे आलोचना की बात करते हैं. अगर केजरीवाल यह सोचते हैं कि न्याय बहुमत के साथ आता है तो उनके विचार मोदी से बहुत अलग नहीं हैं.
वास्तव में कार्टूनिस्टों को पहले से ही मोदी को केजरीवाल के रूप में बदलने के लिए तैयार रहना चाहिए. हो सकता है कि सभी मूंछों वाले गप्पियों का अस्तित्व में रहना केजरीवाल की ईमानदारी की अग्निपरीक्षा हो. भारत में आप दर्शकों के लिए एक चमत्कार है. साथ ही भारतीय जनता के लिए उत्सुकतापूर्वक परिवर्तन का इंतजार कराने वाला एक राजनीतिक खेल भी है.
अभी तक कई उतार-चढ़ाव के बावजूद कुछ नहीं हुआ. केजरीवाल अब एक छिपे व्यक्तित्व के रूप में सत्ता में बने रहने के लिए कांग्रेस की तरह भ्रष्टाचार और नैतिकता के भाषण देंगे. केजरीवाल अब उतार-चढ़ाव में नजर आएंगे. वास्तव में इसी तरह अधिकांश नेताओं का सच सामने आता है. तथ्य यह है कि इंतज़ार करना और देखना आपको राजनीति के बारे में सिखाता है.
अच्छाई अहंकार के साथ जीवित नहीं रह सकती. यादव, भूषण, आशुतोष, कुमार विश्वास के रूप में आप और उसके नेताओं को ही देख लिजीए. देख कर अहसास होता है कि एक के बाद एक अहं का सर्कस चल रहा है. वे सभी खुद का विस्तार करने के लिए पार्टी को प्रोजेक्ट कर रहे हैं.
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