Bhagat Singh की शहादत का भारत में वामपंथी शोषण
भगत सिंह वामपंथी थे या नहीं ये पूरी तरह से कहा नहीं जा सकता. लेकिन वामपंथियों को जब लगा कि भगत सिंह को अपना बना कर पेश करने में उनकी भलाई है. तो वो भगत सिंह की तस्वीरों और उनकी जीवनी को इस तरह से पेश करने लगे जैसे भगत सिंह से बड़ा देश में कोई भी क्रांतिकारी पैदा ही नहीं हुआ था.
-
Total Shares
चे ग्वेरा की तस्वीर आपने देखी होगी. पूरी दुनिया के युवा चे ग्वेरा की तस्वीर वाली टी- शर्ट्स पहनते हैं. जो चे ग्वेरा को नहीं जानते वो भी फैशनेबल दिखने के लिए चे ग्वेरा की टी- शर्ट्स पहनते हैं. वो तस्वीर इतनी शानदार है कि उसके पीछे उनकी हिंसक दास्तानों को लोग जानने की जरुरत भी नहीं समझते. ऐसा इसलिए कि वामपंथियों ने चे ग्वेरा को दुनिया के सबसे आकर्षक क्रांतिकारी के रुप में पेश किया और बाकी दुनिया ने उनका अंधानुकरण किया. वामपंथियों की खासियत यही होती है वो जिन्हें अपना मानते हैं वो फिर चाहे आतंकवादी ही क्यों न हो उसे पूरी दुनिया का मुक्तिदाता घोषित कर देते हैं. फिर भगत सिंह तो देश के महान क्रांतिकारी ही थे. वामपंथियों की नज़र में वो एक कम्यूनिस्ट थे. वैसे भले ही वामपंथियों का खुद का इतिहास गद्दारियों से भरा पड़ा हो लेकिन दूसरे क्रांतिकारियों को जो थोड़े से भी वामपंथ की तरफ झुके हों उन्हें वो अपनी गद्दारियों की भरपाई के लिए अपना बना कर दुनिया में प्रसिद्ध कर देते हैं.
भगत सिंह को लेकर तमाम चीजें ऐसी हैं जिनसे देशवासियों के बीच भ्रम की स्थिति पैदा की गयी है
भगत सिंह वामपंथी थे या नहीं ये पूरी तरह से कहा नहीं जा सकता. लेकिन वामपंथियों को जब लगा कि भगत सिंह को अपना बना कर पेश करने में उनकी भलाई है. तो वो भगत सिंह की तस्वीरों और उनकी जीवनी को इस तरह से पेश करने लगे जैसे भगत सिंह से बड़ा देश में कोई भी क्रांतिकारी पैदा ही नहीं हुआ था.
इसके अलावा भी कई ऐसी परिस्थितियां रही जिन्होंने भगत सिंह के महान व्यक्तित्व को कालजयी बना दिया और बाकी के सारे शहीदों के बलिदान उनके सामने फीके पड़ने लगे. आखिर वो कौन सी वजहें रही होंगी जिन्होंने भगत सिंह को शहीदे आज़म बना दिया और वो एक किवदंती बन गए.
गौर से देखें तो भारत में क्रांतिकारियों के मूल प्रेरणास्त्रोत महर्षि अरविंदों, लाला लाजपत राय और बाल गंगाधर तिलक रहे जिनके विचारों से प्रेरित होकर कई महान क्रांतिकारियों ने अपने जीवन का बलिदान दे दिया. मूल रुप से देश में क्रांतिकारी आंदोलनों की शुरुआत महाराष्ट्र के पुणे से शुरु होती है.
जब पुणे में फैले प्लेग में 2 लाख लोगों की जान चली गई थी. इस महामारी में अंग्रेजों के रवैये से क्षुब्ध होकर बाल गंगाधर तिलक ने अपने अखबार केसरी में एक लेख लिखा और शिवाजी के द्वारा अफजल खान की हत्या को जायज ठहराते हुए कहा कि अन्याय का प्रतिकार करने के लिए किसी की हत्या जायज है.
तिलक से प्रेरित होकर 1896 में 9 और 12 साल के चापेकर बंधुओं ने पुणे के प्लेग कमिश्नर रैंड की हत्या कर दी और फांसी के फंदे पर झूल गए. लगभग इसी दौर में अरविंदों के बलिदानी विचारों से प्रेरित होकर उनके भाई बारिंद्र घोष, विवेकानंद के भाई भूपेंद्र दत्त जैसे युवाओं ने हथियार उठा लिया औऱ बंगाल विभाजन के वक्त कई बम धमाके कर अंग्रेजों को हिला दिया.
खुदीराम बोस ने 15 वर्ष से भी कम उम्र में मुजफ्फरपुर में किंग्सफोर्ड की बघ्घी पर बम फेंका और पकड़े गए. उन्हें भी फांसी का फंदा ही मिला. इस वक्त तक मूल रुप से बंगाल और महाराष्ट्र ही क्रांतिकारी आंदोलनों के केंद्र रहे. लेकिन 1911 में अंग्रेजों ने अपनी राजधानी कोलकाता से हटा कर दिल्ली कर दी.
इसके बाद दिल्ली, पंजाब और वर्तमान पाकिस्तान में क्रांतिकारी आंदोलनों का उदय हुआ. लाला लाजपत राय इन क्रांतिकारियो के नेता बने. भगत सिंह आदि क्रांतिकारियों ने भी लाला लाजपत राय से ही प्रेरणा ली. भगत सिंह पर लाहौर षड़यंत्र केस की तहत मुकदमा चला और उन्हें राजगुरु और सुखदेव के साथ फांसी दे दी गई.
इस वक्त तक यानी 1931 तक आजादी का आंदोलन अपनी रफ्तार पकड़ चुका था और पूरे विश्व में इसकी चर्चा होने लगी थी. पंजाब के क्रांतिकारियों जैसे उधम सिंह, लाला हरदयाल आदि ने पूरे विश्व में क्रांतिकारियों के जज्बे का डंका बजा दिया था. श्याम जी कृष्ण वर्मा जैसे क्रांतिकारी जर्मनी, फ्रांस आदि देशो में घूम घूम कर क्रांति का वैश्विक विस्तार कर रहे थे.
लेकिन इन सबको पीछे छोड़ कर भगत सिंह देश के युवाओं के नायक बने. जब भगत सिंह को फांसी देने का ऐलान हुआ था तो उस वक्त गांधी का सविनय अवज्ञा आंदोलन फ्लॉप हो चुका था. पूरा देश निराशा के गर्त में डूब चुका था. ऐसे में भगत सिंह को फांसी देने की घटना ने अचानक ही रफ्तार पकड़ ली और पूरे देश के मानस पर ये घटना छा गई.
ब्रिटिश सरकार की गुप्तचर विभाग की रिपोर्टों में कहा गया कि एक समय भगत सिंह की लोकप्रियता गांधी से भी ज्यादा हो गई थी. ये वो दौर भी था जब वामपंथियों और समाजवादियों ने देश में किसान आंदोलनों की शुरुआत कर दी थी. दूसरी महत्वपूर्ण बात ये भी थी कि 1917 में रुस में हुई कम्युनिस्ट क्रांति को पूरे विश्व में फैलाने के लिए वामपंथी हरेक देश में देसी लेनिन की तलाश कर रहे थे.
भारत में उनके पास कोई ऐसा नेता नहीं था जो पूरे राष्ट्र को वामपंथी विचारों के प्रति प्रेरित कर सकता था. वामपंथियों को भगत सिंह में वो बात नज़र आई क्योंकि भगत सिंह ने रुसी क्रांति की प्रशंसा की थी और लेनिन के रास्ते को सही बताया था. बस वामपंथियों को अपना नया राष्ट्र नायक मिल गया और उन्होंने भगत सिंह को अपना लिया.
वामपंथियो और समाजवादियों ने भगत सिंह को मिली फांसी की सजा को गांधी के अंहिसात्मक आंदोलन की विफलता से भी जोड़ दिया और गांधी पर दबाव बनाया कि वो भगत सिंह की फांसी की सजा को रोकें. इस वक्त सोवियत संघ की कम्युनिस्ट सरकारें भारत में क्रांग्रेस को क्रांति विरोधी पार्टी के रुप में देख रही थी और किसी नए विकल्प की तलाश में थी.
अब गांधी ने भगत सिंह की फांसी की सजा को रोकने के लिए कुछ किया या नहीं ये तो विवाद का विषय है लेकिन 1931 में हुए कराची कांग्रेस अधिवेशन में गांधी को भगत सिंह की फांसी के बाद काले झंडे दिखाये गए. यही वो दौर था जब कांग्रेस के अंदर समाजवादियों जैसे आचार्य नरेंद्र देव, सहजानंद सरस्वती, जे बी कृपलानी और नेहरु की ताकत बढ़ चुकी थी.
इनके साथ कई वामपंथियों ने कांग्रेस को भगत सिंह की फांसी की सज़ा को रोकने में विफल रहने का आरोप लगाया और धीरे धीरे ये बात पूरे देश में फैला दी कि गांधी भगत सिंह से जलते थे. इन परिस्थितियों का लाभ भी भगत सिंह की कुर्बानी के बाद उनके व्यक्तित्व की महानता को और भी महान साबित करने में मिला.
जिस वक्त देश का आंदोलन पंजाब, दिल्ली और उत्तर भारत में केंद्रित हो चुका था उसी वक्त भगत सिंह की शहीदी हुई. भगत सिंह की तस्वीरें पूरे देश में प्रचारित हो गईँ. भगत सिंह लोगों के मानस में बस गए. इसमें कुछ गलत नहीं है. भगत सिंह महान थे. लेकिन खुदीराम बोस, बारिंद्र घोष, भूपेंद्र दत्त, चापेकर बंधु जैसे असंख्य क्रांतिकारियों की शहादतें भी कम नहीं थी.
शायद इनकी शहादतों को कमतर इसलिए रखा गया क्योंकि इनमें से ज्यादातर वामपंथी विचारधारा से नहीं जुड़े थे और हिंदू धर्म के प्रतीकों पर विश्वास करते थे. वहीं भगत सिंह एक धर्मनिरपेक्ष व्यक्तित्व के रुप में सामने आए जिन्हें वामपंथियों के सिस्टम में अपना कर उन्हें बाकियों से बड़ा दिखा दिया.
शहीदों में भेदभाव करना समाजवादियों और वामपंथियों का पुराना शगल है. वामपंथियों का सिस्टम इतना जबरदस्त है कि वो दिल्ली के पास हुए कुछ हजार बिचौलिये किसानों के आंदोलन को भी देश के हर घर का आंदोलन बता कर प्रचारित कर देते है. एक अखलाक और जुनैद की हत्या को वो हिंदुओं की असहिष्णुता करार देते हैं जबकि हजारों कश्मीरी ब्राह्मणों की हत्या को दबा देते हैं.
जब उनका सिस्टम इतना जबरदस्त है तो सोचिये कि क्या उन्होंने भगत सिंह को अपना बना कर और शहीदे आज़म के रुप में पेश कर अपने गद्दारियों के पापों को धोने के लिए क्या कुछ नहीं किया होगा और कैसे बाकि के बलिदानियों को जो भारत माता को दुर्गा और काली के रुप में देखते थे उन्हें सांप्रदायिक क्रांतिकारी बना दिया हो.
शायद भगत सिंह को भी ये पसंद नहीं आता कि उन्हें सारे शहीदों से उपर रख कर बाकियों के बलिदानों को कमतर रखा जाता. लेकिन अफसोस यही है कि भगत सिंह के व्यापक विचारों को उन्होंने वामपंथी रूप देकर उनकी तुलना में बाकी क्रांतिकारियों को अदना बना दिया. भगत सिंह की महानता का जितना शोषण वामपंथियों ने किया, उसका कोई दूसरा उदाहरण नहीं मिलता.
ये भी पढ़ें -
Bhagat Singh कैसे जोड़ते भारत और पाकिस्तान को?
Akhilesh Yadav ने छोड़ी संसद की सदस्यता, विधायक बनने की ये हैं 3 वजहें...
Bhagat Singh के जीवन पर आधारित इन 5 फिल्मों में आपकी पसंदीदा कौन सी है?
आपकी राय