जब जनरल ने जीत के जबड़े से हार छीन ली
सेवानिवृत्त जनरल विजय कुमार सिंह ने लोकसभा चुनाव भारी अंतर से जीता था. वडोदरा में नरेंद्र मोदी के बाद सबसे ज्यादा वोट पाने वाले वो दूसरे नेता रहे.
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सेवानिवृत्त जनरल विजय कुमार सिंह ने लोकसभा चुनाव भारी अंतर से जीता था. वडोदरा में नरेंद्र मोदी के बाद सबसे ज्यादा वोट पाने वाले वो दूसरे नेता रहे. वह अकेले ऐसे फौजी हैं जो पहले आर्मी चीफ रहे और बाद में उन्हें केंद्रीय मंत्री बनने का मौका मिला. अन्ना हजारे के आंदोलन में वो अकेले शख्स रहे जिसने शुरू में ही बीजेपी को चुना और उसके साथ बने रहे. वो विरोधाभासी व्यक्तित्व के धनी हैं - और मैं उनकी जन्मतिथि से जुड़े विवाद की बात नहीं कर रहा.
शब्दों का गढ़ना
इस फौजी ने जीवन में हमेशा अनुशासन और सम्मान का मान रखा. वह सोशल मीडिया पर काफी मुखर रहते हैं, जो किसी भी राजनीतिक व्यक्ति के लिए अच्छी बात है लेकिन आखिर में वो ऐसी बात बोल देते हैं कि उनकी पार्टी बीजेपी को भी उनसे दूरी बनानी पड़ती है. दोहरे-बोल और फिर बवाल होने पर पलटी मार लेना - ये सब राजनीति के शब्दकोष का हिस्सा तो हो सकते हैं, सेना के नहीं.
अपनी राजनीतिक पारी के शुरू में ही पूर्व सेनाध्यक्ष ने जिस तरीके से सार्वजनिक बयान दिए उससे तो सेवारत सैनिकों को भी निराशा हुई होगी. उससे पहले उन्होंने दावा किया था कि सेना ने कश्मीर घाटी में तारीफ पाने के लिए नेताओं को पैसे दिए. इस क्रम में जनरल की ओर से सबसे ताजा प्रयास है मीडिया के लिए गढ़े 'प्रेस्टिट्यूट' शब्द दोहराया जाना.
इस तरह गढ़े गए सस्ते शब्दों के साथ समस्या यह है कि उनका विरोध इसलिए नहीं हो पाता क्योंकि वे तेजी से लोगों का ध्यान खींच लेते हैं. बाकी तीन खंभों की तरह, चौथे स्तंभ की अवधारणा को भी किनारे रख दें तो, मीडिया भी किसी वक्त गलती करता मिल सकता है. वो भी, हालांकि, पत्थर का नहीं बना है और गलतियों को सुधार कर मुश्किलों से निजात दिलाने में मददगार साबित होता है. पत्रकार भी इंसान हैं और उसी परिवेश में उनके पूर्वाग्रह हो सकते हैं. अंत में ये सब समान दिखता है क्योंकि भारतीय मीडिया में भी वैसी ही विविधता है जैसा कि इस मुल्क में.
वह ऐसे पहले व्यक्ति नहीं हैं जो सोशल मीडिया के मार्फत मुख्यधारा के मीडिया को निशाना बना रहे हैं. राजनीतिक विचारधाराओं के ऐसे कई खुद-मुख्तार मातहत हैं जो मीडिया संगठनों और पत्रकारों को भला बुरा कहते और धमकाते रहते हैं. इनके निशाने पर आने वाले ज्यादातर लोगों ने इसे अनदेखा करना शुरू कर दिया है और हद से ज्यादा इस्तेमाल होने के कारण 'पेड मीडिया' जैसी बातें अब गुजरे जमाने की लगती हैं. मंत्रियों से, हालांकि, इस स्तर तक गिरने की अपेक्षा नहीं रहती. वैसे भी एक टीवी चैनल और रिटायर्ड जनरल के बीच हुए शब्द-युद्ध के बाद दोनों में से कोई भी पक्ष अच्छी छवि लेकर तो उभरा नहीं.
मजाक की बात
टीवी चैनल ने जनरल के जोक को समझा नहीं. उसके लिए 'बेवकूफ' शब्द था, 'वेश्या' जैसे शब्द पर खेल जारी रखना नहीं. इस पर भी उनसे रहा नहीं गया. गुरुवार को उन्होंने 'मीडिया वर्कर' शब्द का इस्तेमाल किया, ठीक वैसे ही जैसे थोड़े सोफियाने ढंग से 'सेक्स वर्कर' शब्द को ठीक माना जाता है.
आइए देखते हैं. टीवी चैनलों की अपनी भाषा होती है, और बेवकूफों की जमात सिर्फ राजनीति में ही नहीं होती. पाकिस्तान उच्चायोग में पड़ोसी मुल्क के राष्ट्रीय दिवस पर जनरल वीके सिंह की शिरकत को बेवजह तूल दिया जाना भी मूर्खतापूर्ण ही था. इस ओर सिर्फ इसलिए ध्यान गया क्योंकि विदेश राज्य मंत्री ऐसे व्यक्ति ठहरे जो आर्मी चीफ भी रह चुके हैं. बतौर मंत्री अपनी ड्यूटी निभा रहे सिंह को 'गद्दार' बोले जाने के बावजूद उनकी छवि उस शाम बेहतर नजर आ रही थी जब तक कि उनका 'डिस्गस्ट' वाल ट्वीट सामने नहीं आया था, बगैर ये बताए कि वो किसके बारे में कह रहे हैं. सफाई सामने आई लेकिन तब तक जो नुकसान होना था हो चुका था.
और पुनरावृत्ति
जैसा कि नजर आया, दोनों पक्षों के बीच चल रही झड़प मंगलवार को भी जारी रही. जनरल सिंह के स्वाभाविक कटाक्षों की स्वाभावित तौर पर कमी खली, और वो अजीब नहीं थी. यमन से भारतीयों और 20 से ज्यादा देशों के नागरिकों को सुरक्षित निकाले जाने को लेकर उस शख्स की हर कोई तारीफ कर रहा था. सना के युद्ध क्षेत्र में सिंह डटे रहे और वहां फंसे लोगों को सुरक्षित स्थानों तक पहुंचाने में लगे रहे. इसके लिए उन्हें श्रेय देने के बजाए चैनल उनके व्यंग्यात्मक ट्वीट पर फोकस रहा. जब ये उल्टा पड़ा तो इस बात जोर रहा कि ये सिंह पर जवाबी हमला है. ये तो सरासर मूर्खता थी और इसे उसी रूप में लिया भी जाना चाहिेए. जनरल सिंह भी तब तक नायक बन कर उभरे रहे जब तक उन्होंने इस बेवकूफी भरे झमेले में वैसी ही घटिया टिप्पणी करके खुद को फिर से फंसा नहीं लिया. देखते ही देखते कुछ ऐसे लोग जो मुख्यधारा की मीडिया से नफरत करते हैं बड़ी संख्या में सिंह के बचाव में कूद पड़े.
जनरल के अतिउत्साही प्रशंसकों ने भले ही उनके इस कदम की सराहना की हो. उनकी नजर में वो भले ही बड़े नायक बन गए हों. लेकिन इस तरह के शब्द गढ़कर उन्होंने न सिर्फ अपनी प्रतिष्ठा को धूमिल किया बल्कि उस कुर्सी का भी अपमान किया है जिस पर सरकार ने उन्हें बैठाया है. कूटनीति उनकी शक्तियों का हिस्सा तो नहीं है, यद्यपि कूटनीतिकों की एक अच्छी खासी जमात की वो अगुवाई जरूर करते हैं.
उनकी यमन गाथा भविष्य में किंवदंतियों का कंटेंट होती, जिसे उन्होंने ट्वीट से तार तार कर दिया. ये उनकी जिम्मेदारी थी कि उनके बेहतरीन काम उनके लापरवाही भरे शब्द खोज के शिकार न हों. जिम्मेदारी की कीमत क्या होती है इसे किसी फौजी से बेहतर कोई और नहीं समझ सकता. जनरल भले ही रिटायर हो जाते हों, एक फौजी कभी नहीं होता.
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