योगी की ताकत ही उनकी कमजोरी है
'गोरखपुर में रहना है तो योगी-योगी कहना है.' योगी समर्थक ये नारा यूं ही नहीं लगाते. हकीकत भी यही है - गोरखपुर में जो योगी कहे वही नियम है, वही कानून है.
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यूपी के बस्ती में हो रही उस मीटिंग में अमित शाह के भाषण पर नारेबाजी हावी होने लगी थी - "यूपी का सीएम कैसा हो, योगी आदित्यनाथ जैसा हो". मजबूरन शाह को अपना भाषण रोक कर पूछना पड़ा कि जारी रखें या नहीं - तब कहीं योगी समर्थक शांत हुए और शाह ने अपनी बात आगे बढ़ाई. वैसे उनमें ये जोश भी शाह ने ही भरा था - ये कह कर कि योगी आदित्यनाथ का नाम आते ही लोगों में जोश भर जाता है.
ये बात बोलकर अमित शाह ने योगी को बीजेपी का सीएम उम्मीदवार बनाने के संकेत दिये थे? उनके समर्थक तो पहले से मानकर चल रहे थे शाह की बात को उन्होंने मुहर मान लिया- और मीडिया में भी खबरें उसी अंदाज में आईं. लेकिन वाकई ऐसा है क्या?
जो योगी बोलें सो...
गोरखपुर में योगी आदित्यनाथ के होने का ताजा मतलब तो एक ही है - 'गोरखपुर में रहना है तो योगी-योगी कहना है.' योगी समर्थक ये नारा यूं ही नहीं लगाते. हकीकत भी यही है - गोरखपुर में जो योगी कहे वही नियम है, वही कानून है.
जिन्होंने देखा है उन्हें योगी के प्रभाव के बारे में पता है. योगी आदित्यनाथ की हैसियत ऐसी बन चुकी है कि उनकी सभा के लिए लोगों को सूचना देकर बुलाने की भी जरूरत न पड़े - क्योंकि जहां वो खड़े होते, सभा वहीं शुरू हो जाती है. सभा में श्रीमुख से जो निकला वो किसी सरकारी आदेश से भी ज्यादा असरदार होता है. होली और दीपावली भी उसी दिन मनाए जाते हैं जिस दिन मंदिर से फरमान जारी होता है - जो अमूमन एक दिन बाद मनाये जाते रहे हैं.
हनक ऐसी की गली मोहल्लों के नाम भी बदल दिये गये - अली नगर बदलकर आर्य नगर और मियां बाजार बाद में माया बाजार बन गया.
योगी जहां भी खड़े होते हैं... |
26 साल की उम्र में सांसद योगी पांचवीं बार संसद पहुंचे हैं और तेजी से चढ़े उनके कॅरियर ग्राफ के पीछे उनका कट्टर हिंदुत्व एजेंडा है. इस एजेंडे को लागू करने के लिए ही उन्होंने हिंदु युवा वाहिनी बनाई जो साल दर साल उनकी जीत का फासला भी उसी हिसाब से बढ़ाती गई.
लेकिन बीजेपी हार गई
बीजेपी में योगी की अहमियत को इस हिसाब से भी देखा जा सकता है कि 2014 में प्रचार के लिए योगी आदित्यनाथ को हेलीकॉप्टर मिला था. तब की मोदी लहर में उनकी कामयाबी का अलग से तो आकलन करना मुश्किल है - लेकिन उसी साल सितंबर में हुए उपचुनावों में योगी बेअसर नजर आए.
उपचुनावों के लिए बीजेपी की एक प्रचार कमेटी बनाई गयी थी जिसमें कलराज मिश्र और लक्ष्मीकांत वाजपेयी के साथ योगी को भी शामिल किया गया था.
उसी दौरान एक वीडियो सामने आया. इस वीडियो में लव जेहाद और धर्म परिवर्तन को लेकर योगी के विवादित बयान थे, "अगर वो एक हिंदू लड़की का धर्म परिवर्तन करते हैं तो इसके जवाब में हमें 100 मुस्लिम लड़कियों का धर्म परिवर्तन करना चाहिए."
बहरहाल, योगी ने बीजेपी के चुनाव प्रचार को लीड किया लेकिन नतीजे निराशाजनक रहे. जिस यूपी में लोक सभा की 80 में से बीजेपी को 71 सीटें मिली थीं, उपचुनाव में 11 में से सिर्फ तीन सीटें मिल पाईं. खास बात ये कि इनमें से 10 सीटें बीजेपी की ही थीं जो उसके नेताओं के लोक सभा पहुंच जाने के कारण खाली हुई थीं.
जीत के लिए जोश जरूरी है
बिलकुल हर जीत के लिए जोश जरूरी है. निश्चित रूप से बीजेपी की जीत के लिए योगी आदित्यनाथ के समर्थकों का जोश जरूरी है. कार्यकर्ताओं में जोश नहीं रहेगा तो भला वो काम कैसे करेंगे.
जिस मीटिंग का ये वाकया है वो बस्ती में हो रही थी - और उसमें गोरखपुर रीजन के बीजेपी के बूथ प्रेसिडेंट हिस्सा ले रहे थे. शाह भी मान कर चल रहे होंगे कि उसमें बहुमत योगी समर्थकों का ही होगा. काफी हद तक ये बात सही भी है. निश्चित रूप से उनमें वे भी होंगे जो बीजेपी के कार्यकर्ता तो हैं लेकिन योगी के समर्थक नहीं. वहां भी साफ बंटवारा है, जो ठाकुर हैं वे खुले तौर पर योगी के समर्थक हैं और जो ब्राह्मण हैं वे मजबूरी में योगी की जय जय करते हैं. इसी बात को बैलेंस करने के लिए ही बीजेपी ने इस बार योगी के विरोधी शिव प्रताप शुक्ला को राज्य सभा भी भेजा है.
शाह ने योगी के समर्थकों में जो जोश भरा, उसका इशारा ये समझा गया कि शाह ने यूपी सीएम की रेस की रेस में उछाल दिया है. लेकिन राजनीति में किसी बात को इतनी आसानी से डिकोड करना समझदारी भी नहीं है.
अगर कट्टर हिंदूवादी छवि वाले मजबूत नेता के तौर पर देखें तो योगी आदित्यनाथ फिट लगते हैं. उनकी तुलना कल्याण सिंह से की जा सकती है सिवा उनकी बिरादरी के. ठाकुर होने के कारण योगी आदित्यनाथ इस सांचे से बाहर हो जाते हैं. वैसे यूपी बीजेपी अध्यक्ष केशव मौर्या और योगी मिल कर कुछ कुछ कल्याण सिंह पैकेज जैसा लुक देते भी हैं.
योगी आदित्यनाथ के समर्थक उन्हें हिंदू हितों के मजबूत रखवाला के रूप में देखते हैं - और उनका निडर होना इस अपील को बढ़ा देता है. ठीक वैसे ही जैसे सुब्रमण्यन स्वामी हैं. दोनों के समर्थकों को तो उनकी सारी बातें अच्छी लगती हैं लेकिन बीजेपी को ये फूटी आंख नहीं सुहाता क्योंकि एक बार ये दोनों कमिटमेंट कर दें तो खुद की भी कभी नहीं सुनते. जो खासियत इन्हें निजी उपलब्धियों के पीक पर पहुंचाती है उसी के चलते बीजेपी को एक वक्त के बाद हाथ बांधने को मजबूर होना पड़ता है.
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