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Updated: 17 सितम्बर, 2018 07:53 PM
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देर से ही सही प्रशांत किशोर की राजनीतिक ख्वाहिश पूरी हो ही गयी. 'राजनीति में भी देर है... अंधेर नहीं...' प्रशांत किशोर अब ये बात भी दावे के साथ कह सकते हैं.

पीके के रूप में प्रख्यात प्रशांत किशोर सेटल तो बहुत पहले ही होना चाहते थे, लेकिन बीजेपी में बात नहीं बन पायी. 2014 में प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेंद्र मोदी के सफल चुनावी अभियान के बाद वो चाहते थे कि बीजेपी उन्हें उनकी हैसियत के हिसाब से कोई ढंग की जिम्मेदारी दे दे. कहते हैं अमित शाह को ये बात हजम नहीं हुई और पीके को अपनी तलाश का दायरा बढ़ाना पड़ा.

पांच साल बाद बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने पीके को जेडीयू ज्वाइन कराकर उनकी मुराद पूरी कर दी है. 2015 में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के खिलाफ मैदान में उतर कर बिहार के सीएम की कुर्सी पर कब्जा करने वाले नीतीश को भी थोड़ा सुकून महसूस हो रहा होगा. हालत भले ही बदल चुके हों लेकिन नीतीश के लिए पीके लंबी रेस के घोड़े हैं. पीके को पार्टी में लेकर नीतीश कुमार ने खुद के लिए बहुत बड़ा काम किया है - पीके के साथ होने से नीतीश के राजनीतिक जीवन की वैलिडिटी अपनेआप बढ़ जाती है.

अब एक ही सवाल बनता है, बतौर जेडीयू नेता प्रशांत किशोर को क्या फायदा होगा - और वे कौन लोग होंगे जो पीके के निशाने पर आये तो नुकसान उठाएंगे.

आगे भी चुनाव कैंपेन ही चलाएंगे या कुछ और?

राजनीतिक इच्छाएं पूरी करने के तमाम तरीके हैं. इसी देश में खुद को चायवाला बताने वाले नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री बने हैं तो शाही परिवार के राहुल गांधी कैलाश मानसरोवर की लंबी यात्रा पैदल कर मन्नत मांग रहे हैं. इसी देश में अरविंद केजरीवाल आंदोलन के रास्ते नये स्टाइल की राजनीति करते हैं तो लोन लेकर ही जुटाई गयी सही, अकूत संपत्ति के बूते राज्य सभा सांसद बनते हैं. प्रशांत किशोर ने नया तरीका अपनाया है.

prashant kishorनये रोल में पीके!

देखा जाये तो पीके का कॅरियर भी ऐसे क्रिकेटर की तरह है जो लगातार तीन मैचों में शतकों की हैट्रिक लगाकर रातोंरात सनसनी फैला देता है - लेकिन ये सब पूरी जिंदगी नहीं चलता. पीके ने नरेंद्र मोदी, नीतीश कुमार और कैप्टन अमरिंदर सिंह के चुनाव कैंपेन को सफलतापूर्वक अंजाम तक पहुंचाया, लेकिन उसके आगे क्या हासिल हुआ?

ऐसा भी नहीं कि पीके को अपने साथ लेने या कम से कम कैंपेन करने के लिए राजी करनेवालों की कोई कमी रही, लेकिन किसी से बात तो नहीं ही बनी. आखिर में वो वाईएसआर कांग्रेस नेता जगनमोहन रेड्डी के लिए काम करने को तैयार हुए.

2019 को लेकर भी प्रशांत किशोर के संगठन ने सर्वे किया है - और माना जा रहा था कि वो ये सब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के लिए कर रहे हैं. मगर, हैदराबाद के इंडियन स्कूल ऑफ बिजनेस के एक प्रोग्राम में प्रशांत किशोर ने साफ तौर पर बताया था कि 2019 में वो किसी के लिए चुनाव प्रचार नहीं करेंगे. दरअसल, यही वो संकेत रहा जिसमें पीके का राजनीतिक भविष्य छिपा हुआ था. हालांकि, पीके ने अपने पसंदीदा काम की जगह बिहार और गुजरात बताकर एक और गुगली दाग दी. हो सकता है तब बातचीत दोनों पार्टियों से चल रही हो.

बहरहाल, अब तो मुद्दे की बात यही है कि प्रशांत किशोर जेडीयू के नेता बन चुके हैं. अब तक के हिसाब से देखें तो जेडीयू में भी काम तो उनका वही रहेगा. जेडीयू ने इसी मकसद से ज्वाइन कराया होगा. ये बात अलग है कि वो क्या करना चाहते हैं? अपनी राजनीति को चुनाव जिताने तक की सीमित रखते हैं या फिर उसके जरिये समाज और देश में कुछ बदलाव चाहते हैं. इससे पहले नीतीश सरकार में पीके को बतौर सलाहकार मंत्री का दर्जा मिला हुआ था, लेकिन उनकी कभी कोई दिलचस्पी नहीं दिखी.

2015 में बिहार चुनाव में नीतीश से डील होने को लेकर वो ज्यादा उत्साहित इसलिए भी रहे क्योंकि उन्हें अपने बिहार में काम करने का मौका मिल रहा था. हर इंसान की तरह उनके मन में भी बिहार के लोगों के लिए कोई योजना होगी. वैसे इसमें भी ज्यादा दिन नहीं लगेगा - जल्द ही सब सामने आ जाएगा.

पीके की नयी भूमिका का राजनीतिक असर क्या होगा?

प्रशांत किशोर अब तक किसी भी क्लाइंट के लिए एक पेशवर एक्सपर्ट के तौर पर काम करते रहे, अब ये रोल बदल चुका है. पीके विशेषज्ञता तो वही रहेगी लेकिन अंदाज बिलकुल बदल जाएगा. देखना होगा प्रशांत किशोर के पेशेवर रवैये पर कितना फर्क पड़ता है, या बिलकुल नहीं पड़ता.

पीके का पहला चैलेंज 2019 में जेडीयू की मजबूत जगह बनानी होगी. आम चुनाव में जेडीयू को ज्यादा से ज्यादा सीटों पर जीत दिलाना प्रशांत किशोर का पहला जिम्मा होगा.

चुनौतियां तो जीत से पहले ही खड़ी हैं. पहले तो पीके को एनडीए में जेडीयू के लिए एक बेहतर डील करानी होगी - ताकि नीतीश के हिस्से में ज्यादा से ज्यादा सीटें आयें. ये डील भी बड़ी दिलचस्प होगी क्योंकि इसके लिए पीके को सीधे अमित शाह से दो दो हाथ करने होंगे.

ये काम वो नीतीश के लिए पीके पहले लालू प्रसाद के साथ कर चुके हैं जब दोनों बिहार महागठबंधन का हिस्सा रहे. ऐसा काम तो यूपी चुनाव के आस पास पीके ने समाजवादी पार्टी और दूसरे दलों के साथ भी कोशिश की थी. असम चुनाव से पहले पीके ने बदरूद्दीन अजमल के साथ भी कांग्रेस का गठबंधन कराने की कोशिश की थी, लेकिन कोशिश नाकाम रही.

पीके ने चुनाव कैंपेन को नया कलेवर देने में कामयाबी हासिल की है. अभी ये कहना मुश्किल होगा कि क्या उनकी तरकश में कुछ ऐसे भी तीर हैं जिससे देश की राजनीतिक तस्वीर को बदला जा सके. हैदराबाद में पीके का कहना था कि वो ग्रासरूट लेवल पर काम करना चाहते हैं. कुछ वैसा ही काम जैसा वो अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर करते रहे हैं.

पीके के नाम अब तक तीन कामयाबियां रही हैं - मोदी का कैंपेन, नीतीश का कैंपेन और कैप्टन अमरिंदर के कैंपेन. साथ में, कुछ नाकामियां भी हैं - तोहमत लगाने वाले तो यूपी में कांग्रेस और समाजवादी पार्टी गठबंधन की हार का ठीकरा भी पीके पर फोड़ सकते हैं, लेकिन वो सच का आधा हिस्सा ही होगा. असल बात तो ये रही कि जिस तरीके से मोदी और नीतीश के कैंपेन में पीके को हर तरह की छूट मिली हुई थी, यूपी में ठीक उल्टा मामला रहा. पीके का रोल नाममात्र का रहा - सोशल मीडिया और मीडिया प्रबंधन तक. अमेठी, रायबरेली और सुल्तानपुर जैसे इलाकों के बारे में तो इन्हें सोचने तक की अनुमति नहीं मिली.

देश का कोई भी ऐसा नेता नहीं जिसे प्रशांत किशोर करीब से नहीं जानते - और उसकी पूरी कुंडली पीके के पास नहीं है. ये कुंडली ही है जिसके बूते प्रशांत किशोर सभी के लिए कामदार समझे जाते हैं. सवाल ये है कि राजनीतिक दलों की कुंडली पीके ने बतौर प्रोफेशनल जुटाये हैं - अब क्या वो इसका राजनीतिक फायदा भी उठाएंगे?

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