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Updated: 29 जुलाई, 2017 02:51 PM
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क्या जम्मू कश्मीर में बीजेपी-पीडीपी गठबंधन के अच्छे दिन पूरे हो गये हैं? पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को लेकर जम्मू-कश्मीर की मुख्यमंत्री महबूबा मुफ्ती के एक बयान से तो ऐसा ही लगता है. हाल तक प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की तारीफ में कसीदे पढ़ने वाली महबूबा मुफ्ती का कहना है कि उनके लिए भारत का मतलब इंदिरा गांधी ही है. आखिर क्या हो सकते हैं इसके मायने?

पहले 'मोदी-मोदी', अब 'इंडिया इज इंदिरा'

तीन महीने पहले ही महबूबा मुफ्ती ने कहा था सिर्फ प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ही कश्मीर समस्या का कोई समाधान निकाल सकते हैं. महबूबा के कहने का मतलब ये रहा कि मोदी ऐसी स्थिति में हैं कि वो कश्मीर समस्या को सुलझा सकते हैं.

दिल्ली में एक कार्यक्रम में हिस्सा ले रहीं महबूबा ने तारीफ तो मोदी की एक फिर की, लेकिन इंदिरा गांधी को बड़े दायरे में प्रोजेक्ट किया. मोदी के बारे में महबूबा ने कहा कि नेतृत्व के मामले में वो बेजोड़ हैं, लेकिन आज जरूरत है कि दोनों सरकारें साथ मिल कर जम्मू-कश्मीर को मौजूदा संकट से उबारें. इसके साथ ही महबूबा ने इंदिरा गांधी की कुछ ज्यादा ही तारीफ की. ये तारीफ काफी हद तक देवकांत बरुआ जैसी लग रही है जब उन्होंने कहा था - 'इंदिरा इज इंडिया एंड इंडिया इज इंदिरा'.

narendra modi, mehbooba mufti'मोदी-मोदी...'

महबूबा ने कहा, "मेरे लिए, भारत का मतलब इंदिरा गांधी हैं. जब मैं बड़ी हो रही थी, उन्होंने मेरे लिए भारत का प्रतिनिधित्व किया. हो सकता है कि कुछ लोगों को वो पसंद ना हों, लेकिन वही भारत थीं."

महबूबा का ये बयान तो यही इशारा कर रहा है कि गठबंधन में सब ठीक तो नहीं हैं. कभी उनके विरोधी महबूबा पर नागपुर के कंट्रोल होने का इल्जाम लगाया करते थे, लेकिन उनकी बातें सुन कर तो ऐसा लग रहा है जैसे वो केंद्र की मोदी सरकार और संघ से बुरी तरह खफा हों.

कहीं ये किसी नये अलाएंस की नींव तो नहीं है? कहीं बिहार जैसी सत्ता परिवर्तन की बयान घाटी में भी असर तो नहीं दिखा रही है?

महबूबा की चेतावनी

कुछ तो है. पर्दे के पीछे कुछ पक तो रहा है. वरना, जम्मू-कश्मीर में जब से पीडीपी और बीजेपी की गठबंधन की सरकार बनी है, महबूबा का ये तेवर शायद ही कभी देखने को मिला हो. खासकर, खुद कुर्सी संभालने के बाद तो महबूबा अलगाववादियों के खिलाफ भी सख्त नजर आईं. गृह मंत्री राजनाथ सिंह के साथ उनकी संयुक्त प्रेस कांफ्रेंस इस बात की मिसाल है जिसमें वो उन्हें रोक कर बोलीं - आप इन्हें नहीं जानते. सड़कों पर निकले वे बच्चे दूध-ब्रेड लेने नहीं निकले थे. वो बताना चाहती थीं कि ये अलगाववादी नेता ही हैं जो बच्चों के हाथों में पत्थर थमा रहे हैं. बात अब काफी आगे बढ़ चुकी है. स्टिंग ऑपरेशन के जरिये मालूम होने पर कि पत्थरबाजी के लिए फंडिंग पाकिस्तान कर रहा है और पैसा अलगाववादी ले रहे हैं. एनआईए ने उसके बाद ऐसे कई लोगों के खिलाफ कार्रवाई की है.

महबूबा एक बार फिर सबसे बातचीत पर जोर देने लगी हैं. कहीं ऐसा तो नहीं कि एनआईए की कार्रवाई महबूबा को ठीक नहीं लगी? महबूबा का कहना है कि किसी की आवाज को दबाया नहीं जा सकता. ये बात तो अलगाववादियों के पक्ष में ही जा रही है.

महबूबा पाकिस्तान से भी बात करने को कह रही हैं. पाकिस्तान से बात करने को लेकर एक बार प्रधानमंत्री मोदी ने कहा था कि बात करें तो किससे करें? उनके कहने का मतलब ये था कि 'नॉन स्टेट एक्टर्स' से बात तो हो नहीं सकती. फिलहाल तो मामला कुछ ज्यादा ही दिलचस्प हो गया है. पाकिस्तान में नवाज शरीफ के इस्तीफे के बाद सरकार जैसी कोई चीज ही नहीं दिखाई दे रही. पाकिस्तान से तेज तो बिहार में सरकार बदल गयी.

महबूबा के चिढ़ने की ताजा वजह सुप्रीम कोर्ट में दायर एक याचिका भी लग रही है और उनकी बातों से इसकी पुष्टि भी हो जा रही है. सुप्रीम कोर्ट एक गैर सरकारी संगठन 'वी द सिटिजन' ने जनहित याचिका दाखिल कर अनुच्छेद-35 (ए) की संवैधानिक वैधता को चुनौती दी है. इसके तहत जम्मू-कश्मीर के लोगों को मिले विशेष अधिकार पर अब सुप्रीम कोर्ट की तीन जजों की बेंच सुनवाई करेगी. केंद्र सरकार भी इसे संवेदनशील मामला बताते हुए बचने की कोशिश कर रही है.

अनुच्छेद 35 ए को चुनौती देने को लेकर महबूबा कहती हैं, "कौन यह कर रहा है? क्यों वे ऐसा कर रहे हैं? मुझे बताने दें कि मेरी पार्टी और अन्य पार्टियां जो तमाम जोखिमों के बावजूद जम्मू कश्मीर में राष्ट्रीय ध्वज हाथों में रखती हैं, मुझे यह कहने में तनिक भी संदेह नहीं है कि अगर इसमें कोई बदलाव किया गया तो कोई भी इसे थामने वाला नहीं होगा.”

श्रीनगर उपचुनाव के दौरान फारूक अब्दुल्ला खुलेआम अलगाववादियों से कह रहे थे कि वे खुद को अकेला न समझें. महज सात फीसदी मतदान के बाद सांसद बने अब्दुल्ला अब कश्मीर पर अमेरिका और चीन से दखल की मांग भी करने लगे हैं. हालांकि, इस बात पर उन्हें कांग्रेस का भी साथ नहीं मिल सका है. कांग्रेस जम्मू-कश्मीर में नेशनल कांफ्रेंस की सरकार में पार्टनर रही है. वैसे कांग्रेस नेता गुलाम नबी आजाद में संसद के पिछले सत्र में कश्मीर के मसले पर मोदी सरकार को घेरने की कोशिश भी कही. आजाद का आरोप था कि कश्मीर का ताज जल रहा है और सरकार हाथ पर हाथ धरे बैठी है.

sonia gandhi, mehbooba muftiकोई सियासत नहीं, बस...

महबूबा की मोदी सरकार से नाराजगी तब भी देखी गयी जब उनके पिता मुफ्ती मोहम्मद सईद का निधन हुआ था. महबूबा इस बात से खफा थीं कि उनके पिता आखिरी वक्त में दिल्ली में थे और कोई बड़ा नेता उन्हें देखने नहीं गया. मुफ्ती सईद के अंतिम संस्कार में भी मोदी सरकार के प्रतिनिधि शामिल हुए. दूसरी तरफ, कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी शोक की घड़ी में महबूबा के साथ खड़ी नजर आई थीं. सोनिया के इस कदम के पीछे पुराने रिश्तों की दुहाई दी गयी और कांग्रेस की ओर से बताया गया कि इसे राजनीतिक नजरिये से नहीं देखा जाना चाहिये. कयासों को विराम तभी लगा जब गठबंधन सरकार में महबूबा सीएम की कुर्सी पर बैठ गयीं.

महबूबा की गृह मंत्री राजनाथ सिंह से मुलाकात के बाद चर्चा रही कि उन्हें तीन महीने की मोहलत मिली है - और अब वो वक्त भी बीत ही चुका है. उस वक्त भी ऐसे हालात थे कि जम्मू-कश्मीर में गवर्नर रूल की संभावना जतायी जा रही थी. कोशिशें जितनी भी और जैसी भी हुई हों, हालात जस के तस ही नजर आ रहे हैं.

अब अचानक इंदिरा गांधी का जिक्र करना और ये जताना कि मोदी सरकार वाजपेयी सरकार की तरह पेश नहीं आ रही है, इशारा तो यही कर रहा है कि महबूबा अब मोदी के मोह से आजाद होना चाह रही हैं. शायद महबूबा को भी नीतीश की तरह किसी मजबूत बहाने की तलाश है.

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