द मेकिंग ऑफ राहुल गांधी
राहुल गांधी और कांग्रेस का वक्त बदलता हुआ नजर आ रहा है. ये वो दौर है जब कांग्रेस अपने सबसे बुरे दौर का सामना कर रही है और राहुल गांधी की निगेरबानी में 2019 चुनावों की तैयारी कर रही है.
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कहते हैं कि 'वक़्त बदलते देर नहीं लगती'. देश के वर्तमान राजनैतिक परिदृश्य पर यह बात बिल्कुल फिट बैठती नज़र आ रही है. आज से लगभग डेढ़ साल पहले मार्च 2017 में उत्तर प्रदेश समेत पांच राज्यों के विधानसभा के नतीजे आये थे. नतीजों में भारतीय जनता पार्टी ने पंजाब छोड़ कर सभी राज्यों में अच्छा प्रदर्शन किया था. उत्तर प्रदेश में तो भाजपा का प्रदर्शन इतना प्रचंड रहा था कि नतीजों के बाद जम्मू-कश्मीर के पूर्व मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्लाह को यह कहना पड़ा था कि अगर भाजपा की यही रफ़्तार जारी रही तो विपक्ष को 2019 चुनावों को भूल कर 2024 चुनावों की तैयारी करनी चाहिए. अब्दुल्लाह ने साथ ही यह भी कहा था कि वर्तमान में ऐसा कोई नेता ही नहीं जो 2019 में मोदी और बीजेपी को टक्कर दे सके. खुद भाजपा अध्यक्ष भी अगले 50 सालों तक सत्ता में रहने का दावा करते नजर आए थे. वाकई कांग्रेस जिस रफ्तार से देश के नक़्शे से गायब हो रही थी उससे एक बार के लिए यह विश्वास ही हो चला था कि देश कांग्रेस मुक्त होने की ओर अग्रसर हो रही है.
कांग्रेस अध्यक्ष बनने के बाद अब पहली जीत हुई है कांग्रेस की जो राहुल के नेतृत्व में परिवर्तन दिखाती है
2017 के आखिरी महीना आते-आते तक परिस्थितियों ने अंगड़ाई लेनी शुरू कर दी थी. साल के आखिरी महीनों में भाजपा और नरेंद्र मोदी का गढ़ माने जाने वाले गुजरात में चुनाव हुए, हालांकि चुनावों के नतीजे भाजपा के पक्ष में रहे मगर जीत उतनी आसान नहीं रही जीतनी भाजपा को उम्मीद रही होगी. लगभग 20 साल से सत्ता में रहने के बाद जीत वैसे भी विशेष ही होती है, फिर भी कांग्रेस ने कुछ हद तक लड़ने का माद्दा दिखाया तो इसका श्रेय राहुल गांधी को ही जाता है. राहुल कांग्रेस को जीत नहीं दिला सके मगर पहली बार ऐसा हुआ जब राहुल गांधी मोदी और शाह की जोड़ी को कुछ हद तक टक्कर देने में कामयाब रहे. गुजरात चुनावों के बाद यह कहा जा रहा था कि राहुल गांधी के भाषणों में अब पहले से ज्यादा परिपक्वता आयी है और शायद लोगों में राहुल की लोकप्रियता में भी कुछ इजाफा हुआ है. मगर गुजरात चुनावों में हार राहुल के कांग्रेस अध्यक्ष बनने के बाद पहली हार बन के भी आयी.
गुजरात में कांग्रेस के प्रदर्शन में सुधार के बाद भी कर्नाटक चुनावों में राहुल का कोई असर दिखा नहीं. हां, चुनाव नतीजों के बाद जरूर कांग्रेस के थिंकटैंक ने बाज़ीगरी दिखाते हुए हारने के बावजूद अपने से कम सीट लाने वाले जेडीएस को मुख्यमंत्री का पद सौप, चुनावों में सबसे बड़ी पार्टी बन कर उभरी भाजपा को सत्ता से बाहर कर दिया. पर कर्नाटक की सत्ता में बैकडोर एंट्री में राहुल का क्या हाथ रहा कहना मुश्किल है.
राहुल के लिए असल चुनौती हिंदी पट्टी के तीन राज्य और तेलांगना लेकर आए. कह सकते हैं कि यह चुनाव राहुल के लिए करो या मरो के सामान ही था. राहुल के लिए चुनौती इसलिए भी बड़ी थी क्योंकि जहां एक तरफ हिंदी पट्टी के तीन राज्यों में उनका सीधा मुकाबला भारतीय जनता पार्टी और मोदी-शाह की जोड़ी से था तो वहीं राहुल को एक लड़ाई कांग्रेस के संघटन के स्तर पर भी लड़नी थी. मध्य प्रदेश में कांग्रेस के पास चेहरा अवश्य था मगर 15 सालों से सत्ता से बाहर रहने के कारण जमीनी स्तर पर काम करने वाले कार्यकर्ताओं की कमी थी. मध्य प्रदेश में राहुल को जमीनी कार्यकर्ताओं में जोश जगाने के साथ ही बड़े नेताओं, कमलनाथ, ज्योतिरादित्य सिंधिया और दिग्विजय सिंह के मनभेद को भी काबू करने की जिम्मेदारी थी. चुनावों से पहले तो यहां तक कहा जा रहा था कि मध्य प्रदेश में कांग्रेस, कांग्रेस से ही हार जाएगी.
लोग कांग्रेस औऱ राहुल के सॉफ्ट हिंदुत्व पर भरोसा करने लगे हैं
बड़े नेताओं के मनभेद की समस्या कांग्रेस को राजस्थान में भी थी, जहां अशोक गेहलोत और सचिन पायलट दो अलग-अलग गुटों के नेता माने जाते थे और वो हैं भी. इन दो राज्यों के विपरीत छत्तीसगढ़ में तो कांग्रेस को एक अदद चेहरे की ही दरकार थी, अजित जोगी और मायावती के साथ आने से भी इसे कांग्रेस के लिए संभावित नुकसान के तौर पर ही देखा जा रहा था.
अब जबकि हिंदी पट्टी के तीनों राज्यों के नतीजे आ गए हैं, और तीनों ही राज्यों में कांग्रेस सरकार बनाने वाली है, तो कहा जा सकता है कि राहुल गांधी बीजेपी के साथ-साथ पार्टी के संघटन के स्तर पर भी लड़ाई जीतने में कामयाब रहे. यह राहुल का ही हस्तक्षेप था जिसके बाद मध्य प्रदेश और राजस्थान में गुटों में बंटी पार्टी एक हो कर भाजपा के खिलाफ लड़ते दिखीं.
कांग्रेस तेलांगना में तेलुगु देशम पार्टी से गठजोड़ करने के बावजूद तेलांगना में कुछ ख़ास नहीं कर सकी और साथ ही नार्थ ईस्ट में आखिरी राज्य मिज़ोरम में भी अपनी सत्ता गंवा बैठी. मगर हिंदी पट्टी के तीन अहम राज्यों में जीत निश्चित रूप से राहुल के कद में इजाफा करने में काफी मददगार होगी. इन अहम राज्यों में जीत लोकसभा चुनावों के पहले कांग्रेस पार्टी के कार्यकर्ताओं को जरुरी मोरल बूस्टर के तौर पर काम करेगी. इन राज्यों में जीत के साथ ही राहुल गांधी की संभावित महागठबंधन के अंदर स्वीकार्यता भी बढ़ेगी. राहुल इस बात से भी खुश हो सकते हैं कि उन्होंने इन तीनों ही राज्यों में भाजपा को सीधे मुकाबले में हराया है.
यह सफलता जरूर राहुल के लिए खास होगी मगर राहुल की असल चुनौती तो 2019 के लोकसभा चुनाव ही होंगे. लोकसभा के चुनाव विधानसभा के चुनावों से काफी अलग होंगे, जहां राहुल को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से सीधा मुकाबला करना होगा. एक तरफ जहां मोदी के पास मुख्यमंत्री और प्रधानमंत्री के तौर पर लंबा प्रशाशनिक अनुभव है तो वहीं राहुल अभी तक सरकार के स्तर पर कोई भी जिम्मेदारी लेने से बचते रहे हैं. ऐसे में यह भरोसा दिलाना कि वो मोदी के विकल्प बन सकते हैं, किसी दुरूह काम से कम नहीं है. राहुल को यह भी ध्यान में रखना होगा कि आज भी प्रधानमंत्री के तौर पर नरेंद्र मोदी ही जनता की पहली पसंद हैं. ऐसे में इन चुनौतियों से राहुल कैसे पार पाएंगे देखना दिलचस्प होगा.
वर्तमान में तीन राज्यों में चुनावी जीत राहुल को यह भरोसा दिला सकती है कि मोदी और भाजपा असाध्य नहीं है. और इन परिणामों से यह भी साफ हो गया कि 2019 का चुनाव भाजपा के लिए इतना भी आसान नहीं रहने वाला है जितना साल डेढ़ साल पहले तक लगता आ रहा था. अब 2019 के चुनाव में कांग्रेस के कार्यकर्ता एक नए जोश के साथ मैदान में आ सकते हैं, अब यह भी माना जा सकता है कि विपक्ष की अन्य पार्टियां अब शायद कांग्रेस के नेतृत्व में चुनावों में जाना स्वीकार कर लें. गुंजाइश इसकी भी बनती है कि अगर राहुल इसी जज्बे के साथ लगे रहें तो चुनावों में कांग्रेस के प्रदर्शन में सुधार अवश्य ही हो सकता है. कह सकते हैं कि 2019 के चुनावों में अब एक मजबूत विपक्ष सत्ता पक्ष से मुकाबला करने को तैयार दिख रहा है, मगर इसका कितना असर चुनाव के नतीजों पर पड़ेंगे इसकी सही तस्वीर 2019 चुनावों के परिणाम ही बता पाएंगे.
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