फिर तो बिहार में तीसरा नहीं 'वोटकटवा मोर्चा' ही बनेगा
रह रह कर किसी न किसी बहाने तीसरे मोर्चे की बात भी उठती है. फिर किसी और बहाने वो आइडिया ही ढेर हो जाती है.
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बिहार विधानसभा चुनाव में मुकाबले में दो चेहरे हैं. एक मुख्यमंत्री नीतीश कुमार और दूसरा, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का. इस तरह मुख्य मुकाबला उनकी अगुवाई वाले महागठबंधन और एनडीए के बीच होने जा रहा है.
तस्वीर का दूसरा पहलू भी है. रह रह कर किसी न किसी बहाने तीसरे मोर्चे की बात भी उठती है. फिर किसी और बहाने वो आइडिया ही ढेर हो जाती है. फिर भी इनमें ज्यादातर नेता चुनाव मैदान में उतरते जरूर हैं - और शायद इसीलिए इन्हें 'वोटकटवा' की उपाधि दी जाती है. वोटकटवा वे उम्मीदवार होते हैं जिनकी जीत की संभावना तो न के बराबर होती है, लेकिन जीत-हार में इनका रोल बढ़ जाता है.
चुनावों से पहले
वैसे पिछले चुनावों की तरह 2014 के लोक सभा चुनाव से पहले भी तीसरे मोर्चे की कोशिशें हुईं. उसके भी केंद्र में मुलायम सिंह ही रहे. दिल्ली में कई मीटिंग भी हुई. कुछ बड़े तो कुछ नेताओं के प्रतिनिधि शामिल भी हुए - लेकिन कुल मिलाकर शो फ्लॉप रहा.
बिहार के मौजूदा विधानसभा चुनाव से महीनों पहले जनता परिवार के रूप में हुआ प्रयास भी वैसा कुछ एक्सपेरिमेंट रहा, जो बनने से पहले ही बिखर गया - अब तो उसका नामोनिशान तक शायद नहीं बचा होगा - फिर भी मुलायम चाहते हैं कि जैसे भी हो कोई मोर्चा बन जाए.
नई कोशिश
महागठबंधन से रिश्ता तोड़ने के साथ ही मुलायम सिंह यादव ने अपनी पार्टी समाजवादी पार्टी के साथ तीसरा मोर्चा खड़ा करने की उम्मीद लगाई. उसकी वजह भी रही. शरद पवार की पार्टी एनसीपी अपने हिस्से में बेहद कम सीटें छोड़े जाने को लेकर पहले ही कट चुकी थी. कुछ अन्य पार्टियां भी यूं ही भटक रही हैं.
मुलायम ने इस मोर्चे में वाम दलों को भी साथ लेने की जुगत लगाई. असल में वाम दलों के सम्मेलन में छह पार्टियों ने साथ मिल कर मोदी और नीतीश को चुनौती देने का फैसला किया. सीपीआई, सीपीएम, सीपीआई (एमएल), ऑल इंडिया फार्वर्ड ब्लॉक, सोशलिस्ट यूनिटी सेंटर ऑफ इंडिया, और रिवोल्यूशनरी सोशलिस्ट पार्टी ने मिल कर एक वाम मोर्चा खड़ा कर लिया. मोर्चे की ओर से कहा गया कि वो लगभग सभी (230-240) सीटों पर लड़ने का इरादा रखता है.
जब समाजवादी पार्टी की ओर से बात चली तो वाम दलों ने ये भी साफ कर दिया कि समाजवादी पार्टी या एनसीपी के साथ वो किसी तरह का चुनावी गठबंधन नहीं करने जा रहे हैं.
ऐसे में समाजवादी पार्टी के पास अकेले मैदान में उतरने के अलावा कोई चारा नहीं रहा. एसपी ने पहले से ही सभी 243 सीटों पर लड़ने की घोषणा कर रखी है.
पुराने प्रयास
कभी लालू प्रसाद के दाहिने हाथ रहे राजेश रंजन उर्फ पप्पू यादव कई महीने से मोर्चा बनाने में जुटे हुए हैं. खासकर लालू की पार्टी आरजेडी से निकाले जाने के बाद. पहले उन्होंने पूर्व मुख्यमंत्री जीतन राम मांझी के और कांग्रेस के साथ मोर्चा बनाने की चर्चा छेड़ी. फिर कुछ गुजरे जमाने के नेताओं नागमणि और साधु यादव के साथ मिल कर भी मोर्चा खड़ा करने के प्रयास हुए. लेकिन उनमें से कोई बात नहीं बन सकी.
फिलहाल, पप्पू यादव एनडीए के संपर्क में हैं. अभी पिछले हफ्ते उन्होंने प्रधानमंत्री मोदी से भी मुलाकात की, लेकिन बीजेपी की ओर से सार्वजनिक तौर पर मांझी के साथ गठबंधन जैसा कोई बयान नहीं आया है. बीजेपी पप्पू यादव को आरजेडी के वोट बैंक में सेंध लगाने के लिए इस्तेमाल तो करना चाहती है, लेकिन उनकी पुरानी छवि को देखते हुए कोई रिस्क भी नहीं लेना चाहती.
लगता है बीजेपी पप्पू यादव को सिर्फ वोटकटवा जैसे ही इस्तेमाल करने के मूड में है.
वोटकटवा मोर्चा साल 2010 के विधानसभा चुनाव में समाजवादी पार्टी ने 146 सीटों पर उम्मीदवार उतारे थे - पर सीट तो एक भी नहीं निकल पाई. इस बार एसपी के बिहार के नेताओं के अनशन और धरने के बाद महागठबंधन में मुलायम को पांच सीटें ऑफर की जा रही थीं जिसे उन्होंने नामंजूर कर दिया. इसी तरह सीपीआई ने 56 और सीपीएम ने 30 सीटों पर किस्मत आजमाए थे जिनमें सीपीआई को तो एक सीट पर कामयाबी मिली लेकिन सीपीएम का खाता भी नहीं खुल पाया.
अब ये सभी अलग अलग चुनाव लड़ें या फिर कोई मोर्चा खड़ा कर महागठबंधन और एनडीए को चुनौती दें. बावजूद इसके सीटों का आंकड़ा दहाई तक पहुंच जाए इसकी संभावना कम ही होगी.
फिर इनके चुनाव लड़ने का मतलब क्या है?
सबसे बड़ा तर्क तो यही होगा कि सियासत में चुनाव जीतने या हारने के लिए नहीं बल्कि लड़ने के लिए लड़े जाते हैं.
ये पार्टियां अपने उम्मीदवार खड़े करती हैं तो दोनों गठबंधनों में से किसी एक को फायदा होगा - तो दूसरे को निश्चित रूप से नुकसान ही होना है. अब सवाल है कि इन सबसे ज्यादा फायदा किसे होगा और किसे नुकसान. जो वोट इन्हें मिलेंगे उनमें एनडीए के हिस्सेवाले तो कम ही होंगे. घाटा तो महागठबंधन का ही होगा जिसका वोट इनके हिस्से में जाएगा. ऐसी हालत में सीधा और डबल फायदा तो बीजेपी की अगुवाई वाले एनडीए को मिलेगा - और इसमें शक की गुंजाइश कम ही बनती है.
फिर तो ये नेता या इनका मोर्चा 'वोटकटवा मोर्चा' से ज्यादा कुछ तो होगा नहीं. वैसे मुलायम को लेकर लालू प्रसाद का कहना था, "चिंता नहीं करें, पियरी धोती पहनाकर समधी जी को मना लेंगे."
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