भारत-नेपाल के रिश्ते हमेशा रहेंगे मजबूत
चीन की पुरानी फितरत है पीछे से वार करने की, उसने अपना हित साधने के लिए पहले तिब्बतियों को अपनी जद में लिया और अब नेपाल पर शिकंजा कसने को पूरी तरह तैयार दिख रहा है.
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इन दिनों नेपाल के प्रधानमंत्री केपी ओली का साप्ताहिक चीन दौरा सुर्खियों में है. ओली की इस यात्रा को भारत में उनकी ठीक एक महीने पहले की यात्रा से जोड़कर देखा जा रहा है. ओली चीन की यात्रा से पहले भारत आए, क्योंकि वह दोनों देशों से अपने रिश्ते मजबूत बनाना चाहते हैं. ओली के संतुलन साधने वाले इस दौरे से नेपाल और चीन के बीच व्यापार, रेल परिवहन और ऊर्जा क्षेत्र में महत्वपूर्ण द्वीपक्षीय समझौते होने की उम्मीद है. नेपाल में करीब 20 हजार तिब्बती शरणार्थी हैं. चीन ने अब नेपाल से नई प्रत्यर्पण संधि करने को कहा है.
चीन का कहना है कि विदेशों से सहायता प्राप्त गैरसरकारी संगठन यानी एनजीओ और दूसरी ताकतें चीन में असंतोष को बढ़ावा दे रही हैं और उनके खिलाफ कार्रवाई के लिए आपसी कानूनी सहायता व समझौता किया जाना चाहिए. इससे साफ संदेश जाता है कि चीन की नेपाल में दिलचस्पी भले अधिक न हो, पर कुछ कम भी नहीं है. ओली चीन को नेपाल में बिजली योजनाओं में बड़े पैमाने पर निवेश का न्योता देने जा रहे हैं. शुरू में यह निवेश 2200 मेगावाट की तीन परियोजनाओं के लिए होगा. इसके अलावा, चीन को नेपाल की मुख्य पर्यटन नगरी पोखरा में अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डा बनाने का प्रस्ताव भी दिया जाएगा.
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जाहिर है ये ऐसे न्योते हैं, जिनसे भारत को खुशी नहीं होगी. चीन ने पिछले साल अप्रैल में भूकंप से तबाह हुए नेपाल के इलाकों के पुनर्निर्माण में भी दिलचस्पी दिखाई है. दरअसल, नेपाल के 1768 में अपने अस्तित्व में आने के बाद से ही वह भारत और चीन के लिए खास रहा है. भारत ने कभी भी उसकी मदद अपने हित के लिए नहीं की है, जबकि चीन उसे भारत के खिलाफ केवल एक मोहरे के तरह प्रयोग करता आ रहा है. उसने हमेशा नेपाल की मदद हमारे विरुद्ध की है, ताकि उससे हमारी दूरियां बढ सकें और वह इसका फायदा उठा सके.
नेपाल और भारत सीमाएं साझा करते हैं और इनकी खुली सीमाएं, साझा संस्कृति, मान्यताएं और जनसांख्यिकी, खासकर बिहार और उत्तर प्रदेश की सीमा से लगे क्षेत्र दोनों देशो के रिश्तों को मजबूत बनाते हैं.
व्यापार और आवागमन के लिए भारत पर नेपाल की निर्भरता के कारण ही कुछ लोग इसे भारत से बंधा बताते रहे हैं और यही वजह है कि भारत इस मायने में नेपाल के लिए बेहद खास बन जाता है. लेकिन क्या कारण है कि नेपाल चीन की गोद में जा बैठने को आतुर है. नेपाल के प्रधानमंत्री की भारत के बजाय चीन की ओर कदम बढ़ा रहें हैं? चीन सम्पूर्ण विश्व में रेल बिछाने में अव्वल है और ओली जानते हैं कि इसके लिए उन्हें चीन की शरण में जाना ही होगा.
भारत सदा से नेपाल का हितैषी रहा है। उसने हर मोड़ पर नेपाल का साथ दिया है, जबकि चीन ने उसे हमेशा ही हाशिये पर रखा, केवल अपना हित साधने के लिए. गौरतलब है कि नेपाल में आये भारी राजनीतिक बदलाव से यहाँ कई बदलाव देखने को मिले हैं और 2006 में इस हिंदू राज्य ने धर्मनिरपेक्ष राज्य का चोला धारण कर लिया. जहां नेपाल की राजनीति में भारत की मौजूदगी दिखती है, वहीं बाद में चीन ने भी नेपाल में दखल देना शुरू किया। जबकि पहले चीन की दखलअंदाजी तिब्बती शरणार्थियों की गतिविधियों पर निर्देश देने तक ही सीमित रहती थी. चीन की पुरानी फितरत है पीछे से वार करने की, उसने अपना हित साधने के लिए पहले तिब्बतियों को अपनी जद में लिया और अब नेपाल पर शिकंजा कसने को पूरी तरह तैयार दिख रहा है.
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नेपाल और चीन का ऊर्जा और परिवहन समझौता कहीं भारत को ब्लैकमेल करने की साजिश तो नहीं है! चीन और भारत नेपाल के विकास, शांति और स्थिरता में सहयोग कर वहां अपनी स्थिति मजबूत करना चाहते हैं. मगर नेपाल में भारत की लोकप्रियता में गिरावट, इसकी देखरेख में चल रही परियोजनाओं में देरी और सबसे बड़ी बात नेपाल की राजनीति में भारत की बढ़ती मौजूदगी और हाल की नाकेबंदी के कारण को भारत को आत्मविश्लेषण करने की आवश्यकता है. वहीं दूसरी और नेपाल को भी जल्द समझ लेना चाहिए कि भारत से हमेशा ही उसके सम्बन्ध बेजोड़ रहे हैं और आगे भी रहेंगे. फिर चाहे वह संस्कृति के मामले हो या फिर व्यापार के मामले हो. रेल बिछाने से केवल नेपाल का सम्पूर्ण विकास नहीं होगा, अपितु इसके लिए पहले उसे अपने देश में शांति कायम करनी होगी, जिससे खुशहाली आये.
अपनी मीठी-मीठी बातो में फंसाने वाला और कूटनीति से नेपाल पर अपना दबदबा बनाने वाले चीन को भी सावधान रहना होगा. वह भारत-नेपाल के रिश्तों को नहीं तोड़ सकता है.
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