राहुल-प्रियंका को लेकर देश का मिजाज 20 महीने बाद भी नहीं बदला है
2014 में मनमोहन सरकार को नकार चुके देश के लोगों को लगता है कि राहुल गांधी (Rahul Gandhi) और प्रियंका गांधी (Priyanka Gandhi Vadra) नहीं, बल्कि मनमोहन सिंह (Manmohan Singh) का नेतृत्व ही कांग्रेस को उबार सकता है - लेकिन ऐसा क्यों है?
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2019 के आम चुनाव के नतीजे आने के बाद राहुल गांधी (Rahul Gandhi) ने कांग्रेस अध्यक्ष पद से इस्तीफा दे दिया था - जिसे अब 20 महीने हो चुके हैं. देखा जाये तो राहुल गांधी बाद के 10 महीनों में खासे एक्टिव रहे हैं. राहुल गांधी के साथ साथ कांग्रेस महासचिव प्रियंका गांधी वाड्रा (Priyanka Gandhi Vadra) भी बराबर ही एक्टिव रही हैं. बल्कि, कई मौकों पर तो आगे बढ़ कर लीड करती भी नजर आयी हैं.
राहुल गांधी के छुट्टी पर चले जाने से कांग्रेस के स्थापना दिवस समारोह की बागडोर भी प्रियंका गांधी को ही संभालनी पड़ी और तिरंगा यात्रा की निगरानी भी. जंतर मंतर पर किसानों के समर्थन में धरना दे रहे कांग्रेस सांसद भी प्रियंका गांधी को ही रिपोर्ट करते रहे - और जब राहुल गांधी तीनों कृषि कानूनों की वापसी की मांग के साथ राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद को ज्ञापन देने पहुंचे तो सड़क पर उतर कर मार्च निकालने की कोशिश में गिरफ्तार भी हुईं.
बावजूद इन सबके इंडिया टुडे और कार्वी इनसाइट्स के 'मूड ऑफ द नेशन' सर्वे (India Today Mood of The Nation survey) तो यही बता रहा है कि राहुल गांधी और प्रियंका गांधी वाड्रा की तमाम कोशिशें लोगों पर कोई प्रभाव नहीं छोड़ पा रही हैं - और कांग्रेस को उबारने के मामले में दोनों ही फिसड्डी साबित हो रहे हैं.
सर्वे में जो सबसे चौंकाने वाली बात आयी है वो ये है कि देश के लोग राहुल गांधी और प्रियंका गांधी वाड्रा के मुकाबले पूर्व प्रधानमंत्री डॉक्टर मनमोहन सिंह (Manmohan Singh) से ज्यादा उम्मीद कर रहे हैं - लोगों को लगता है कि गांधी परिवार से अलग अगर कोई कांग्रेस को मौजूदा संकट से उबार सकता है तो वो मनमोहन सिंह ही हैं.
कांग्रेस में मनमोहन जैसा कोई नहीं!
इंडिया टुडे और कार्वी इनसाइट्स के 'मूड ऑफ द नेशन' सर्वे से कुछ बातें तो साफ साफ नजर आ रही हैं. मसलन, आम चुनाव हुए डेढ़ साल से ज्यादा वक्त गुजर जाने के बाद भी कांग्रेस नेतृत्व तमाम शोर-शराबे के बावजूद अवाम पर अपनी कोई छाप नहीं छोड़ पाया है. मतलब ये कि 2024 के आम चुनाव के हिसाब से भी देखें तो बीजेपी के लिए मैदान 2014 की तरह ही साफ नजर आ रहा है.
कुल मिला कर देखें तो, न तो बीजेपी की सरकार के सामने विपक्ष किसी तरह की चुनौती पेश करने की स्थिति में लग रहा है और न ही नरेंद्र मोदी के आगे प्रधानमंत्री पद पर विपक्षी खेमे का कोई भी नेता चैलेंज कर - प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को जहां सर्वे में शामिल 34 फीसदी लोग आगे भी PM के रूप में देखना चाहते हैं, वहीं राहुल गांधी के बारे में महज 7 फीसदी लोग ऐसी भावना रखते हैं.
सर्वे में तो लोग कह रहे हैं कि अगर नरेंद्र मोदी की जगह किसी और को प्रधानमंत्री चुनना होगा तो वो यूपी के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ या केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह को चुनना पसंद करेंगे - ऐसी परिस्थिति में भला कांग्रेस के भविष्य को लेकर क्या सोचा जाये.
सोनिया गांधी जो भी सोच रखती हों, लेकिन देश के लोगों को लगता है कि कांग्रेस उनसे भी बेहतर मनमोहन सिंह ही हैं
पहले बताया जा रहा था कि 2021 की शुरुआत में ही कांग्रेस अध्यक्ष पद के लिए चुनाव हो जाएंगे और कांग्रेस अधिवेशन में पूरी तस्वीर सामने भी आ जाएगी, लेकिन CWC की हालिया बैठक में ये भी टाल देने का फैसला हुआ है. अब सुनने में आ रहा है कि नये कांग्रेस अध्यक्ष का चुनाव मई में होगा और जून तक ही कांग्रेस को नया और पूर्णकालिक अध्यक्ष मिल पाएगा.
कहीं गांधी परिवार के हाथ से कांग्रेस की कमान फिसल न जाये, इस डर से सोनिया गांधी खुद अंतरिम अध्यक्ष बनी हुई हैं. जब G-23 नेताओं ने सोनिया गांधी को चिट्ठी लिखी थी तो कांग्रेस नेता ने इस्तीफे की पेशकश कर दी थी. एक बार फिर हुई कांग्रेस कार्यकारिणी की बैठक में अशोक गहलोत पूरे फॉर्म में देखे गये. अशोक गहलोत और आनंद शर्मा में तीखी नोक-झोंक भी हुई. अशोक गहलोत पूछ बैठे कि क्या कांग्रेस में नेताओं को सोनिया गांधी के नेतृत्व में भरोसा नहीं है?
कांग्रेस के भीतर राजनीति चमकाने के लिए तो अशोक गहलोत का स्टैंड बिलकुल सटीक है, लेकिन मैदान में आते ही वो टांय टांय फिस्स हो जाने वाला है. हो सकता है अशोक गहलोत असल बात समझ नहीं पा रहे हों, या फिर समझना ही नहीं चाह रहे हों, वैसे भी भलाई ऐसी ही समझ में है जिसे वो प्रदर्शित कर रहे हैं.
अशोक गहलोत की जो भी सोच हो, जैसी भी श्रद्धा हो, लेकिन वो हकीकत से कोसों दूर है. कोई दो राय नहीं कि सोनिया गांधी ने 2004 और फिर पांच साल के कांग्रेस की अगुवाई में यूपीए सरकार चलाने के बाद 2009 में भी पार्टी को सत्ता में वापस लाने में कामयाब रही हैं, लेकिन अब उनकी सेहत कामकाज में आड़े आ रही है. वो तो खुद को 2017 में ही रिटायर मान चुकी थीं. ज्यादा से ज्यादा वो यूपीए चेयरपर्सन बने रहने को तैयार थीं, लेकिन हालात ऐसे बने के फिर से कांग्रेस की कमान संभालनी पड़ी. असल में राहुल गांधी ने इस्तीफा देने के साथ ही शर्त ये रख दी कि अब गांधी परिवार से बाहर का ही कोई कांग्रेस अध्यक्ष की कुर्सी पर बैठना चाहिये.
सोनिया गांधी के नेतृत्व में कांग्रेसियों को भले भरोसा हो, लेकिन सर्वे में सिर्फ 4 फीसदी लोगों ने ही सोनिया गांधी के नेतृत्व करने के सवाल पर मुहर लगायी है और ये पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी के बराबर है.
ऐसे में अशोक गहलोत गांधी परिवार से करीबी दिखाकर अपने राजनीतिक विरोधी सचिन पायलट पर तो धौंस जमा सकते हैं, लेकिन कांग्रेस के फिर से खड़ा होने में कोई योगदान नहीं दे सकते.
सर्वे के मुताबिक सोनिया गांधी की अगुवाई वाले यूपीए को आम चुनाव के मुकाबले आज की तारीख में चुनाव होने पर 91 से दो सीटें ज्यादा मिलने की संभावना जतायी गयी है - 93 सीटें. कांग्रेस को लोक सभा चुनाव में 52 सीटें हासिल हुई थीं और, सर्वे के मुताबिक कांग्रेस को एक सीट का नुकसान होता नजर आ रहा है. ताजा सर्वे में एनडीए और यूपीए से इतर बाकी दलों के खाते में 129 सीटें मिलने का अंदाजा लगाया गया है.
सर्वे से एक और बात सामने आई है और वो ये कि सोनिया गांधी ने मनमोहन सिंह को देश का प्रधानमंत्री बनाकर कोई गलती नहीं की. अब अगर कांग्रेस की वापसी की उम्मीदें खत्म हो रही हैं और गांधी परिवार इस दिशा में कुछ भी नहीं कर पा रहा है तो वो बहुत कसूरवार भी नहीं लगता - क्योंकि लोगों को राहुल गांधी और प्रियंका गांधी वाड्रा से ज्यादा उम्मीद पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह से लग रही है.
सर्वे में 16 फीसदी लोगों का मानना है कि अगर मनमोहन सिंह कांग्रेस का नेतृत्व करें तो पार्टी दोबारा वापसी कर सकती है. वैसे इस मामले में राहुल गांधी थोड़ा ही पीछे हैं - 15 फीसदी लोगों की सलाह है कि राहुल गांधी को भी कांग्रेस का अध्यक्ष बनना चाहिये. हालांकि, ये भरोसा भी घटा हुआ ही नजर आ रहा है क्योंकि अगस्त, 2020 में 23 फीसदी लोग मानते थे कि राहुल गांधी का नेतृत्व ही कांग्रेस को उबार सकता है.
समझना मुश्किल है कि छह महीने में आखिर कैसे मनमोहन सिंह से राहुल गांधी पिछड़ गये, जबकि पिछले 10 महीने से कोरोना काल में कभी ऐसा तो नहीं दिखा कि वो खामोश बैठे हों. लॉकडाउन में विपक्षी दलों के हिस्से में जितनी राजनीतिक सक्रियता का स्कोप बचा था, राहुल गांधी ने अपनी तरफ से कोई कसर बाकी नहीं ही रखी है.
मनमोहन सिंह के बाद कांग्रेस के नेतृत्व को लेकर जो दूसरा नाम भी है वो भी चौंकाने ही वाला है - क्योंकि वो नाम अशोक गहलोत नहीं है. हाल फिलहाल, ऐसी खबरें आयी थीं कि अगर राहुल गांधी ने फिर से अध्यक्ष बनने से इंकार कर दिया तो ये जिम्मेदारी अशोक गहलोत को सौंपी जा सकती है.
सचिन पायलट बनाम अशोक गहलोत रिटर्न्स
लॉकडाउन में अगर किसी ने कांग्रेस में राहुल गांधी और प्रियंका गांधी वाड्रा के बाद सुर्खियां बटोरी हैं, तो वो हैं राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत. कांग्रेस कार्यकारिणी की बैठक में भी और कुछ नहीं तो एक डिमांड जरूर रखते रहे हैं कि राहुल गांधी को अब कमान संभाल लेनी चाहिये.
ताजा बैठक में तो अशोक गहलोत ने ऐसा बवाल कराया कि राहुल गांधी को स्टॉप-स्टॉप बोल कर झगड़े पर फुल स्टॉप लगाना पड़ा. समझने वाली बात ये भी है कि अशोक गहलोत खुद को भी कांग्रेस अध्यक्ष पद का प्रबल दावेदार मानते हैं. पहले भी जब गैर गांधी परिवार से अध्यक्ष पद को लेकर नाम सामने आये हैं तो उनमें भी अशोक गहलोत को जगह मिलती रही है, लेकिन सर्वे में ये बाद बेदम लगती है.
भले ही अशोक गहलोत की नजर में सचिन पायलट नकारा और निकम्मा हों, भले ही सचिन पायलट की ठीक से रगड़ाई न हुई हो. भले ही अशोक गहलोत मानते हों कि अच्छी अंग्रेजी बोलने से कुछ नहीं होता. भले ही अशोक गहलोत कहते फिरें कि हैंडसम दिखने से कुछ नहीं होता, लेकिन सच तो ये है कि कांग्रेस का नेतृत्व करने के मामले में अशोक गहलोत की कौन कहे, लोग तो सचिन पायलट को प्रियंका गांधी वाड्रा और सोनिया गांधी से भी बेहतर मानते हैं.
अशोक गहलोत को जहां 6 फीसदी लोग कांग्रेस अध्यक्ष पद के लायक मानते हैं, वहीं उनके डबल 12 फीसदी लोगों का मानना है कि सचिन पायलट अगर कांग्रेस का नेतृत्व संभालते हैं तो पार्टी की वापसी की उम्मीद की जा सकती है.
प्रियंका गांधी वाड्रा भी इस मामले में सचिन पायलट से दो फीसदी नीचे खड़ी होती हैं, 10 फीसदी लोगों का ही मानना है कि प्रियंका गांधी वाड्रा कांग्रेस अध्यक्ष बनें तो पार्टी की वापसी में मददगार साबित हो सकती हैं - और सबसे दिलचस्प बात ये है कि 10 फीसदी लोग ही सोनिया गांधी के पक्ष में भी नजर आते हैं.
अशोक गहलोत की बराबरी में कांग्रेस के दो और नेता भी जगह बनाये हुए हैं - दिग्विजय सिंह और पंजाब के मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह को लेकर 6 फीसदी लोगों का मानना है कि वो कांग्रेस को खोई हुई प्रतिष्ठा वापस दिला सकते हैं. ऐसे ही 5 फीसदी लोग कमलनाथ और पी. चिदंबरम के नाम पर मुहर लगा रहे हैं जबकि G-23 की अगुवाई कर रहे गुलाम नबी आजाद को 4 फीसदी लोग कांग्रेस अध्यक्ष के तौर पर देखने को तैयार लगते हैं. बीते दिनों मुकुल वासनिक का नाम भी कांग्रेस अध्यक्ष पद के लिए उछला था, लेकिन सर्वे में सिर्फ 2 फीसदी लोग ही उनके पक्ष में नजर आये.
सबसे बड़ी बात - 15 फीसदी लोग ऐसे भी मिले हैं जो किसी के भी सपोर्ट में नहीं हैं - मतलब, ये लोग कांग्रेस से किसी भी तरह की उम्मीद खो चुके हैं. ऐसे लोगों का यही मानना होगा कि कांग्रेस सरकार चलाने के लायक कौन समझे, विपक्ष की राजनीति के लायक भी नहीं है और जब ये हाल हो तो किसी के भी अध्यक्ष बन जाने या न बनने से फर्क ही क्या पड़ता है. वैसे भी चुनाव दर चुनाव लोग कांग्रेस को फीडबैक भी तो ऐसा ही दे रहे हैं - अब अगर साफ साफ बोलने पर भी किसी को कोई बात समझ न आये तो लोगों का क्या कसूर है.
सवाल ये है कि मनमोहन सिंह पर लोगों के भरोसे को कैसे देखा जाना चाहिये? प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने एक बार संसद में कहा था, 'उनके कार्यकाल में इतने भ्रष्टाचार हुए, लेकिन उन पर एक दाग तक नहीं लगा... बाथरूम में रेनकोट पहनकर नहाने की कला तो कोई डॉक्टर साहब से सीखे,' - कटाक्ष ही सही, लेकिन ये मनमोहन सिंह की इमानदारी पर बहुत बड़ा कॉम्प्लीमेंट भी था - और शायद यही वो भरोसा है जो आज भी लोग मनमोहन सिंह के मुकाबले राहुल गांधी और प्रियंका गांधी वाड्रा को फिसड्डी मान रहे हैं.
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