क्या यहां चीन की नकल कर पाएंगे हम
भ्रष्टाचार के खिलाफ मुहिम में चीन अपनी उस मानसिकता को तोड़ने की कोशिश कर रहा है जो अभी तक भ्रष्टाचार को जायज ठहराता रहा है. क्या उसके नक्शे-कदम पर चलने की राजनीतिक इच्छाशक्ति हमारे पास है?
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चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग ने 2012 में सत्ता संभालने के बाद देश से भ्रष्टाचार के खात्मे के लिए एक अप्रत्याशित मुहिम की शुरुआत की. खुद शी जिनपिंग कहते हैं कि उनकी इस मुहिम के तहत कम्युनिस्ट पार्टी, सरकार, सेना और सरकारी कंपनियों में भ्रष्टाचार में लिप्त शीर्ष अधिकारियों समेत अदने से अदने कर्मचारी (शी के शब्दों में- फ्रॉम टाइगर टू फ्लाइज) तक को सजा दी जाएगी. ऐसा ही कुछ वादा 2014 लोकसभा चुनावों में सत्तारूढ़ बीजेपी के प्रधानमंत्री पद के दावेदार नरेन्द्र मोदी ने किया कि सत्ता संभालने के 100 दिन में वह कालाधन वापस लाकर देश में भ्रष्टाचार को जड़ समेत उखाड़कर फेंक देंगे.
चीन और भारत दुनिया की बड़ी अर्थव्यवस्थाओं में शुमार है. यहां व्याप्त भ्रष्टाचार न सिर्फ इन दोनों देशों में रह रही लगभग 300 करोड़ आबादी को प्रभावित करती है बल्कि दुनियाभर की अर्थव्यवस्थाओं को इसका खामियाजा उठाना पड़ता है. लिहाजा, वैश्विक स्तर पर बने जी20 समूह (दुनिया की 20 बड़ी अर्थव्यवस्था) ने इन दोनों देशों में भ्रष्टाचार पर लगाम लगाने की अपील की है. इस समूह का मानना है कि यदि चीन और भारत ने भ्रष्टाचार पर लगाम लगा दी तो इन दोनों देशों की अर्थव्यवस्था मौजूदा स्तर से दोगुने स्तर पर पहुंच जाएगी.
नरेन्द्र मोदी और शी जिनपिंग |
चीन के फ्रॉम टाइगर टू फ्लाइज मुहिम में बीते तीन महीनों के दौरान 9 हजार से ज्यादा लोगों पर भ्रष्टाचार के मामलों में कारवाई की गई है. सजा पाए इन लोगों में कम से कम चार मंत्री और सेना और सरकार के कई दर्जन आला अधिकारी शामिल हैं. चीन सरकार की रिपोर्ट के मुताबिक अकेले मार्च में भ्रष्टाचार के कुल 2672 मामले सामने आए और 2701 कर्मचारियों को सजा दी गई. इन मामलों में लगभग एक-चौथाई मामले सीधे भ्रष्टाचार से जुड़े थे वहीं ज्यादातर मामले सरकारी कामकाज में गिफ्ट लेने या फिर सरकारी सुविधाओं के गैरकानूनी इस्तेमाल (सरकारी गाड़ियां, गेस्ट हाउस) का है.
गौरतलब है कि चीन के सरकारी तंत्र में छुट्टियों के दौरान तोहफा देना, प्रमोशन के लिए वरिष्ठ अधिकारियों की चमचागिरी करना, छोटे-मोटे सरकारी टेंडर्स के लिए महंगे रेस्टोरेंट में पार्टी आयोजित करना और छोटे-मोटे सरकारी काम के लिए घूस लेने और देने की प्रथा को आम बात माना जाता है. चीन में सरकारी कर्मचारियों में आम धारणा है कि ऐसे भ्रष्टाचार में सरकारी तंत्र के ज्यादातर कर्मचारी लिप्त रहते हैं लिहाजा उनके कभी पकड़े जाने की संभावना कम रहती है. चीन के सरकारी तंत्र में व्याप्त इस भ्रष्टाचार के सभी तार सत्तारूढ़ कम्युनिस्ट पार्टी से जुड़े रहते हैं और इसी के चलते वहां 1978 से भ्रष्टाचार पर लगाम लगाने की सभी कोशिशें विफल होती रही हैं. लिहाजा, 2012 में सत्ता संभालने के बाद राष्ट्रपति शी जिनपिंग ने अपनी मुहिम फ्रॉम टाइगर टू फ्लाइज में सबसे पहले कंम्यूनिस्ट पार्टी को शामिल किया और इसे लांच करने के लिए देश की आर्थिक राजधानी शंघाई को चुना.
चीन की इस मुहिम की अंतरराष्ट्रीय स्तर पर तीखी आलोचना की जा रही है. पश्चिमी मीडिया का मानना है कि इस मुहिम के जरिए शी जिनपिंग सत्ता पर अपनी पकड़ को मजबूत करने की कोशिश कर रहे हैं. हालांकि हाल में पनामा पेपर्स के खुलासे ने जब राष्ट्रपति शी जिनपिंग के परिवार और करीबियों पर उंगली उठाई तो इस मुहिम और भी मजबूत करने के कदम उठा लिए गए. गौरतलब है कि चीन सरकार ने फ्रॉम टाइगर टू फ्लाइज मुहिम में अब कम्युनिस्ट पार्टी, सरकार, सेना और सरकारी कंपनियों में काम करने वाले लोगों के साथ-साथ उनके परिवार के सभी सदस्यों और करीबियों को भी शामिल कर लिया है. साथ ही इस मुहिम के दायरे को आर्थिक राजधानी शंघाई से बढ़ाते हुए देश के चार प्रमुख नगरों को शामिल किया है जिसमें बीजिंग भी शामिल है.
गौरतलब है कि अपनी इस मुहिम से चीन सरकार उस मानसिकता को तोड़ने की कोशिश कर रही है जो अभी तक वहां पर व्याप्त भ्रष्टाचार को जायज ठहराता रहा है. इस कोशिश के बीच जब पनामा पेपर्स ने शी जिनपिंग के परिवार पर उंगली उठाई, तो पूरे मुहिम का दायरा बढ़ाते हुए सरकारी कर्मचारियों के परिवार और संबंधियों को भी शामिल कर लिया गया. अब इस कदम से चीन में भ्रष्टाचार पर लगाम कब तक लगेगी यह तो आने वाले दिनों में देखने को मिलेगा. लेकिन एक बात साफ है चीन में भ्रष्टाचार पर लगाम लगाने के लिए जरूरी राजनीतिक इच्छाशक्ति का प्रदर्शन पूरी इमानदारी के साथ किया जा रहा है. इसके उलट भारत में 2014 आम चुनावों के दौरान भले भ्रष्टाचार सबसे बड़ा मुद्दा बना और भाजपा का 100 दिन में विदेशों में जमा कालेधन को वापस लाने के वादे पर वोट भी दिल खोल कर मिला. लेकिन, जिस तरह सत्ता पाने के बाद इस मुद्दे को जुमला करार दिया गया सवाल खड़ा करता है कि क्या हमारे पास भी चीन जैसी राजनीतिक इच्छाशक्ति मौजूद है?
क्या इस मामले में हमें चीन की नकल करने की जरूरत है?
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