Tawang clash: भारत-चीन के बीच हुई झड़प पर इतनी सियासत क्यों?
समय की मांग है कि सभी एक सुर में सेना के शौर्य और पराक्रम की प्रशंसा करें बगैर किसी 'इफ या बट' के. क्योंकि जब ऐसा नहीं किया जाता है तो अतिरंजना में संवेदनशील समय में भी नामाकूल बातें निकल ही जाती है.
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झड़प तवांग में नौ तारीख को हुई, तक़रीबन 300 चीनी सैनिकों ने घुसपैठ करने की कोशिश की. हमेशा की तरह भारतीय फ़ौज ने जमकर मुकाबला करते हुए तमाम चीनियों को खदेड़ दिया जिसके परिणामस्वरूप जहां भारत के छह सैनिकों को चोटें आई वहीं तक़रीबन बीस चीनी सैनिक घायल हुए. माननीय रक्षा मंत्री ने 12 तारीख को संसद में बयान देते हुए स्पष्ट किया कि हमारा कोई सैनिक न तो हताहत हुआ है और न ही घायलों में से किसी की चोटें गंभीर हैं। यथास्थिति बरक़रार हो गई है, मामले पर सामरिक और कूटनीतिक स्तर पर यथोचित बातें भी हुई हैं. विपक्ष के सवालों में से एक महत्वपूर्ण सवाल है सरकार ने तीन दिन तक कोई बयान क्यों नहीं दिया ? सवाल ही बेमानी है चूंकि संसद की तो शनिवार और रविवार को छुट्टी थी, घटना शुक्रवार की थी और सरकार ने मंगलवार को बयान दे दिया। देरी उचित है, अंततः इतना समय तो सेना के साथ विचार विमर्श में ही न गया होगा. ऐसा पब्लिक डोमेन में भी है कि रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह ने सीडीएस, नेशनल सिक्योरिटी एडवाइज़र अजीत डोवाल और तीनों सेनाओं के प्रमुख के साथ बैठक की और तदुपरांत सीडीएस तथा डोवाल से रिपोर्ट लेकर ही संसद में अपना बयान दिया.
तवांग में भारतीय सेना की चीन के साथ झड़प ने एक बार फिर विपक्ष को राजनीति करने का मौका दे दिया है
सैन्य सूत्रों ने भी सोमवार को ही बताया था कि भारतीय और चीनी सैनिकों की अरुणाचल प्रदेश के तवांग सेक्टर में वास्तविक नियंत्रण रेखा (एलएसी) के निकट एक स्थान पर नौ दिसंबर को झड़प हुई, जिससे दोनों पक्षों के कुछ जवान मामूली रूप से घायल हो गये.कह सकते हैं कि राजनाथ सिंह का संतुलित बयान रियल टाइम में आया है. लेकिन सियासतदानों की कथनी और करनी का फर्क साफ़ साफ़ नजर आता है. जब वे शुरुआत तो करते हैं कि हम राष्ट्रीय सुरक्षा के मुद्दों पर देश के साथ हैं और इसका राजनीतिकरण नहीं कर रहे हैं लेकिन फिर सरकार पर ओछे आरोप लगाने में किंचित भी संकोच नहीं करते कि प्रधानमंत्री मोदी अपनी छवि बचाने के लिए देश को खतरे में डाल रहे हैं.
जबकि समय की मांग है कि सभी एक सुर में सेना के शौर्य और पराक्रम की प्रशंसा करें। बगैर किसी "इफ या बट" के क्योंकि जब ऐसा किया जाता है तो अतिरंजना में संवेदनशील समय में भी नामाकूल बातें निकल ही जाती है. परिणामस्वरूप अंतरराष्ट्रीय फलक पर जगहंसाई तो होती ही है साथ ही दुश्मन देश भी बेवजह ही प्रोपागेट करता है कि हम बंटे हुए हैं.
चीन ने अदावत तो 1962 से पाल रखी है. घुसपैठ के उसके कुत्सित इरादे हर दो तीन साल में नजर आते हैं और इसलिए हर पल सवाल जो कौंधता है जनमानस में कि पूर्ववर्ती कांग्रेसी सरकारें चुप्पी क्यों साधे बैठी रही ? भारत के पास अब एक ही विकल्प है कि वह चीन की हरकतों को देखते हुए सेना की हाईटेक क्षमताओं को मजबूत करने पर ध्यान दे.
फ्रांस और अमेरिका जैसे सहयोगी इस दिशा में मदद कर सकते हैं. पिछले कुछ वर्षों तक बॉर्डर पर सड़कों का जाल या दूसरे इन्फ्रास्ट्रक्चर बनाने पर ध्यान नहीं दिया गया लेकिन मोदी सरकार इस दिशा में गंभीरता से प्रयास कर रही है. फिलहाल दो तरफा तैयारी की जरूरत है. एक तरफ बॉर्डर पर सैन्य साजो सामान जल्द पहुंचाने की सुविधाएं तैयार हों, साथ ही अत्याधुनिक हथियार प्रणाली हासिल करने की जरूरत है जिससे चीन का मुकाबला किया जा सके.
और कम से कम इत्मीनान तो है कि अब ऐसा हो रहा है.जहां तक संसद में चर्चा ना करवाने का सवाल है, ऐसा हमेशा होता रहा है क्योंकि रक्षा और सामरिक मामलों पर आनन फानन में सार्वजनिक बहस हर दृष्टिकोण से अहितकर है. हां, कालांतर में चर्चा की जानी चाहिए और तब तक के लिए सार्वभौमिक संदेश यही जाना चाहिए कि देश की सुरक्षा को लेकर देश में पक्ष-विपक्ष मिलकर एक पार्टी है.
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