मुस्लिम महिलाओं का आधा धर्म और आधी नागरिकता
पिछले साल अक्टूबर में कोर्ट ने एक मामले में स्वत: विलोपन लेते हुए मुस्लिम पर्सनल लॉ से महिला विरोधी कानून को खत्म करने की बात कही थी लेकिन कुछ मुस्लिम संस्थाओं ने इसका विरोध करते हुए कहा था कि पर्सनल लॉ सुप्रीम कोर्ट के अधिकार क्षेत्र से बाहर है.
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मुस्लिम पर्सनल लॉ अगर पुरुष को चार शादी करने की इजाजत देता है तो पहला सीधा सवाल उठता है कि आखिर महिलाओं को ऐसी छूट क्यों नहीं दी गई है. क्या मुस्लिम पर्सनल लॉ को इस्लाम से पुरुष और महिला में ऐसा भेद करने के लिए कोई सर्टिफिकट मिला हुआ है. अब इसी सवाल का जवाब केरल हाईकोर्ट के न्यायाधीश बी कमाल पाशा भी जानना चाहते हैं.
न्यायाधीश बी कमाल पाशा का दावा है कि मुस्लिम पर्सनल लॉ महिलाओं के हक के प्रति बेहद उदासीन है जिसे समय के साथ बदलने की जरूरत है. इस उदासीनता के लिए न्यायाधीश पाशा ने मुस्लिम धर्म गुरुओं और मौलवियों को जिम्मेदार ठहराते हुए अपील की है कि उन्हें अपने भीतर झांकने की जरूरत है. किसी संवेदनशील मामलों पर कोई फैसला करने से पहले ऐसे धर्म गुरुओं को यह सोचना होगा कि क्या वह ऐसा एक तरफा फैसला सुनाने की योग्यता रखते हैं. इसके साथ ही मुसलमानों को भी अपने धर्म गुरुओं की योग्यता परखने की जरूरत है क्योंकि आज के आधुनिक युग में मुस्लिम महिलाओं को बराबरी के वो मूल अधिकार भी मुहैया नहीं है जो धर्म ग्रंथ कुरान में लिखे हैं.
अभी पिछले हफ्ते एक मुस्लिम महिला शायरा बानो ने सुप्रीम कोर्ट से गुहार लगाई कि मुस्लिम पर्सनल लॉ में तीन बार तलाक कहने पर तलाक की प्रक्रिया को पूरा मान लेने की परंपरा को खत्म किया जाए. शायरा बानो ने कोर्ट से यह भी गुहार लगाई है कि निकाह हलाला (पति से तलाक के बाद उससे दोबारा शादी की प्रथा) पर भी प्रतिबंध लगाया जाए. साथ ही पुरुषों द्वारा एक से ज्यादा शादियों पर भी रोक लगाई जाए. इन सभी मामलों में शायरा बानो ने भारतीय नागरिक के लिए संविधान की धारा 14,15, 21 और 25 के तहत अपने मूल अधिकारों के हनन की बात कही है. गौरतलब है कि संविधान की ये सभी धाराएं देश के सभी नागरिकों को एक समान अधिकार देती हैं और अपने इन अधिकारों की रक्षा के लिए वह सीधे देश की सर्वोच्च अदालत यानी सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटा सकते हैं. शायरा बानो की अपील को संज्ञान में लेते हुए सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश एआर दवे और एके गोयल की संयुक्त बेंच ने केन्द्र सरकार के महिला और बाल कल्याण मंत्रालय, कानून मंत्रालय और अल्पसंख्यक मंत्रालय के साथ-साथ राष्ट्रिय महिला आयोग से मामले पर प्रतिक्रिया मांगी है.
यह कोई पहली बार नहीं है कि सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले को उठाया है. पिछले साल अक्टूबर में कोर्ट ने एक मामले में स्वत: विलोपन लेते हुए मुस्लिम पर्सनल लॉ से महिला विरोधी कानून को खत्म करने की बात कही थी लेकिन कुछ मुस्लिम संस्थाओं ने इसका विरोध करते हुए कहा था कि पर्सनल लॉ सुप्रीम कोर्ट के अधिकार क्षेत्र से बाहर है.
अब सवाल यह है कि क्या देश का संविधान अपने सभी नागरिकों को जो मूल अधिकार मुहैया करा रहा है उसका फायदा मुस्लिम महिलाओं को नहीं दिया जा सकता? क्या महज महिलाओं के प्रति किसी धर्म विशेष की उदासीनता के चलते उन महिलाओं को नागरिकता का पूर्ण दर्जा न देना उचित है? वह भी जब मुस्लिम महिलाएं खुद यह दावा कर रही हैं कि उनके धर्म ग्रंथ कुरान में किसी तरह के भादभाव का प्रावधान नहीं है. लिहाजा, ऐसे में केरल के न्यायाधीश बी कमाल पाशा के सवाल का जवाब उन सभी धर्म-गुरुओं और मौलवियों को देने की जरूरत है कि क्या इस्लाम मुस्लिम महिलाओं को चार शौहर रखने से मना करता है?
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