पाकिस्तान में काम नहीं आएगी म्यांमार वाली रणनीति
सेना ने म्यांमार में ऑपरेशन को कामयाबी के साथ अंजाम दिया. लेकिन यह विश्लेषण बड़े ऑपरेशन के संदर्भ के बजाय आतंकवाद के प्रति भारत के दृष्टिकोण और इसके निहितार्थ पर केंद्रित है.
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4 जून, 2015 को भारतीय सेना के एक काफिले में शामिल 18 सैनिकों को नेशनल सोशलिस्ट काउंसिल ऑफ नगालैंड, NSCN (K) के आतंकियों ने घात लगाकर मौत की नींद सुला दिया. उस हमले के एक सप्ताह से भी कम वक्त में सेना के विशेष बल ने वायु सेना और असम राइफल्स के सहयोग से उन आतंकियों के ठिकानों को तबाह करने के लिए एक मिशन को अंजाम दिया. जिन्होंने मणिपुर में न केवल घात लगाकार हमला किया था बल्कि वे इसी तरह की दूसरी कार्रवाई को अंजाम देने की तैयारी कर रहे थे. इसके बाद वास्तविक ऑपरेशन के विवरण को अच्छी तरह से सबके सामने पेश किया गया. यह विश्लेषण बड़े ऑपरेशन के संदर्भ के बजाय आतंकवाद के प्रति भारत के दृष्टिकोण और इसके निहितार्थ पर केंद्रित है.
बेशक, यह कार्रवाई स्पष्ट रूप से एक बदलाव या आतंकवादरोधी ऑपरेशन के संचालन में एक "सैन्य परिवर्तन" को दिखाती है. सैन्य नेतृत्व इस सार्वजनिक सफलता से उत्साह बढ़ गया है. खासकर उस रणनीति के प्रति जिसमें दुश्मन के हमला करने से पहले उसे मार गिराने की बात हो. हालांकि, यह सिद्धांत किसी खास विषय पर घोषित नीति या मान्यताओं से जुड़ा हुआ है. इसीलिए किसी एक ऑपरेशन की सफलता से यह साबित नहीं करती कि वह रणनीति हर स्तर पर उतनी ही कारगर है. हालांकि, यह भारत की सीमा के पार काम करने की एक रणनीति भी है. आसान शब्दों में कहें तो अतीत की तुलना में यह कदम आतंकवाद के लिए एक बोल्ड और मजबूत नजरिए को दिखाता है.
भारत की सीमा से परे या लाइन ऑफ कंट्रोल (एलओसी) के पार किया गया यह कोई पहला आपरेशन नहीं है. 1995 में म्यांमार बार्डर पर ऑपरेशन गोल्डन बर्ड और 2003 में भूटान के अंदर ऑपरेशन आल क्लीयर भारतीय सेना के नेतृत्व में किए गए प्रमुख आपरेशनों में से हैं. हालांकि, इनमें से कोई भी हाल ही में किए गए ऑपरेशन की तरह प्रतिक्रिया की प्रकृति को नहीं दिखाता.
इस ऑपरेशन की संकल्पना, योजना और निष्पादन के आधार पर कुछ सवाल उभर रहे हैं. ये सवाल देश में निर्णय लेने के उच्च राजनीतिक अधिकार, राष्ट्रीय सुरक्षा एजेंसियों की क्षमता के उच्चतम स्तर और सेना समेत ऐसे दृष्टिकोण से संबंधित हैं. अतीत में सैन्य बदलाव या बदलाव का विश्लेषण महत्वपूर्ण चीजों की तरफ इशारा करता है, अगर सफल बदलाव इस तरह के मामलों में एक रास्ता बना लेता है.
पहला, एक बड़े बदलाव के पहले एक साफ नजर चाहिए. ऑपरेशन के समय पता चलता है कि इसका सफल संचालन घात लगाकर हुए हमले की प्रतिक्रिया नहीं था. हो सकता है कि यह अच्छी तरह से प्रतिक्रिया के रूप में शुरू किया गया हो. इस तरह के जवाबी हमले के हालात पर सरकार के साफ दृष्टिकोण की जरूरत है. ऐसे मिशन का तरीका और खात्मा एक रणनीति को दर्शाता है. और यह कार्रवाई के भविष्य के सबक का एक संकेत है.
दूसरा, ऐसी समग्र रणनीति के लिए राजनीतिक समर्थन जरूरी है. जब उच्च राजनीतिज्ञों का समर्थन हासिल हो तो राज्य की एजेंसियां किसी भी बड़े जोखिम वाले मिशन को अंजाम दे सकती हैं. यहां पाकिस्तान जैसे राज्यों को शामिल नहीं किया जा सकता. ऑपरेशन जीरोनीमो के दौरान राष्ट्रपति ओबामा की एकाग्रता और ऑपरेशन में शामिल सुरक्षा अधिकारियों के साथ उनके तालमेल से इस की मिसाल मिलती है. वरना ओसामा बिन लादेन को पकड़ना आसान काम नहीं था. ऐसा राजनीतिक सहयोग ही भारत के संदर्भ में बड़े जोखिम वाले मिशन के लिए चाहिए. 1980 में ईरान से अपने बंधकों को आजाद कराने के लिए अमेरिका ने ऑपरेशन ईगल क्लॉ लांच किया. यह ऑपरेशन ठीक से लांच ही नहीं पाया. अमेरिका के विशेष बलों की इस नाकामी ने तत्कालीन राष्ट्रपति जिमी कार्टर को झटका दिया था. और राष्ट्रपति चुनाव में रिपब्लिकन उम्मीदवार रोनाल्ड रीगन की जीत सुनिश्चित की. इसलिए इस तरह की पहल के लिए राजनीतिक समर्थन महत्वपूर्ण है.
तीसरा, ईगल क्लॉ के उदाहरण से पता चलता है कि मात्र राजनीतिक मंजूरी, बजट और नेतृत्व की क्षमता किसी ऑपरेशन की सफलता सुनिश्चित करने के लिए पर्याप्त नहीं होती. हकीकत में इसके लिए कठिन अवधारणाओं को बदलने वाले दूरदर्शी और प्रतिबद्ध सैन्य नेतृत्व की जरूरत होती है. किसी अभियान का नेतृत्व करने वाली सेना के मामले में वायु सेना, खुफिया विभाग, विदेश मंत्रालय, गृह मंत्रालय, असम राइफल्स, सीमा सुरक्षा बलों और साथी देशों का सहयोग महत्वपूर्ण साबित होता है. यह साफ तौर पर चुनौती है और वक्त के साथ क्षमताओं का निर्माण करने की जटिलता भी.
चौथा, बिना अपेक्षित क्षमता, सहयोग और संरचना के न तो सेना और न ही राजनीतिक नेतृत्व सफलता सुनिश्चित कर सकते हैं. इस तरह के सैन्य ऑपरेशन में कई स्तरों पर जटिल और विस्तृत योजना शामिल होती है. यह भी एजेंसियों की बड़ी संख्या के साथ समन्वय पर जोर देता है. इस तरह का कोई भी आपरेशन वक्त की पाबंदी, आतंकवादियों की संख्या, उनकी पोजिशन और बचाव की मुद्रा की खुफिया जानकारी के बिना नहीं किया जा सकता. ऐसे ही म्यांमार सरकार के मामले में भी मेजबान देश के सहयोग के बिना इसे कर पाना मुश्किल है. उपलब्ध मीडिया जानकारी के आधार पर पता चला कि सेना ने एक साथ बड़ी भौगोलिक दूरी पर दो अलग-अलग स्थानों पर हमला किया था. इसके लिए बड़े पैमाने पर तालमेल जरूरी था. ऑपरेशन में वायु सेना के शामिल होने के बाद रिहर्सल और योजना जरूरी हो जाती है. राजनयिक स्तर पर भी कुछ शर्तों को शामिल कर सकते हैं. यह मिशन की सफलता के लिए भी महत्वपूर्ण हो जाता है. अंत में, रक्षा मंत्रालय को समन्वय प्रदान करना चाहिए, यह राजनीतिक निर्देशों के साथ सैन्य योजनाओं का सहज एकीकरण सुनिश्चित करता है. यह सशस्त्र बलों के भीतर न केवल संयुक्त अभियान के महत्व को रेखांकित करता है बल्कि इस तरह के जटिल ऑपरेशनों में महत्वपूर्ण हितधारकों को भी दर्शाता है.
पांचवीं और आखरी वजह, नई रणनीति या सेना परिवर्तन की दीक्षा पर अमल करने की जरूरत को रेखांकित करती है. इस तरह के बड़े बदलाव व्यक्तित्व और इतिहास के साथ जुड़े जाते हैं. हालांकि, वास्तविक बदलाव लाने के लिए उपरोक्त बातों का सफलतापूर्वक पालन करना चाहिए. भारतीय संदर्भ में आतंकवाद के लिए इसे आधार बनाना हो तो साफ एग्जीक्यूशन रणनीति की आवश्यकता है. एजेंसियों की क्षमताओं को बढ़ाने के लिए कदम उठाने चाहिए, यह सीमित संख्या के बावजूद भी ज्यादा अच्छे परिणाम दे सकता है.
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