'कांग्रेसियों' को चीन-Pok पर सवाल उठाने का नैतिक हक नहीं, सवालों में पाकिस्तानी दुर्गंध!
भारत-चीन विवाद में विपक्षी सवाल दुर्भाग्य से पाकिस्तान और चीनी प्रतिक्रियाओं से भी गए गुजरे हैं. कम से कम चीन के कम्युनिस्ट पार्टी के साथ एमओयू साइन करने वालों और डोकलाम विवाद में अंधेरे में मुंह छिपाकर चीनी दूतावास जाने वालों को तो सवाल करने से शर्म करना चाहिए.
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अरुणाचल प्रदेश के इलाकों में घुसपैठ के दुस्साहस पर भारतीय जवानों ने जिस तरह PLA को उसी की लट्ठबाज भाषा में जवाब दिया, देश का जोश हाई है उससे. लेकिन कुछ लोगों के बयानों से लग रहा कि लट्ठ भले चीन की पीठ पर बरसे हों, मगर इधर कई लोगों की देह जगह-जगह सूज गई है. दर्द हो रहा है. कुछ बयानों को सुनकर तो लग रहा कि कोई पाकिस्तानी या चीनी बोल रहा है? तमाम 'अभारतीय' बयानवीरों से बेहतर तो पेंटागन साबित हुआ. हालिया ग्लोबल उठापटक में उम्मीद नहीं थी. जबकि अमेरिका की भारत के प्रति कोई जिम्मेदारी नहीं. यूक्रेन पर जिम्मेवारी के बावजूद उसकी जो भूमिका रही, हमें आंख मूंदकर किसी पर भी यकीन नहीं करना चाहिए. झूठ ही सही, उसका कोई लालच भी हो सकता है, फिर भी जिस तरह बिना देर किए उन्होंने अपना कंधा आगे किया वह भारतीय विपक्ष के लिए असल में आइना है. भारतीय सैनिकों के लट्ठ ने जवाब दे दिया है. बावजूद कुछ लोगों को अभी ढेरों प्रमाण पाने की चुल है. भले ही वे तमाम जानकारियां पाने के अयोग्य हों. हर लिहाज से.
सत्ता के लिए अकुलाई इंदिरा कांग्रेस और उसके सहयोगियों के बयान घिनौने हैं. बयान में सवाल हैं. और वे विपक्ष के अधिकार से इसे जानना चाहते हैं. दुर्भाग्य से सवालों के तरीके और टाइमिंग हमेशा की तरह मनोबल गिराने वाले हैं. अराजकता और डर का माहौल बनाने वाले हैं. सेना के संघर्ष और सीमा पर रोज कतरा-कतरा बह रहे गर्म गाढ़े खून पर ठीक वैसे ही सवाल आ रहे हैं जैसे एयरस्ट्राइक पर आए थे. समझ नहीं आता कि भारतीय विपक्ष की जवाबदेही भारत के प्रति है या फिर चीन और पाकिस्तान से उनकी कोई ट्रीटी है. दुर्भाग्य से तमाम विपक्षी नेताओं की जुबान बिलावल भुट्टो से रत्ती भर भी अलग नहीं. इससे घिनौना और शर्मनाक तो कुछ हो ही नहीं सकता.
जिनपिंग के साथ राहुल, सोनिया गांधी और मनमोहन सिंह. फोटो- AFP
इंदिरा कांग्रेस और तमाम सिंडिकेटों को तो हक़ ही नहीं है, सवाल करने का
क्या चीन और पाकिस्तान पर इंदिरा कांग्रेस के नेताओं और उनके नाना प्रकार के राजनीतिक सहयोगियों को कोई हक़ है? वह पार्टी तो कब का कुछ जानने का अधिकार खो चुकी है- जिसके एक पूर्व पीएम अपनी गर्लफ्रेंड से भारत चीन युद्ध की संवेदनशील बातें चिट्ठियों में साझा करते थे. बेशक मुझे जाहिल, गंवई, संघी और जिस भी विशेषण से सम्मानित करना चाहते हैं, कर सकते हैं. लेकिन मुझे लगता है कि उस पार्टी को सवाल करने का कोई हक़ नहीं है. और ऐसा भी नहीं है कि मैं उन प्रधानमंत्री जी का नाम नहीं ले रहा तो देश नहीं जानता है. बखूबी जानता है और बच्चा-बच्चा जानता है उनका नाम.
आज की तारीख में उसी इंदिरा कांग्रेस के तमाम सहयोगी भला कैसे सवाल पूछ सकते हैं जो नेपाल के रास्ते गोरखपुर पहुंचने वाले जख्मी चीनी सैनिकों के लिए बोतलों में खून लेकर इंतज़ार में बैठे थे. तथ्य हैं- खून डोनेशन कैम्पों के जरिए चीन की मदद के लिए जुटाए गए थे. मुझे इंदिरा कांग्रेस के उन सहयोगियों का भी नाम बताने की जरूरत नहीं है. समूचा देश उन्हें भी जानता है. उनके चेहरे कब के बेनकाब हो चुके हैं.
सुप्रीम कोर्ट की पीठ तक हैरान रह गया था इंदिरा कांग्रेस के समझौते से
चीन पर कुछ जानने का हक हासिल करने से पहले इंदिरा कांग्रेस के नेताओं को चाहिए कि वह पहले यह पता लगाएं कि 14 साल पहले चीनी दौरे पर सोनिया गांधी और राहुल गांधी की पार्टी चीनी कम्युनिस्ट पार्टी के साथ कौन सी साझेदारी करने गई थी बीजिंग में? आखिर उस एमओयू में क्या था? उस वक्त तो यूपीए 1 की सरकार थी और यह अद्भुत मामला है कि जिस पार्टी की सरकार देश पर राज कर रही है उसे पता नहीं कौन सी राजनीतिक जरूरत के लिए देश की बजाए पार्टी स्तर पर समझौते करने पड़े थे. ऐसा देश जिसके साथ हमारे रिश्ते ना जाने कितने घावों से भरे हैं. यह बेहतर मौका है तमाम चीजों को साफ़ करने का.
लोगों को पूछना चाहिए कि आखिर जब आपकी सरकार थी ऐसे कौन से समझौते थे, जरूरी जानकारियों को साझा करने के लिहाज से कि आपको दुश्मन देश की पार्टी के साथ एमओयू करना पड़ा. सुप्रीम कोर्ट ने इसे मसले पर एक याचिका को हाईकोर्ट का विषय बताते हुए स्वीकार तो नहीं किया मगर हैरानी भरी टिप्पणी जरूर की थी. सुप्रीम कोर्ट ने कहा था- "हम पाते हैं कि इसमें ऐसा कुछ है, जो पहले सुना नहीं गया. और वह न्याय विरुद्ध भी है. आप कह रहे हैं चीन ने एक राजनीतिक दल से समझौता किया है. सरकार से नहीं. भला एक पार्टी चीन के साथ कैसे समझौता कर सकती है."
डोकलाम में सेना जूझ रही थी और राहुल अंधेरे में मुंह छिपाकर चीनी दूतावास मीटिंग करने पहुंचे
क्या साल 2017 में सिक्किम में डोकलाम विवाद के लिए राहुल गांधी को इसी समझौते के तहत रात के अंधेरे में मुंह छिपाकर चीनी दूतावास जाना पड़ा था? इंदिरा कांग्रेस के नेताओं/कार्यकर्ताओं को यह भी बताना चाहिए कि रात के अंधेरे में चीनी दूतावास में राहुल जी कौन सी मीटिंग करने गए थे तब? चीन को लेकर इंदिरा कांग्रेस और नेहरू-गांधी परिवार ऐतिहासिक तथ्यों से बच नहीं सकता. चूंकि दोनों सवाल बहुत पुराने और इतिहास की अंधी सुरंग का हिस्सा नहीं हैं और संबंधित भारतीय राजनीति में फ्रंट सीट पर आने के लिए बुरी तरह से आतुर हैं तो पहले उन्हें इन जरूरी सवालों को भी एड्रेस करना चाहिए. 2017 में भारत और भूटान दोनों चीन के निशाने पर थे.
2017 में चीनी दूतावास में राहुल की मीटिंग अद्भुत है. बहुत कम लोगों को पता है कि भूटान की विदेश नीति और सुरक्षा मामले भारत की जवाबदारी हैं. लेकिन भूटान हमारा उपनिवेश नहीं है. हम उसे स्वतंत्र दर्जे से ही देखते हैं. चीन की भूटान पर भी लंबे वक्त से गिद्ध नजर है. भारतीय सैनिक डोकलाम में भी अड़ गए थे और लंबे वक्त तक विवाद चला. जिस वक्त समूचा देश परेशान था, चीनी दूतावास में राहुल मीटिंग करने गए थे. पता नहीं कौन सी जानकारी साझा करने गए थे वे. हो सकता है कि यह कहने गए हों- सर जी मोदी सिरफिरा पीएम है. लेकिन खुदा के लिए हमारा तो लिहाज करिए, हमारे एमओयू का लिहाज करिए और भारत को छोड़ दीजिए. हम आपको आंख दिखाने लायक नहीं हैं हुजूर.
शायद यही कहने गए होंगे.
बावजूद कि तब कांग्रेस ने सवालों को सरासर खारिज किया था. वैसे ही जैसे अनेकों सवालों को खारिज करते रहे हैं. लेकिन सवाल तो सवाल हैं. अब भला एक देश जिसके साथ संवेदनशील रिश्तों का भरा-पूरा खूनी इतिहास है, उसी देश के दूतावास में सरकार का एक सबसे ताकतवर नेता मिलने जाएगा- वह भी रात के अंधेरे में, मुंह छिपाकर तो ऐसे सवाल तो जिंदा रहेंगे और पीछा करते रहेंगे.
इंदिरा कांग्रेस ने सवाल खारिज किया, ग्लोबल टाइम्स ने मुहर लगाई
कांग्रेस ने दूतावास में हुई रहस्यमय मीटिंग को पहले एक मनगढ़ंत खबर और नेहरू-गांधी परिवार को बदनाम करने की साजिश करार दिया. रणदीप सुरजेवाला ने भारतीय मीडिया की खबरों को अफवाह बताते हुए एक पर एक कई ट्वीट किए थे उस वक्त. लेकिन जब चीनी दूतावास ने खुद पुष्ट कर दिया- हां बैठक हुई. चीनी सरकार के मुखपत्र ग्लोबल टाइम्स ने भी कन्फर्म किया- जी राहुल बाबा मिलने आए थे हमसे. जो करना है कर लीजिए. तब रणदीप सुरजेवाला ने कांग्रेस की तरफ से सफाई पेश की. उन्होंने कहा, वे ताजा हालात से चिंतित थे. भूटान के राजदूत और शिवशंकर मेनन से भी मिले थे.
तो कांग्रेस को पहले बताना चाहिए कि 14 साल पहले कांग्रेस और चीन की कम्युनिस्ट पार्टी में आखिर कैसा समझौता हुआ था? आज तक लोगों को सच का पता नहीं चल पाया है. देश को पूछना चाहिए कि क्या फिर चीनी भाइयों के सीक्रेट ब्लड डोनेशन कैम्प तो नहीं चलाए जा रहे. पूछना चाहिए कि रात के अंधेरे में चीनी दूतावास में विपक्ष के सबसे प्रभावशाली शख्स के जाने का क्या मतलब था. और आखिर क्या बात थी जो इंदिरा कांग्रेस को झूठ तक बोलना पड़ा. मीटिंग को छिपाना पड़ा. दुर्भाग्य से कांग्रेस के झूठ का पर्दाफाश किसी 'गोदी मीडिया' ने नहीं बल्कि चीन के सरकारी भोंपू 'ग्लोबल टाइम्स' ने ही किया था.
भारत कैसे टुकड़ा टुकड़ा रिसता रहा है चीन और पाकिस्तान की तरफ, किसका राज था?
पाकिस्तान और चीन की सीमाओं पर 75 साल में क्या होता रहा है, सारे तथ्य हैं? कश्मीर के छोटे-छोटे टुकड़े भारत विभाजन के बाद तक जाते रहे हैं, 1990 में तब तक जब तक कि वहां आतंकियों का नंगा नाच नहीं शुरू हो गया था. घाटी के तमाम इलाके 90 में भी आतंकियों की वजह से पीओके में गए. ऐतिहासिक तथ्य है. लोगों को भनक तक नहीं लगा कि वहां हुआ क्या. जन्मभूमि पेशावर के एकतरफा मोह में फंसे रणबीर कपूर जो पाकिस्तानी कलाकारों के अभी भी साथ काम करना चाहते हैं उनके जैसे बच्चे और शाहरुख खान के लिए पठान के निर्माता आदित्य चोपड़ा नहीं समझ पाएंगे. आदित्य के डैडी समझते हैं जिन्होंने बंटवारे के बाद बॉलीवुड के जरिए दिल खोलकर देश सेवा की. खैर.
चीन ने तवांग में जो कोशिश की हैं ऐसी अनंत कोशिशें 1962 के युद्ध से अबतक जारी हैं और काफी जमीन जा चुकी है. वहां, जहां असल में जमीन के मालिकाने का निर्धारण ही नहीं हुआ है. अंदाजा नहीं लगा सकते अब तक कितनी जमीन गई होगी. चीन के साथ भारत की सीमा का मामला असल में जिसकी लाठी उसकी भैंस वाला है. ऐतिहासिक तथ्य है कि अभी पूर्व पीएम मनमोहन सिंह तक चीनी अतिक्रमण पर सरकारी नेता कहते पाए जाते हैं कि उन्होंने अतिक्रमण नहीं किया. बल्कि वे तो अपनी सीमा में ही काम कर रहे थे.
हमारे लिए अब चीन की तरफ से प्रतिक्रियाएं आना अच्छी बात
झूठ था सब. वे समय-समय पर लगातार अपनी सीमा लगातार आगे खिसकाते रहे हैं. चूंकि कोई सीमा थी नहीं- चीन के क्षेत्र का अतिक्रमण करने के लिए साहस चाहिए और हमारी सेना में साहस तो था पर सरकारों ने किन्हीं दबावों से हिम्मत नहीं दिखाई. सरकारों ने यह भी झूठ नहीं बोला- कि हम रोकने में सक्षम थे. वो हमारी सीमा में आए थे हमने भगा दिया. कम से कम झूठ ही कह दिया होता. पेंटागन ने इंदिरा कांग्रेस की तरह कोई सवाल नहीं उठाए. सीधे कह दिया. चीन मनमानी कर रहा है वहां. गलवान में आप भारत के जोश पर सवाल कर रहे थे. विदेशी मीडिया ने चीनी हताहतों के आंकड़े दे दिए थे तब भी. यह भी अच्छा है कि अब चीन कहने लगा है कि भारत अतिक्रमण कर रहा है. वह भारत से अपने सैनिकों को नियंत्रित करने की सलाह दे रहा है.
राजीव गांधी फाउंडेशन के लिए चीन से चंदा लेने के बावजूद ईश्वर जाने, इंदिरा कांग्रेस को सवाल पूछने का साहस कहां से मिल जाता है? यह भी ऐतिहासिक तथ्य हैं कि यूपीए के एक स्वर्गीय रक्षामंत्री देश की सामरिक जरूरत के लिए चीन से सटे इलाकों में सड़कों के निर्माण के पक्ष में नहीं थे. उन्होंने कहा था हम सड़कें बनाएंगे तो चीन युद्ध के दौरान उनका इस्तेमाल कर सकता है. उन्होंने लगभग यही कहा था. एक तरह से वह कह रहे थे कि चीन हमसे भारी है. हमारे ही संसाधनों का सामरिक इस्तेमाल कर सकता है. यात्रा के जरिए भारत को जोड़ने वाली पार्टी की यह कैसी सरकार थी भाई. कोई बता सकता है?
अभी चीनी सीमा पर जो शुरू हुआ है खत्म होने का नाम नहीं ले रहा. चीन के लिए बवासीर वही सड़क है. जो अब अरुणाचल के तवांग समेत समूचे चीनी सीमा तक पहुंच चुका है या फिर पहुंचने वाला है. लेह-लद्दाख में भी. मोदी सरकार में युद्ध स्तर पर कार्य हो रहा है. यह वही सड़क है जिसे योगेंद्र यादव भाई किसी राहुल की यात्रा में गैरजरूरी बताते आ रहे हैं. उन सड़कों को जो अरब और चीन दोनों की दलाली खत्म करने वाले हैं. चीन को आत्मनिर्भरता की दिशा में आगे बढ़ने की कोशिश में लगा भारत पिछले कुछ सालों से ज्यादा ही खटक रहा है. पर सेना चीन की आँखों में बढ़िया आइड्रॉप डालने के लिए मुस्तैद है. बातचीत उसी भाषा में बेहतर है जिसे संबंधित समझ सके. चीन लट्ठ की भाषा समझता है. उसका दुर्भाग्य है कि भारत पैदाइशी लट्ठबाज है. काश कि यह पहले हुआ रहता तो हम बेमतलब के सवालों पर बात नहीं कर रहे होते.
अच्छा है चीन संसद शुरू होने से पहले भारतीय विपक्ष के लिए राजनीति के मौके बिना भूल दे देता है. पर इससे कुर्सी वापस तो मिलने से रही बल्कि और दूर ही जा रही है. इंदिरा कांग्रेस के रुख पर ऐसा कुछ नया नहीं कि ताज्जुब किया जाए. ताज्जुब की बात तो इंदिरा कांग्रेस की हुआं-हुआं में लोहिया और और जेपी के चेलों का सुर में सुर मिलाना है.
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