इनसाइड स्टोरी: कोविंद क्यों बनाए गए राष्ट्रपति पद के एनडीए उम्मीदवार
राम नाथ कोविंद का नाम भले अंजाना लगे, लेकिन बीजेपी के लिए वे दूर की कौड़ी हैं. कोविंद भले राष्ट्रपति बन जाएं, लेकिन उनका नाम उन्हें बीजेपी को दलित वोट दिलाने में मदद करेगा.
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बिहार के राज्यपाल रामनाथ कोविंद सत्ताधारी गठबंधन एनडीए के उम्मीदवार घोषित कर दिए गए हैं. आंकड़ों के समीकरणों से देखें तो उनका देश के सर्वोच्च संवैधानिक पद के लिए चुना जाना तय है. अपने फैसले के बारे में मोदी ने ख़ुद कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी, पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार को फोन पर बताया. लेकिन, असल सवाल यह है कि आखिर मोदी ने कोविंद के नाम पर मुहर लगाकर क्या मैसेज दिया है. राष्ट्रपति चुनने के अलावा क्या कोई उद्देश्य है ?आइए, इस विश्लेषण से समझते हैं :
1. दलित चुनौती को साधना:बीजेपी की एक मजबूरी है. इस पार्टी के पास दलितों के लिए कोई व्यापक प्लान कभी नहीं रहा. संघ से लेकर बीजेपी के शीर्ष पदों पर सवर्ण ही आसीन रहे. 2014 में दशहरे के मौके पर संघ प्रमुख मोहन भागवत ने सीधे-सीधे दलितों को एड्रेस किया था. मार्च 2015 में नागपुर में प्रतिनिधि सभा की बैठक में एक ठोस रणनीति तैयार की गई. तीन साल में देश से छूआछूत खत्म करने की. संघ ने नारा दिया- 'एक कुआं, एक मंदिर और एक श्मशान'.
इस मिशन पर कुछ हो पाता, उससे पहले ही रोहित वेमुला, फिर उना जैसे बवाल हो गए. बीच-बीच में संघ नेताओं के आरक्षण विरोधी बयान सुर्खी बने रहे. लेकिन, इन सब घटनाक्रमों के बावजूद बीजेपी को उत्तर प्रदेश में भारी बहुमत से जीत मिली, जिसमें दलितों का व्यापक सपोर्ट शामिल था. मायावती के कमजोर होते जनाधार को बीजेपी पूरी तरह अपने पक्ष में मोड़ लेना चाहती है. और कोविंद का नाम ऐसे में संघ के सामाजिक समरसता वाले एजेंडे पर एकदम फिट भी बैठता है.
हाईकोर्ट में वकालत कर चुके कोविंद हर पैमाने पर मोदी की कसौटी पर खरे उतरते हैं.
2. वरिष्ठों की तिकड़ी दरकिनार:राष्ट्रपति पद के लिए लालकृष्ण आडवाणी को सबसे आगे रखकर देखा जा रहा था. राजनीतिक विश्लेषक उनके और मोदी के रिश्तों के बारे में कुछ भी कहें, लेकिन आम धारणा यही थी कि पार्टी अपने इस वरिष्ठ नेता को औपचारिक रिटायरमेंट देने से पहले देश के सबसे बड़े पद पर जरूर बैठाएगी. लेकिन, इस बात पर न तो बीजेपी सहमत हुई और न ही संघ.
दूसरे दावेदार मुरली मनोहर जोशी थे, जो यूपी से भी आते हैं और संघ की पसंद भी थे. लेकिन उनके नाम पर बीजेपी में खास सहमति नहीं बन रही थी.
तीसरा बड़ा नाम सुषमा स्वराज का था. मनोहर पर्रीकर के रक्षा मंत्रालय से जाने के बाद उनका स्थाई विकल्प नहीं मिल पाया है, ऐसे में विदेश मंत्रालय जैसे संवेदनशील मंत्रालय को सुषमा स्वराज से महरूम करके पार्टी नया सिरदर्द नहीं लेना चाहती थी. ऐसे में सुषमा स्वराज के नाम पर कोई विचार ही नहीं किया गया.
बीजेपी अनुसूचित जाति मोर्चा के राष्ट्रीय अध्यक्ष रह चुके कोविंद का संगठन से तालमेल भी अच्छा ही है.
3. थावरचंद गेहलोत कुछ यूं नकारे गएबीजेपी के वरिष्ठ दलित नेता थावरचंद गेहलोत का नाम काफी समय से बतौर राष्ट्रपति पद के दावेदारों में शामिल था. लेकिन, संसदीय दल के सदस्य के बतौर एक विश्वसनीय और भरोसेमंद पारी खेल चुके गेहलोत के लिए भी मोदी के पास कोई विकल्प नहीं था. गेहलोत की दावेदारी को कमजोर बनाने वाली यह भी रही कि वे यूपी से नहीं हैं.
4. कोविंद का नाम कैसे आया
राम नाथ कोविंद का बीजेपी से रिश्ता 26 साल पुराना ही है. दिल्ली में वकालत करने वाले कोविंद भाजपा संगठन में उत्तर प्रदेश से केंद्रीय स्तर तक कई अहम पदों को संभाल चुके हैं. लेकिन, उनकी राजनीतिक स्थिति का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि 2014 के लोकसभा चुनाव में तमाम कोशिशों के बावजूद उन्हें यूपी के जालौन से टिकट नहीं दिया गया. लेकिन, कोविंद की किस्मत में कुछ और ही लिखा था. सूत्रों के अनुसार बीजेपी में हाशिए पर चल रहे कोविंद उत्तर प्रदेश बीजेपी महासचिव सुनील बंसल से कुछ दायित्व मांगने गए. उसी दौरान मोदी ने बिहार राज्यपाल पद के लिए यूपी से किसी दलित नेता का नाम सुझाने को कहा. संयोग से कोविंद का नाम चर्चा में था, और यही नाम दिल्ली पहुंच गया. और अब कोविंद बिहार के राज्यपाल हैं.
5. मीडिया और मोदी का छत्तीस का आंकड़ा
तीन साल के मोदी शासन में यह बात तो अनुभवों के आधार पर दावे के साथ कही जा सकती है कि बीजेपी से जुड़ी किसी नियुक्ति से पहले यदि दावेदार का नाम मीडिया में उछल गया तो उसका उस पद तक पहुंचना मोदी नामुमकिन कर देते हैं. मोदी यह दिखा देना चाहते हैं कि मीडिया के जरिए कोई लॉबिंग उन्हें प्रभावित नहीं कर सकती. कोविंद की मीडिया से दूरी ही उनके लिए ताकत बन गई.
निष्कर्ष यह है कि उत्तर प्रदेश चुनाव जीतने के बाद से उत्साहित भाजपा देश के इस सबसे बड़े सूबे पर अपनी पकड़ ढीली नहीं करना चाहती है. यह पहली बार होगा जब देश का प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति दोनों उत्तर प्रदेश से ही होंगे. मोदी का सीधा-सीधा संदेश है कि उन्होंने यूपी के एक दलित नेता को देश के सर्वोच्च संवैधानिक पद के लिए नामित किया है. उसी यूपी से जहां के लोगों ने उन्हें लोकसभा चुनाव में 80 में से 71 और विधानसभा चुनाव में 403 में से 325 सीटें सौंपी हैं. इन सबके बावजूद बीजेपी को दलित-विरोधी बताने वालों के लिए कोविंद के रूप में जवाब काफी होगा न !
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