UP election 2022: क्या मोदी के नेतृत्व में भाजपा का हिंदुत्व 'सवर्ण वर्चस्व' से मुक्त होने जा रहा है?
यूपी में भाजपा पर ब्राह्मणों की अनदेखी के आरोप लग रहे हैं. जातीय आधार पर योगी के नेतृत्व पर सवाल उठ रहे हैं. जिस तरह से नरेंद्र मोदी को आगे किया गया है चुनाव में उसके पीछे क्या है.
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यूपी चुनाव इस एक अर्थ में ऐतिहासिक होने जा रहा है कि पार्टी चुनाव जीतने या हारने से कहीं ज्यादा भविष्य की हिंदुत्ववादी राजनीति के लिए करवट लेने को बेकरार दिख रही है. राजनीति में हिंदुत्व की स्थापना हो चुकी है. कांग्रेस-सपा समेत और दूसरे दलों के आतंरिक ढांचे में जितना संभव था भाजपा से मुकाबले के लिए उन्होंने 'हिंदूवाद' को स्वीकार कर लिया है. संघ चाहता भी यही था- जाहिर सी बात है कि अब यहां से आगे की उसकी योजनाएं दूसरी होनी चाहिए. हालांकि वे क्या होंगी और किस तरह होंगी इस बारे में अभी कुछ ठीक ठीक नहीं कहा जा सकता. लेकिन संघ के योजनाओं की झलक संसदीय राजनीति में भाजपा के जरिए दिखेगी जरूर. कह सकते हैं यूपी विधानसभा चुनाव के बहाने भाजपा का हिंदुत्व बदलाव के मुहाने पर खड़ा है.
अब तक हुई चीजों को गौर से देखें तो संकेत भी मिलने लगे हैं. असल में हिंदुत्ववादी राजनीति के लिए बदलाव संघ की लंबी-चौड़ी कार्ययोजना का ही हिस्सा है. उत्तर से दक्षिण और पूरब से पश्चिम तक हिंदुओं की व्यापक आबादी को धर्म की एक छत्र के नीचे लाना. संघ की योजना में सबसे बड़ा रोड़ा भाजपा समेत उसके सभी दलों के भीतर का 'स्वाभाविक सवर्ण वर्चस्ववाद' रहा. भाजपा के लिए यह काफी वक्त तक सिरदर्द बना रहा.
भाजपा ने राजनीति तो हिंदुत्व का किया, मगर सवर्णों की पार्टी के होने के ठप्पे को सालों से ढो रही है. महज इस एक ठप्पे की वजह से हिंदी पट्टी के सबसे बड़ा राज्य पूरी तरह से भाजपा के शिकंजे में नहीं आ पाया है. एक डर हमेशा बना रहता है. जाहिर सी बात है कि यह डर मुकाबले में सपा-बसपा के रूप में मौजूद दो बड़े दलों की वजह से है जिनकी राजनीति का आधार ही ओबीसी और दलित "जातीय मत" का समीकरण है. भाजपा ने एक पर एक चुनाव जीता और जाति की दीवार को भी तोड़ा बावजूद चाहकर भी सवर्णवादी बोझ की नकारात्मकता से बच नहीं पाई. मुक्त होने की दिशा में कोशिशें जारी रही हैं. और तब भाजपा क्यों नहीं करेगी जब शीर्ष पर है, उसके पास मोदी का चेहरा है और हिंदुत्व को राजनीतिक चुनौती देने से परहेज करने वाले दल हैं.
अगर भाजपा की हिंदुत्ववादी राजनीति के लिए यह चुनाव 'करवट लेने वाला' नहीं होता तो तमाम सर्वे में भाजपा की जीत के दावों के बावजूद योगी आदित्यनाथ की बजाय नरेंद्र मोदी के चेहरे को आगे नहीं बढ़ाया जाता. अमित शाह यह नहीं कहते कि अगले चुनाव में मोदी की जीत के लिए भाजपा का यूपी जीतना जरूरी है. दलबदलू स्वामी प्रसाद मौर्य के बाहर जाने से पार्टी परेशान नहीं होती और दिनेश शर्मा डिप्टी सीएम के रूप में सक्रिय नजर आते. सपा में ब्राह्मणों का जाना भाजपा को परेशान करता. चुनाव पश्चिम से पूरब की बजाए पूरब से पश्चिम की ओर जाता.
सर्वे में योगी, अखिलेश से एक बड़ा अंतर लेते हुए आगे नजर आ रहे हैं. बावजूद मोदी को आगे लाने को भाजपा की दीर्घकालिक रणनीति के तौर पर देखना चाहिए. लालकृष्ण आडवाणी के सामने नौ साल पहले जब नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार बनाया गया था- यह तभी से दिखने लगा था कि भाजपा व्यापक रूप से 'सवर्ण वर्चस्ववाद' को कमजोर करके उसकी जगह एक ज्यादा समावेशी, जोशीले और उग्र हिंदुत्ववाद की ओर बढ़ने लगी है. ऐसा हिंदुत्ववाद जिसमें गैर सवर्ण जातियों की भरमार हो.
काशी में नरेंद्र मोदी.
सात साल में मोदी ने कैसे बदली है भाजपा की सूरत
इस बदलाव के लिए मोदी उसके लिए सबसे मुफीद चेहरा थे. एक ऐसा नेता जो संघ का प्रचारक रहा है, पिछड़ी जाति से आता है और आक्रामक है. ऐसा नेता भी जिसने विकास पुरुष की बड़ी छवि बनाई. मोदी हर लिहाज से संघ के नए हिंदुत्व में फिर बैठते हैं. उदाहरण के लिए मोदी से पहले भी भाजपा के पास कल्याण सिंह, उमा भारती, गोपीनाथ मुंडे जैसे पिछड़े नेता रहे हैं, लेकिन अपील के स्तर पर अपने समुदाय तक ही सीमित थे. व्यापक हिंदू मतदाताओं को बहुत प्रभावित करने वाला चेहरा कभी नहीं दिखे. ये ऐसे नेता बिल्कुल नहीं थे जिनके जरिए भाजपा पर लगे सवर्ण ठप्पे को ख़त्म किया जा सके. और उसे पार्टी का सवर्ण बेस वोट भी शांति से स्वीकार कर ले. अतीत में कल्याण सिंह और उमा भारती ने कोशिशें तो कीं मगर इतिहास गवाह है कि उन्हें व्यक्तिगत नुकसान उठाने पड़े और वे इससे कभी भी उबर नहीं पाए.
मोदी को लेकर गैर यादव- गैर जाटव का नारा देकर संघ और भाजपा ने जो चुनावी प्रयोग किए- अब तक पूरी तरह असरदार साबित हुए हैं. बावजूद यूपी और बिहार जैसे राज्यों में स्थानीय स्तर पर अखिलेश यादव और तेजस्वी यादव के रूप में मजबूत क्षेत्रीय नेता चुनौती बने हुए हैं. क्षेत्रीय नेताओं की चुनौती संघ के हिंदुत्ववाद के लिए भी चुनौती है. मोदी के सहारे यूपी में भाजपा ने जो छवि हासिल की है- यूपी में योगी के बहाने अखिलेश उसे लगातार मुद्दा बना रहे हैं. अखिलेश अब राम मंदिर का विरोध करने की बजाय निर्माण में देरी को लेकर सवाल उठा रहे हैं. उनके सपनों में कृष्ण भगवान भी आने लगे हैं. भाजपा को इन खतरों का हमेशा अंदेशा रहा है. था. यही वजह है कि साल 2017 में जब भाजपा ने यूपी जीता तभी मोदी-शाह समेत संघ का एक मजबूत धड़ा योगी की ताजपोशी के खिलाफ था. पर योगी के बगावती तेवरों की आशंका में कोई बोल्ड फैसला नहीं लिया जा सका. योगी पहले भी तो भाजपा में रहते हुए बगावत कर ही चुके थे. अगर केशव मौर्य मुख्यमंत्री होते तो क्या अखिलेश जातीय आधार पर भाजपा को घेर सकते थे? सोचने वाली बात है इस स्थिति में अखिलेश के पास राजनीतिक विकल्प किस तरह के होते.
यूपी में हिंदुत्व के लिए भाजपा की सियासी मजबूरी और अखिलेश की दिक्कत
जाहिर सी बात है कि यूपी में बने रहने के लिए भाजपा को मजबूत ओबीसी आधार को साथ जोड़े रखने की जरूरत है. और यह तभी संभव है जब अखिलेश का आधार कमजोर हो. अखिलेश के मुकाबले में एक मजबूत ओबीसी नेतृत्व का विकल्प देना भाजपा के लिए समय की जरूरत है. कम से कम यूपी और बिहार में जहां मंडल की राजनीति का बहुत प्रभाव रहा है वहां इसके बिना शीर्ष पर बने रहना मुश्किल है. चुनाव से ठीक पहले ओबीसी राजनीति को मैसेज देने के लिए अखिलेश से मुकाबले में मोदी से बेहतर भाजपा के पास कोई चेहरा नहीं था. लेकिन मोदी की अपनी सीमाएं हैं. केशव मौर्य को लेकर हालांकि उनके कई संकेत दिलचस्प हैं. दिल्ली में उनकी मुलाकातों के बाद यूपी से उनका बड़े स्तर पर सक्रिय होना आखिर क्या कहता है. मोदी किसे ललचा रहे हैं. दूसरी ओर दूसरे 'ब्राह्मण' डिप्टी सीएम को लगभग गायब हैं. पार्टी को शायद लग रहा है कि ब्राह्मणों को साथ जोड़े रखने के लिए मोदी का चेहरा भर पर्याप्त है. उधर, अखिलेश ब्राह्मण मतों को हासिल करने के लिए आक्रामक हैं.
अखिलेश के ब्राह्मण उम्मीदवार कुछ मतों को अपने साथ ला सकते हैं लेकिन ऐसा दावा किया जाए कि ब्राह्मण थोक में सपा के साथ जा रहा है- जल्दबाजी होगी. उलटे अखिलेश का ब्राह्मण शोर भाजपा के लिए ज्यादा फायदेमंद साबित हो सकता है. भाजपा ने ब्राह्मणों के लिए कोई परवाह नहीं दिखाई है. मोदी योगी के बीच की रस्साकसी को ही मानें तो यह ठाकुरों के लिए भी कोई परवाह नहीं दिखाने का संकेत ही है. यहां तक कि संघ के कुछ अंदरूनी सूत्रों ने भी दबी जुबान कहना शुरू कर दिया है कि चुनाव बाद योगी का सीएम बनना मुश्किल है. यानी पार्टी मोदी को आगे कर अपने ओबीसी मतों की उन आशंकाओं का जवाब दे रही है जिसे अखिलेश मुद्दा बनाने की भरसक कोशिश कर रहे हैं. यानी भाजपा उस सवर्ण पहचान को भी पूरी तरह से खोने के लिए तैयार है जो स्थायी रूप से उसके लिए नुकसानदेह साबित हो रहा है.
भाजपा के लिए इससे बढ़िया क्या होगा कि ब्राह्मण ही उपेक्षा का आरोप लगा रहे हैं. भाजपा को यकीन है कि टिकट के बहाने जो ब्राह्मणों सपा से जुड़ेंगे वह उसके ओबीसी नेताओं का ही हिस्सा खाएंगे. और ऐसे नुकसान की बेहतर भरपाई सोशल इंजीनियरिंग से की जा सकती है जो पिछले कुछ चुनावों से भाजपा की खूबी बना हुआ है. वैसे भी कर्नाटक, महाराष्ट्र से हरियाणा तक साफ़ दिखा है कि भाजपा ने मुख्यमंत्री की कुर्सी पर राज्य की मत विशेषता से अलग लोगों को बिठाया जिसका अंदाजा तक नहीं था.
80:20 की लड़ाई में क्षत्रप कौन?
भाजपा के पास अब हिंदुत्ववादी गैर सवर्ण चेहरों की कमी तो है नहीं. जहां कमियां हैं वहां गठबंधन के जरिए समीकरण का इस्तेमाल किया जा रहा है. चुनाव में उतरने से पहले तक भाजपा ने दर्जनों जातीय सम्मलेन किए हैं. इनमें लखनऊ में निषादों का महाम्मेलन भी शामिल है जो मौजूदा चुनाव में भाजपा के लिए सबसे बड़ा ट्रंप कार्ड साबित होने वाला है. पार्टी ने पूर्वांचल में एक और ऐसे दल को अपने साथ जोड़ा है जो कई दर्जन सीटों को प्रभावित करने में सक्षम है. मोदी को साथ लेकर यूपी के चुनाव में भाजपा जिस योजना पर आगे बढ़ रही है वो कामयाब हुआ तो निश्चित रूप से भाजपा के आतंरिक स्वरूप में उसका असर भी ज्यादा साफ़ नजर आने वाला है.
80-20 के बीच लड़ाई के शोर में पश्चिम से पूरब की ओर चुनाव का आगे बढ़ना भी तो इसी बात का संकेत है. विकास के मुद्दों पर वोट नहीं पड़ने वाले. भाजपा को यह बात ज्यादा बेहतर पता है. और यही वजह है कि वो हिंदुत्व के मुद्दे पर ही चुनाव लड़ना चाहती है. चुनाव के शुरुआती चरण पश्चिम में हैं जहां कई दर्जन सीटों पर मुस्लिम मतों की हिस्सेदारी 40 प्रतिशत से ज्यादा है. इन इलाकों में दिखने वाले धार्मिक टकराव की शक्ल सवर्ण बनाम मुस्लिम नहीं हैं. बल्कि हिंदू बनाम मुस्लिम हैं.
इस पर ना तो किसान आंदोलन असर डालता नजर आ रहा है और ना ही अखिलेश के ओबीसी राग का ही कोई फर्क पड़ेगा. यूपी चुनाव का फैसला तो गैरयादव पिछड़ी जातियां ही करेंगी. इनमें भी वे जातियां करेंगी जिनके राजनीतिक 'सरदार' नहीं हैं. कहने का मतलब कि उनके बड़े चेहरे या छोटी पार्टियां नहीं हैं. ओबीसी के रूप में मोदी की सबसे ज्यादा अपील इन्हीं जातियों में देखने को मिलती हैं जो आर्थिक तौर पर भी पिछड़ी हैं. बाकी मजबूत दिख रही जातियां 'कागजी समीकरण' भर के लिए हैं. भले ही कई समीकरण अभी तात्कालिक रूप से भाजपा के खिलाफ जाते दिख रहे हैं मगर मकर संक्रांति के बाद अगर कुछ बड़ा राजनीतिक परिवर्तन नहीं हुआ तो यह मानने में गुरेज नहीं करना चाहिए कि अभी भी सिर्फ मोदी की वजह से भाजपा अपने प्रतिद्वंद्वियों से बहुत आगे है. संघ के नेतृत्व में भाजपा का 'हिंदुत्व' यूपी चुनाव के साथ ऐतिहासिक करवट लेकर सवर्ण वर्चस्व से मुक्त होने जा रहा है. चुनाव उसी पिच पर है भाजपा को जिसकी उम्मीद थी.
वैसे भी पिछले 15 साल में ऐसा पहली बार है जब यूपी में इतना बड़ा चुनाव होने के बावजूद कम से कम लहर जैसी चीज तो नहीं है. साल 2007 में गुंडा विरोधी तत्वों के खिलाफ मायावती की लहर थी, 2012 में नए युवा नेतृत्व के लिए अखिलेश यादव और बाकी के चुनाव में भाजपा के ब्रांड 'मोदी हिंदुत्व' की सुनामी रही है. 2017 के विधानसभा चुनाव में भी मोदी सुनामी ही थी. अखिलेश के लिए अच्छी बात है कि वे सीधी लड़ाई में बने हुए हैं. सभी पार्टियों के उम्मीदवारों की लिस्ट आने के तस्वीर साफ़ हो जाएगी.
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