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Updated: 13 जून, 2016 07:02 PM
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किसी भी मुख्यमंत्री का विधानसभा उपचुनाव लड़ना रस्मअदायगी जैसा ही होता है. जेल से लौटने के बाद जयललिता ने बहुत बड़े अंतर से चुनाव जीता था - लेकिन महबूबा मुफ्ती को लेकर हर कोई आश्वस्त नहीं नजर आ रहा.

नागपुर कंट्रोल रूम

जब से महबूबा मुफ्ती ने कश्मीरी पंडितों को लेकर बिल्ली और कबूतर का मुहावरा पेश किया है तभी से उन पर राजनीतिक हमले तेज हो गये हैं. कश्मीरी पंडितों की वापसी को लेकर महबूबा ने कहा था, "मैं कश्मीरी पंडितों की वापसी चाहती हूं लेकिन मैं कबूतरों को बिल्ली के सामने नहीं डाल सकती." महबूबा मुफ्ती अनंतनाग से उपचुनाव लड़ रही हैं. ये सीट उनके पिता और तत्कालीन मुख्यमंत्री मुफ्ती मोहम्मद सईद के निधन से खाली हुई थी.अनंतनाग विधानसभा के लिए अब 22 जून को वोटिंग होंगी. कानून व्यवस्था की स्थिति को देखते हुए इसे तीन दिन टाल दिया गया. पहले 19 जून को मतदान होना था.

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जिन उलझनों के चलते महबूबा मुफ्ती ने सीएम की कुर्सी से दो महीने तक दूरी बनाए रखी, वे ही अब उनके सामने चुनौतियां बन कर खड़ी हैं. कश्मीरी पंडितों को लेकर उनके बयान के बाद उनके विरोधी उन्हें आरएसएस का चेहरा बताने लगे हैं.

प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष गुलाम अहमद मीर एक सभा में कहते हैं, "इस बार हम महबूबा मुफ्ती से नहीं लड़ रहे हैं. हमारी लड़ाई राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से है और हम उसकी उम्मीदवार महबूबा मुफ्ती को नागपुर वापस भेज देंगे."

'करो या मरो', लेकिन क्यों?

अनंतनाग पीडीपी का गढ़ रहा है. महबूबा ने 2014 में अनंतनाग से ही लोक सभा चुनाव जीता था.

नेशनल कांफ्रेंस ने इफ्तिखार हुसैन मिगार और कांग्रेस ने हिलाल अहमद शाह को अनंतनाग विधानसभा के लिए महबूबा के खिलाफ मैदान में उतारा है. इस बीच उत्तर कश्मीर के लांगेट से विधायक इंजीनियर राशिद ने भी मुख्यमंत्री के खिलाफ चुनाव लड़ने का एलान किया है. इंजीनियर राशिद काफी एक्टिव रहते हैं और केंद्र के प्रति हरदम उनका हमलावर रुख ही देखने को मिलता है.

कुछ जानकार महबूबा की जीत को लेकर लेकर संशय भी जता रहे हैं, जिनका मानना है कि उनके लिए ये 'करो या मरो' जैसी स्थिति हो गयी है. वैसे 26 साल के अपने राजनीतिक कॅरिअर में महबूबा को विधान सभा चुनाव में कभी हार का मुहं नहीं देखना पड़ा है. 1996 में बिजबेहड़ा, 2002 में पहलगाम और 2008 में वो वाची विधानसभा से चुनाव जीत चुकी हैं.

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पीडीपी के गढ़ में महबूबा को चुनौती

अपने पिता से अलग महबूबा की भी छवि अलगाववादियों के साथ सहानुभूति भरी रही है. बीजेपी के साथ दोबारा सरकार बनाने को लेकर महबूबा की उलझन की वजह भी उनका स्टैंड ही रहा. महबूबा की फिक्र एक और बात को लेकर रही कि कश्मीर के लोग इस गठबंधन से नाराज दिखे. मुफ्ती के जनाजे में कम लोगों की मौजूदगी को उन्होंने एक सबक के तौर पर लिया था. पीडीपी के विरोधी महबूबा के पिता पर बीजेपी के सामने घुटने टेकने जैसे आरोप लगाते रहे हैं.

काफी सोच विचार के बाद महबूबा कुर्सी पर बैठ तो गईं लेकिन चुनौतियां अब भी बरकरार हैं. उन्हें लोगों को लगातार समझाना पड़ रहा है कि बीजेपी के साथ उनके पिता द्वारा किया गठबंधन सही था - और यही वजह रही कि उन्होंने इसे आगे बढ़ाया.

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विरोधियों के हमले के बीच उन्हें ये भी समझाना है कि वो बीजेपी के एजेंडे का न तो हिस्सा हैं और न किसी तरह खुद को इस्तेमाल होने दे रही हैं. यही वजह है कि उनका चुनाव थोड़ा मुश्किल नजर आ रहा है.

वैसे तस्वीर का दूसरा पहलू देखें तो इंजीनियर रशीद के मैदान में आ जाने से फायदा महबूबा को ही होने की संभावना नजर आ रही है. इंजीनियर राशिद के मैदान में कूद पड़ने से कांग्रेस और नेशनल कांफ्रेंस के उम्मीदवारों के ही वोट बंटेंगे जिसका सीधा फायदा महबूबा को ही मिलेगा.

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