इस आरक्षण से अगला संघर्ष 'दलित-दलित' बनाम 'सवर्ण-दलित' के बीच न हो जाए
आरक्षण का प्रारूप इसी तरह से आगे बढ़ता रहा तो वंचित जातियों में ही एक नया सवर्ण समुदाय पैदा होगा जो जातीय शोषण की परिभाषा को नई पहचान देगा.
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आरक्षण की आग में हिंदुस्तान कई बार जल चुका है, एक ऐसा मुद्दा जिस पर कुछ भी बोलते ही आपको दलित विरोधी और पिछड़ा विरोधी का तमगा दे दिया जाता है. लेकिन इस बार आरक्षण की जरुरत और उसकी प्रासंगिकता पर बात की है देश की सबसे बड़ी अदालत सुप्रीम कोर्ट ने. सुप्रीम कोर्ट ने पूछा है कि क्या आरक्षण अनंत काल तक जारी रहना चाहिए? अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के कर्मचारियों को प्रमोशन में आरक्षण के मामले में सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ ने सुनवाई की है. सुप्रीम कोर्ट ने सवाल उठाया कि जिस तरह अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) के अमीर लोगों को क्रीमी लेयर के सिद्धांत के तहत आरक्षण के लाभ से वंचित रखा जाता है, उसी तरह एससी-एसटी के अमीरों को पदोन्नति में आरक्षण के लाभ से क्यों वंचित नहीं किया जा सकता?
सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणी आरक्षण के कुतर्कों को उजागर कर रही है.
आरक्षण को जारी रखने के पक्ष में अक्सर ये तर्क दिया जाता है कि जब तक समाज में समानता नहीं आ जाती तब तक आरक्षण जारी रहना चाहिए. समाज के शोषित और वंचित जातियों के लिए आरक्षण एक विटामिन की तरह है. सबसे पहले समानता तो मानव जीवन की बुनियादी आधारशिला है हीं नहीं क्योंकि एक ही घर में सगे भाइयों की सामाजिक दशा अलग-अलग होती है. आरक्षण सामाजिक जरुरत से ज्यादा राजनीतिक जरुरत में तब्दील हो गया है. किसी भी आरक्षित सीट पर जनता का प्रतिनिधि हमेशा एक ही परिवार से होना जरुरी नहीं है और उस सीट का एक तय समय अंतराल के बाद ऑडिट होना चाहिए ताकि लोगों को पता चल सके कि सामाजिक शोषितों के नेता अपने लोगों का कितना शोषण दूर कर पाएं हैं.
आपने अक्सर देखा होगा कि किसी दलित परिवार से आधा दर्जन लोग सरकारी नौकरियों में होते हैं और किसी परिवार में लोग नौकरी के लिए तरस रहे हैं. अब इस स्थिति में समानता के स्टेटस के बारे में आरक्षण का बिगुल बजाने वालों के क्या विचार होंगे. जिन घरों में आरक्षण की बदौलत सरकारी नौकरियों की बाढ़ आ चुकी है उन्हें अपने वंचित पड़ोसी के लिए आरक्षण छोड़ने की जरुरत क्यों महसूस नहीं होती. इसमें कोई शक नहीं है कि यदि आरक्षण का प्रारूप इसी तरह से आगे बढ़ता रहा तो वंचित जातियों के अंदर हीं एक नया सवर्ण समुदाय पैदा होगा जो जातीय शोषण की परिभाषा को नया आयाम देगा.
सवर्ण जातियों ने दलितों और अन्य पिछड़ी जातियों का कई सदियों तक शोषण किया है इससे कोई इंकार नहीं कर सकता. लेकिन क्या शोषण का बदला शोषण होगा ये सबसे बड़ा सवाल है. आरक्षण की सफलता तभी मानी जाएगी जब सभी जातियों को समान रूप से अवसर उपलब्ध होंगे. आरक्षण की जरुरत है लेकिन उसकी तीव्रता और लाभार्थियों की सही पहचान ही इसके विरोध में उठते स्वरों को शांत करने का एकमात्र तरीका है.
सुप्रीम कोर्ट ने पूछा है कि एक दलित आईएएस के पोते और पोतियों को क्या पदोन्नति में आरक्षण की जरुरत है? ये सवाल उन अधिकारियों को खुद से पूछना होगा और सामाजिक समानता के लिए व्यक्तिगत हितों की कुर्बानी देनी होगी तब जाकर संविधान निर्माता भीमराव आंबेडकर के सपनों को असल मायने में साकार किया जा सकेगा.
कंटेंट- विकास कुमार (इंटर्न- आईचौक)
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