क्या राजस्थान में वसुंधरा राजे के पक्ष में माहौल बन रहा है?
जैसे-जैसे चुनाव नजदीक आते जा रहा है, भाजपा के लिए मुख्यमंत्री का चेहरा कौन होगा, ये सवाल सबसे जेहन में दौड़ने लगा है. मुख्यमंत्री फेस बनने के लिए भाजपा में दावेदारी बढ़ते जा रही है. पूर्व मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे के साथ ही कई ऐसे नाम हैं, जो अपने-अपने तरीके से खुद को इस रेस में मान रहे हैं.
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राजस्थान विधानसभा का कार्यकाल 14 जनवरी 2024 को खत्म हो रहा है. ऐसे में यहां मध्य प्रदेश के साथ नवंबर-दिसंबर में चुनाव हो सकता है. राजस्थान में 200 विधानसभा सीटें हैं और सरकार बनाने के लिए जादुई आंकड़ा 101 सीट का है.
राजस्थान में पिछले 6 चुनाव से भाजपा और कांग्रेस बारी-बारी से सत्ता में आती है. ये सिलसिला 1993 से जारी है. 1993 से यहां कोई भी पार्टी लगातार दो बार चुनाव नहीं जीत सकी है. परंपरा कायम रहने के हिसाब से देखें, तो सत्ता की दावेदारी भाजपा की बन रही है. लेकिन राज्य में पार्टी की सबसे वरिष्ठ और कद्दावर नेता वसुंधरा राजे के रुख से भाजपा की चिंता बढ़ गई है.
जैसे-जैसे चुनाव नजदीक आते जा रहा है, भाजपा के लिए मुख्यमंत्री का चेहरा कौन होगा, ये सवाल सबसे जेहन में दौड़ने लगा है. मुख्यमंत्री फेस बनने के लिए भाजपा में दावेदारी बढ़ते जा रही है. पूर्व मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे के साथ ही कई ऐसे नाम हैं, जो अपने-अपने तरीके से खुद को इस रेस में मान रहे हैं. इनमें आमेर से एमएलए और प्रदेश भाजपा अध्यक्ष सतीश पूनिया, केंद्रीय जल शक्ति मंत्री गजेन्द्र सिंह शेखावत के नाम शामिल हैं.
इनके अलावा राजस्थान के सियासी गलियारे में लोकसभा स्पीकर ओम बिरला के नाम की भी सुगबुगाहट है. इनके अलावा स्थानीय नेता गुलाब चंद कटारिया, राजेंद्र राठौर और किरोड़ी लाल मीणा जैसे नेता भी शामिल हैं, जो अपने हिसाब से खुद के लिए अभियान चला रहे हैं. हालांकि इनमें कोई भी नेता खुलकर अपनी दावेदारी पर बात नहीं कर रहा है.
तमाम विरोधाभासों के बावजूद अभी भी वसुंधरा राजे राजस्थान में जननेता के तौर पर बेहद लोकप्रिय हैं
वैसे तो हार राज्य में चुनाव प्रधानमंत्री मोदी के चेहरे पर लड़ा जा रहा है. राष्ट्रीय अध्यक्ष जेपी नड्डा, केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह खुले मंच से एलान कर चुके हैं कि राजस्थान में विधानसभा चुनाव प्रधानमंत्री मोदी के नाम और काम पर लड़ा जाएगा. अगर चुनाव तक वसुंधरा राजे के आक्रामक तेवर ऐसे ही बने रहे, तो बीजेपी, कांग्रेस के अंदरूनी कलह का फायदा उठाने से चूक सकती है.
ये जगजाहिर है कि मुख्यमंत्री अशोक गहलोत और सचिन पायलट के बीच 2018 से ही तनातनी है. ऐसे में भाजपा इसका फायदा उठाना चाहेगी. इसके लिए जरूरी है कि वसुंधरा राजे पूरे मन से भाजपा के हाल में सक्रीय हो चुकी है .करीब ढाई दशक से राजस्थान की सत्ता वसुंधरा राजे और अशोक गहलोत के इर्द-गिर्द ही घूमते रही है.
पर जीत के बाद कौन ? यह प्रश्न बना रहता है. कई नाम आ रहे थे पर उन सब के मंथन करने के बाद जो नाम उभर कर आ रहा है वह है वसुंधरा राजे का.
राजस्थान की राजनीति में पुराने गठजोड़ ताजा होने से विरोधी कैंप सतर्क होने लगे हैं. राजस्थान की पूर्व मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे और सांसद किरोड़ी लाल मीणा की गुफ़्तगू सियासी गलियारों में हलचल का सबब बन गई है. पूर्व में डॉ. किरोड़ी लाल मीणा और वसुंधरा राजे एक दूसरे के घोर विरोधी माने जाते थे, परंतु पिछले कुछ समय से दोनों के बीच जिस प्रकार से नजदीकियां बढ़ीं हैं वो सभी को बता रही है कि क्या होने वाला हैं.
रविवार (12-2- 2023 को प्रधानमंत्री की सभा के बाद दोनों ही नेताओं में लंबी अवधि तक हुई गुफ़्तगू भाजपा के विरोधी गुट में कौतूहल का विषय बनी हुई है. प्रधानमंत्री की सभा के बाद दोनों नेताओं के बीच लंबी बातचीत हुई है, दरअसल जब राजस्थान पेपर लीक को लेकर डॉ. किरोड़ी लाल मीणा धरना प्रदर्शन कर रहे थे. तब भी पूर्व मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे ने ट्वीट कर लिखा था कि डॉ. साहब अकेले नहीं हैं, हम उनके साथ हैं, जिसका परिणाम यह हुआ कि आनन-फानन में भाजपा के नेताओं का डॉ. किरोड़ी लाल मीणा के धरना स्थल पर पहुंचने का सिलसिला शुरू हो गया था. इसी के बाद डॉ. किरोड़ी लाल ने भी अपने बयान में भाजपा के प्रदेश इकाई अध्यक्ष सतीश पूनिया को आड़े हाथ लेते हुए कहा था कि पूनिया से निराश हैं और उनको भाजपा प्रदेश इकाई से कोई भी सहयोग नहीं मिला, जिसके बाद प्रदेश में राजनीतिक हलचल तेज हो गई थी.
प्रधानमंत्री की सभा के बाद हुई दोनों नेताओं की बैठक को सियासी जानकार किसी गठजोड़ से भी जोड़ कर देख रहे हैं, डॉ. किरोड़ी लाल मीणा को पूर्वी राजस्थान का कद्दावर नेता माना जाता है और पूर्वी राजस्थान की 50 सीटों पर इनका भी प्रभाव देखा जाता है. हालांकि जो भीड़ और समर्थन भारत जोड़ो यात्रा के दौसा आने पर दिखा था वो प्रधानमंत्री की रैली में नहीं नजर आया जिसका प्रमुख कारण मीणा हाईकोर्ट से रैली को कैंसिल कर स्थान परिवर्तन बताया जा रहा है. जिसके चलते मीणा समर्थक नाराज बताए जा रहे हैं.
कांग्रेस में सचिन पायलट के कारण गुर्जर नाराज हैं और जिसका पूरा फायदा भाजपा लेने की जुगत में लगी हुई है, ऐसे में डॉ. किरोड़ी लाल मीणा का एक बार बढ़ता हुआ कद पूर्वी राजस्थान में भाजपा को बढ़त दिला सकता है. वहीं दूसरी ओर दोनों नेताओं वसुंधरा राजे और किरोड़ी लाल मीणा के बीच की बातचीत भाजपा के ही बड़े नेताओं की धड़कन बढ़ रही हैं. 2018 में भाजपा में ही घोर विरोध के बाद भी वसुंधरा राजे 72 सीट लाने में कामयाब हुई थीं, जिसमें पांच साल सरकार चलाने के बाद का विरोध और भाजपा का अंदरुनी विरोध भी शामिल था. इसलिए इस बार भी वसुंधरा राजे की टीम को हल्के में नहीं लिया जा सकता है.
भाजपा नेता और पूर्व मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे राजस्थान की राजनीति की माहिर खिलाड़ी मानी जाती हैं. भैरो सिंह शेखावत को छोड़ दें, तो वसुंधरा राजे ही एक मात्र नेता हैं, जिनके पास भाजपा की ओर से राजस्थान का मुख्यमंत्री बनने का अनुभव है. वसुंधरा राजे दो बार राजस्थान की मुख्यमंत्री रही हैं.वे राजस्थान की पहली और एकमात्र महिला मुख्यमंत्री भी थी. वे दिसंबर 2003 से दिसंबर 2008 और दिसंबर 2013 से दिसंबर 2018 तक मुख्यमंत्री रही हैं.
राजस्थान की मुख्यमंत्री बनने से पहले वसुंधरा राजे अटल बिहारी वाजपेयी सरकार में केंद्रीय मंत्री भी रह चुकी हैं. 69 साल की वसुंधरा राजे फिलहाल भाजपा की राष्ट्रीय उपाध्यक्ष और झालरापाटन से विधायक हैं. 2013 में वसुंधरा राजे की अगुवाई में भाजपा ने राज्य की 200 में से 163 सीटों पर जीत दर्ज की थी. कांग्रेस सिर्फ 21 सीट पर सिमट गई थी. राजस्थान में इतनी बुरी स्थिति कांग्रेस की कभी नहीं हुई थी. वसुंधरा राजे का ही करिश्मा था कि 2013 में भाजपा ने राजस्थान में अब तक का सबसे बढ़िया प्रदर्शन किया था. राजस्थान में ये भाजपा की सबसे बड़ी जीत थी. राजस्थान के राजनीतिक इतिहास में अब तक कोई भी पार्टी इतनी सीटें नहीं जीत पाई है.
तमाम विरोधाभासों के बावजूद अभी भी वसुंधरा राजे राजस्थान में जननेता के तौर पर बेहद लोकप्रिय हैं. उनकी दावेदारी को खारिज करना भाजपा के लिए आसान नहीं होगा. सूबे में उनसे बड़े कद का भाजपा के पास फिलहाल कोई नेता नहीं दिखता. अगर पार्टी वसुंधरा राजे को मुख्यमंत्री उम्मीदवार बनाकर चुनाव नहीं लड़ती है तो कम से कम 50 सीटों पर भाजपा को अच्छा खासा नुकसान उठाना पड़ सकता है.
कुछ महीने पहले राजस्थान के कई जगहों पर 'कहो दिल से, भाजपा फिर से' की जगह 'कहो दिल से, वसुंधरा फिर से' का पोस्टर दिखा. इस नारे के जरिए वसुंधरा राजे के समर्थकों ने भाजपा के शीर्ष नेतृत्व को संदेश देने की कोशिश की. पार्टी का शीर्ष नेतृत्व पसंद करे या नहीं, वसुंधरा राजे खुद को मुख्यमंत्री चेहरे के रूप में पेश कर रही हैं. राजस्थान में पोस्टर और नारे राजनीतिक नब्ज को टटोलने का बेहद कारगर जरिया माने जाते हैं.
2003 में भाजपा के प्रचार अभियान में 'गहलोत आएगा, अकाल आएगा, गहलोत जाएगा, अकाल जाएगा' स्लोगन ने कमाल कर दिखाया. वैसे ही 2008 में -'8 PM, NO CM'- स्लोगन के जरिए कांग्रेस ने उस वक्त की मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे पर निशाना साधकर भाजपा को सत्ता से बाहर कर दिया था. 2018 में भाजपा का एक वर्ग वसुंधरा राजे से नाराज था. उस वक्त इन लोगों ने चुनाव में 'मोदी तुझसे बैर नहीं, वसुंधरा तेरी खैर नहीं' का स्लोगन चलाया. हालांकि इस स्लोगन से भाजपा को नुकसान ही उठाना पड़ा और सत्ता गवांनी पड़ी.
2018 में भाजपा की हार के बाद से ही वसुंधरा राजे राजनीतिक तौर से कम सक्रिय दिख रहीं थीं. सतीश पूनिया को प्रदेश अध्यक्ष बनाए जाने के बाद भाजपा की प्रदेश स्तरीय राजनीति में वसुंधरा राजे हाशिये पर थीं. हालांकि 2022 में उनकी सक्रियता बढ़ी. सबसे पहले 8 मार्च 2022 को अपने जन्मदिन पर उन्होंने बूंदी के केशोरायपाटन में बड़ी जनसभा की.
इसमें जुटी भारी भीड़ के जरिए वसुंधरा राजे ने अपने विरोधियों को सीधा संदेश दिया कि आगामी चुनाव में मुख्यमंत्री फेस की दावेदारी को नहीं छोड़ा है. उनके जन्मदिन के कार्यक्रम में 42 विधायक और 11 सांसद शामिल हुए थे. जन्मदिन के कुछ दिन बाद मार्च में ही वसुंधरा राजे ने दिल्ली आकर संसद भवन में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से मुलाकात की थी. इस मुलाकात को लेकर सियासी मायने भी निकाले गए थे. उत्तराखंड और उत्तर प्रदेश में भाजपा की बन रही नई सरकार के शपथ ग्रहण समारोह में भी शामिल हुईं. पिछले कुछ महीनों में उन्होंने राजस्थान के कई शहरों में जनसभाओं को जरिए अपनी ताकत दिखाने की कोशिश की है.
गुलाब चंद कटारिया को असम के राज्यपाल के रूप में नियुक्त किया गया है. वह जगदीश मुखी की जगह लेंगे. कटारिया राजस्थान विधानसभा में विपक्ष के नेता हैं. इससे पहले पूर्ववर्ती वसुंधरा राजे सरकार में वह राजस्थान के गृह मंत्री रह चुके हैं.
राजनीतिक गलियारों में कटारिया को वसुंधरा राजे सिंधिया का विरोधी बताया जाता है. वह कई बार अपने बयानों द्वारा वसुंधरा पर निशाना साधते रहे हैं. कई बार उनके बयानों पर भाजपा के केंद्रीय नेतृत्व को भी सफाई देनी पड़ी है. माना जा रहा है कि असम के राज्यपाल के तौर पर उनकी नियुक्ति, राजस्थान में पार्टी की अंदरूनी कलह को शांत करने का एक प्रयास है.
राजस्थान भाजपा के दिग्गज नेताओं में से एक कटारिया के असम का राज्यपाल बनाए जाने के बाद नेता प्रतिपक्ष का पद खाली हो गया है. इसके बाद अब प्रदेश में इस बात की चर्चा शुरू हो गई है कि नेता प्रतिपक्ष की जिम्मेदारी अब किसे दी जाएगी. वरिष्ठता के आधार पर इस पद के लिए वसुंधरा राजे और राजेंद्र राठौड़ को नाम सबसे पहले आता है. राजे जहां राज्य की पूर्व मुख्यमंत्री हैं, वहीं राठौड़ अभी विधानभा में उपनेता प्रतिपक्ष हैं.विपक्ष के नेता के ऐलान के साथ ही भाजपा में पार्टी की लीडरशिप को लेकर एक इशारा साफ तौर पर मिल जाएगा. लिहाजा चर्चाओं का बाजार गर्म होने लग गया है.
राजस्थान में यह पहले से तय माना जा रहा था कि कटारिया को कभी भी राज्यपाल बनाकर विपक्ष के नेता की जिम्मेदारी किसी और को सौंपी जा सकती है. भले ही भाजपा ने पहले ही ये साफ कर दिया है कि सभी विधानसभा चुनावों में मुख्य चेहरा प्रधानमंत्री मोदी का ही होगा. इससे ये तो साफ है कि भाजपा राजस्थान में भी मुख्यमंत्री चेहरा घोषित नहीं करेगी. इसके बावजूद गुलाबचंद कटारिया का ये कहना कि ‘राजस्थान की राजनीति में वसुंधरा राजे की भूमिका रहनी चाहिए’, के बाद राजे के पास बजट सत्र में टेकओवर लेने का अधिक अवसर बन सकता है.
अगर वसुंधरा राजे सदन में लीडरशिप करती हैं तो निश्चित तौर पर राजे ही आगामी चुनावों में भाजपा की लीडर और मुख्यमंत्री चेहरा होंगे. अगर वर्तमान उपनेता प्रतिपक्ष राजेन्द्र राठौड़ या राजस्थान भाजपा के अध्यक्ष सतीश पूनियां को सरकार को घेरने की जिम्मेदारी दी जाती है तो यहां से भावी मुख्यमंत्री चेहरे के संकेत मिल सकते हैं.
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