दिल्ली से समझ नहीं आएगा कश्मीर का मर्ज
जब से पीडीपी-बीजेपी सरकार बनने की चर्चा शुरु हुई तभी से पीडीपी के वोटर ने उसे कोसना शुरू कर दिया था. उनका आरोप है कि पहले अब्दुल्ला परिवार ने उनके हितों का सौदा किया और अब पीडीपी यही काम करने जा रही है...
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पिछले साल ठीक इन्हीं दिनों काश्मीर को वादी में रहकर जाना था. उस समय पीडीपी-बीजेपी की सरकार बनने की अटकलें लग रही थीं, ठीक उसी तरह, जैसे अब उनके पुनर्मिलन के चर्चे जोरों पर हैं. पिछले वसंत और इस वसंत में कश्मीर के बुनियादी सवाल हूबहू बने हुए हैं. ऐसे में पिछले साल के नोट्स को हूबहू यहां पेश कर रहा हूं, जिनसे कश्मीर के मौजूदा और स्थायी दोनों तरह के सवालों को हम इंसानी नजरिए से देख पाएं. दिल्ली में बैठकर जब इन मसलों पर मीडिया विमर्श होता है, तो लगता है कि पीडीपी वे मुद्दे उठा रही है जो किसी भी सूरत में आम भारतीय को नागवार हैं. मसलन धारा 370, अफजल गुरु की फांसी, आतंकवादियों और पाकिस्तान की तारीफ जैसी बातें और दीगर सवाल.
जम्मू-कश्मीर में बीजेपी और पीडीपी की सरकार बनने के एक पखवाड़े पहले इन्हीं हालात को श्रीनगर और आस-पास के इलाकों में देखा तो दिल्ली से एकदम साफ और फैसलाकुन नजर आने वाले ये मुद्दे बहुत उलझे नजर आए. फरवरी के मध्य में श्रीनगर के चारों तरफ पहाड़ों की चोटियों पर बर्फ जमी थी और नीचे मोटे तने वाले चिनार के पेड़ पतझड़ में खड़े थे. बर्फ पिघलने और चिनारों के सुर्ख होने में अभी डेढ़ महीना बाकी था. इतना ही वक्त ट्यूलिप के फूलों से मुगल गार्डन्स में बहार आने में बाकी था. लेकिन कुदरत के इस नियत चक्र से कश्मीरी अवाम बहुत कट गया है. उसके जीवन का बसंत बहुत सी दूसरी चीजों पर निर्भर है. शहर में लोग लंबा फिरन पहन कर घूम रहे हैं, जिनकी आस्तीनें हवा में झूलती रहती हैं. पहली नजर में लगता है कि हजारों कश्मीरी बिना हाथों के घूम रहे हैं. लेकिन असल में उनके हाथ लबादे के भीतर हैं और ज्यादातर मामलों में कांगड़ी की आंच उन्हें गरमाए हुए है. मुख्य सड़क से जब कोई गली अंदर को मुड़ती है तो मोड़ पर सेना के बैरियर दिख जाते हैं. बखतरबंद खाकी वर्दी में डटे सिपाहियों की लोडेड बंदूकों के साए में औरतें इन गलियों में दाखिल होती हैं. बाजारों में चहल-पहल लौट आई है लेकिन पिछले दिनों की बाढ़ के निशान इमारतों की दूसरी मंजिल तक दिख जाते हैं.
कश्मीरी आपस में भी और अपने सैलानियों के साथ भी बड़ी मीठी जुबान में पेश आते हैं. बातचीत के सामान्य या व्यावहारिक सिलसिले में बस ड्राइवर, टूरिस्ट गाइड, रेस्त्रां मालिक, कालीन व्यवसायी या फेरीवाले आपसे कारोबारी बात ही करेंगे. वे आपको डल झील में हुई फिल्मों और टीवी सीरियल की शूटिंग के किस्से बताएंगे, कश्मीरी केसर और दूसरे मेवों के नाम पर मिलने वाले मिलावटी माल से आगाह करेंगे और बीच-बीच में आपस में पश्तो में बातचीज करेंगे.
वे मुद्दे जिनकी चर्चा टीवी पर हो रही है, उन पर बात शुरू करने से पहले वह थोड़े से थोड़ा ज्यादा वक्त लेंगे. लेकिन एक बार सिलसिला शुरू हो जाए तो जल्दी थमता नहीं है. यह भी न भूलिए कि बूढों और अधेड़ों की तुलना में युवा कश्मीरी इस विषय पर बोलने पर आता है तो ज्यादा खुलकर बोलता है.
15,फरवरी 2015 को विश्वकप में जब भारत और पाकिस्तान का पहला मैच था तो एक दिन पहले से ही कश्मीरियों की पर जुबान इसकी चर्चा थी. वे बता रहे थे कि कल एक तो रविवार है, दूसरे क्रिकेट मैच है, ऐसे में शहर में सन्नाटा रहेगा. जब वे बाहरी लोगों से हिंदी में संवाद करते तो कहते कि जो भी टीम अच्छा खेलेगी वही जीते. उनके लिए खेल बडी चीज है, लेकिन जब बात पश्तो में होती तो आफरीदी उनका स्टार होता और उसकी जीत से उनको ज्यादा खुशी मिलती है. उनमें से बहुत से कल यह मैच स्टार स्पोर्ट्स या दूरदर्शन के बजाय पीटीवी पर देखने वाले थे. पाकिस्तान का समाचार चैनल यहां खूब देखा जाता है. कालीन और कश्मीरी वस्त्रों के एक पुराने कारोबारी के यहां मैच की पूर्व संध्या पर बातचीत का सिलसिला चल पडा. शोरुम संभाल रहा 25 साल का पढ़ा-लिखा लडका धीरे-धीरे मुखर हुआ. मैच का सिरा पकडकर उसने तंज किया, सेना वालों को भारत की जीत की खुशी होती है, तो बिलकुल हो. वे इसका जश्न मनाना चाहते हैं तो खूब मनाएं, लेकिन पटाखे हमारे दरवाजों पर तो न फेंके. आप खुशी मना रहे हैं या हमें परेशान कर रहे हैं. 15 तारीख को भारत के मैच जीतने के बाद ऐसी कोई घटना हुई हो या नहीं, लेकिन यह बयान सिर्फ इतना बता रहा है कि आम कश्मीरी और सेना के बीच के रिश्ते का सुर कितना बिगडा हुआ है.
कोई एक दर्जन लोगों से अलग-अलग बातचीत में हर बार एक बात मुखर हुई भारत, पाकिस्तान और कश्मीर. वे कहीं भी सीधे पाकिस्तान का समर्थन करते नजर नहीं आए और कभी उन्होंने खुद को भारतीय नहीं माना. उनके दिल में कश्मीर एक आजाद मुल्क जैसा है. लेकिन राजनीतिक हालात वे खूब जानते हैं. इसीलिए एक नौजवान ने कहा, आपको आतंकवादियों से दिक्कत है, पाकिस्तानी फौज से दिक्कत है. हमें भी आतंकवादियों से दिक्कत है. यहां जितना सुकून होगा उतने ज्यादा सैलानी आएंगे और उसी से हमारे चूल्हे जलते हैं. लेकिन टीवी पर तो ऐसे दिखाते हैं जैसे कश्मीर में उतरते ही बम फट जाएगा, आप ही बताइये क्या आपको यहां ऐसा महसूस हुआ. क्या आपको सारे कश्मीरी आतंकवादी नजर आ रहे हैं. तो फिर क्यों हमारे दरवाजों पर फौज खडी कर दी है. आप बॉर्डर पर जितनी चाहो उतनी फौज लगाओ लेकिन हमारी बहनों को फौजियों की निगाह में रहने से आजाद करो.
इसी तरह अफजल गुरु के मुद्दे पर दिल्ली अपनी फाइनल मुहर लगा चुकी है और आम भारतीय संसद पर हमले के इस गुनहगार को फांसी पर टांग दिए जाने के पहले या बाद की तफसील में जाना पसंद नहीं करता. उसकी नजर में एक आतंकवादी फांसी का ही हकदार है और उसकी लाश को लेकर राजनीति तो वह कतई बर्दाश्त नहीं करता. लेकिन कश्मीर की गलियों में अफजल पहले एक कश्मीरी है. उन्हें लगता है कि मुकदमे में गुरु के साथ नाइंसाफी हुई. और आखिर में वे पूछते हैं कि क्या इंसानियत के नाते लाश पर भी परिवार का हक नहीं है. यही सुलगता सवाल जब महबूबा मुफ्ती करती हैं तो बाकी भारत और संसद असहज हो जाती है, लेकिन जिन लोगों की राजनीति पीडीपी कर रही है, ये सवाल उनकी जिंदगी के बुनियादी हिस्से बन गए हैं. दरअसल जब से पीडीपी-बीजेपी सरकार बनने की चर्चा शुरु हुई तभी से पीडीपी के वोटर ने उसे कोसना शुरू कर दिया था. उनका आरोप है कि पहले अब्दुल्ला परिवार ने उनके हितों का सौदा किया और अब पीडीपी यही काम करने जा रही है. सरकार बनने से पहले ही खफा हो रहे अपने इस वोटर को दिलासा देने के लिए पीडीपी के पास इन मुद्दों को उठाने के अलावा कोई चारा नहीं है. ये मुद्दे उसके वजूद का सवाल हैं. वैसे भी आम भारतीय की तुलना में कश्मीरी राजनैतिक दलों से कुछ ज्यादा ही आजिज आ चुके हैं. इसीलिए 14 फरवरी को जब अरविंद केजरीवाल ने दिल्ली के मुख्यमंत्री पद की दुबारा शपथ ली तो कश्मीर की सडकों पर इसकी जमकर चर्चा हुई.
इसीलिए फौज, पाकिस्तान, हिंदू-मुस्लिम और इतिहास का बडा सा टोकरा किनारे रखकर बात करिए तो संभावनाएं फूटती हैं. एक ऐसे ही नौजवान ने कहा, सारे भारतीय हमारे दुश्मन नहीं हैं. हजारों सैलानी यहां आते हैं, न वे हमसे झगडते हैं, न हम उनसे. ये तो इंसानी रिश्ता है. लेकिन दिक्कत यह है कि आप कश्मीर को तो भारत का हिस्सा मानते हो लेकिन कश्मीरियों को इसका अहसास नहीं कराते. देखिए गुलाम रसूल भारत की क्रिकेट टीम में आया था, तो हमें अच्छा लगा था, लेकिन उसे टीम से निकाल दिया. कश्मीरी युवा के इस तर्क को एक लाइन में काटा जा सकता है कि उसे कश्मीरी होने के कारण नहीं प्रदर्शन के कारण हटाया गया है, जैसे सहवाग, युवराज और गंभीर को हटाया गया है. लेकिन तर्क हमेशा भावनाओं को संतुष्ट कर सके यह जरूरी नहीं है. रसूल के जरिए कश्मीरी यही तो कह रहे हैं कि भारत के लोकतंत्र और बाकी सब मामलों में अगर उनकी हिस्सेदारी भी बाकियों जैसी हो जाए तो शायद भारतीयता और कश्मीरियत हजारों साल की रवायत की तरह फिर सहअसतित्व में आ जाएं.
लेकिन इसके लिए अब सन 1947 से कहीं ज्यादा मेहनत करनी होगी. दरअसल कश्मीर की नुमाइंदगी अब ऐसी नौजवान पीढी कर रही जो वहां सैनिक कानून लागू होने के बाद पैदा हुई है. उनके लिए सेना का साया, जामा तलाशी और अपने ही मुल्क में शक की निगाह से देखा जाना जिंदगी का अविभाज्य अंग बन गया है. इन प्रवृत्तियों की जितनी पैरवी की जाती है, वे खुद को भारत से उतना ही अलग महसूस करने लगते हैं. लिहाजा कश्मीर को देश के राजनीतिक नक्शे में बनाए रखना भारत जैसे शक्तिशाली देश के लिए कोई चुनौती नहीं है, असल चुनौती है कश्मीरी को भारतीय मानना, बनाए रखना और इसका अहसास कराना. क्या यह बात सरकार के एजेंडे में है!
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