झारखंड में अभी से मिलने लगी है महाराष्ट्र पॉलिटिक्स की झलक
महाराष्ट्र में तो शिवसेना चुनाव से पहले सीटों के मामले में पूरी तरह खामोश रही, लेकिन झारखंड में बीजेपी के प्रति AJSU का रूख बिलकुल अलग है. कांग्रेस और JMM वाले गठबंधन में भी सीटों के बंटवारे को लेकर बात बनती नहीं दिखती.
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गठबंधन पॉलिटिक्स का जो नजारा महाराष्ट्र में फिलहाल देखने को मिल रहा है, झारखंड में चुनाव से पहले ही इसकी झलक दिख रही है. महाराष्ट्र की तरह झारखंड में भी ज्यादातर पार्टियों की कोशिश दो गठबंधनों में ही चुनाव लड़ने की रही - लेकिन सीटों को लेकर राजनीतिक दलों की जिद के चलते ऐसा संभव नहीं हो पा रहा है.
झारखंड की जंग में मुख्य तौर पर दो गठबंधन आमने-सामने हो सकते हैं - एक बीजेपी के अगुवाई में और दूसरा जिसके नेतृत्व को लेकर ही पेंच फंस गया है. ये गठबंधन वो जिसमें कांग्रेस और झारखंड मुक्ति मोर्चा को हैं.
कॉमन बात ये है कि दोनों ही गठबंधनों से जुड़ी राजनीतिक पार्टियां एक दूसरे को बड़ा दिल दिखाने की नसीहत दे रही हैं. सीटों को लेकर सभी अपने अपने स्टैंड पर अड़े हुए हैं. नतीजा ये हुआ है कि बाबूलाल मरांडी की पार्टी झारखंड विकास मोर्चा ने तो सूबे की सभी 81 सीटों पर अकेले चुनाव लड़ने का ऐलान कर दिया है.
बीजेपी और AJSU गठबंधन की कहानी
महाराष्ट्र में जिन चुनौतियों से देवेंद्र फडणवीस अभी जूझ रहे हैं, झारखंड के मुख्यमंत्री रघुवर दास अभी से दो-चार होने लगे हैं. राज्य में बीजेपी की गठबंधन सहयोगी शिवसेना का जो रंग चुनाव बाद देखने को मिला है, झारखंड में AJSU यानी ऑल झारखंड स्टूडेंट यूनियन अभी से आंख दिखाने लगा है. फिलहाल झारखंड में बीजेपी और आजसू की गठबंधन सरकार है.
2014 में बीजेपी 72 सीटों पर चुनाव लड़ी थी और आजसू को उसने 8 सीटें दी थी. बीजेपी इस बार भी उसी फॉर्मूले पर कायम है जबकि आजसू की डिमांड डेढ़ से दो गुणा बढ़ चुकी है. ऊपर से आजसू के लिए एक और मुश्किल खड़ी हो गयी है. बीजेपी इस बार आजसू को वो सभी सीटें नहीं देना चाहती, बल्कि बदलने का दबाव बना रही है. आजसू के नेता सुदेश महतो को ये सब कतई मंजूर नहीं है.
आजसू की मांग इस बार 8 की जगह 12-15 सीटों की हो गयी है, बीजेपी के लिए डील करना मुश्किल हो रहा है. ऊपर से आजसू नेताओं की ओर से संकेत दिये जाने लगे हैं कि अगर बात नहीं बनी तो वो चुनाव बाद गठबंधन की भी पेशकश कर सकते हैं.
बीजेपी और आजसू के बीच झगड़े की शुरुआत राज्य की दो सीटों को लेकर हुई. बीजेपी ने आजसू से उसके हिस्से की दो सीटें मांग ली हैं - लोहरदगा और चंदनकियारी. आजसू इन्हें अपनी परंपरागत सीटें मानती है.
लोहरदगा सीट पर टकराव तब शुरू हुआ जब मौजूदा कांग्रेस विधायक सुखदेव भगत बीजेपी में शामिल हो गये. सुखदेव भगत 2005 के पहले चुनाव में कांग्रेस के टिकट पर जीते थे, लेकिन 2009 में इसे आजसू ने हथिया लिया और 2014 के चुनाव में भी उन्हें विधानसभा नहीं पहुंचने दिया. जब कोर्ट से सजा होने के बाद आजसू विधायक कमल किशोर भगत की सदस्यता चली गयी तो उपचुनाव में सुखदेव भगत फिर से जीत गये. सुखदेव भगत की ही तरह आजसू भी लोहरदगा को अपनी परंपरागत सीट मान रही है.
चंदनकियारी का भी मामला तकरीबन ऐसा ही है. यहां बाबू लाल मरांडी की पार्टी के विधायक अमर बाउरी पाला बदल कर बीजेपी में पहुंच चुके हैं. बीजेपी ने अमर बाउरी को कैबिनेट भी में शामिल कर लिया था - अब वो भी इसी सीट से चुनाव लड़ना चाहते हैं और आजसू के पूर्व मंत्री उमाकांत रजक भी.
सुनने में ये भी आ रहा है कि दो के अलावा आजसू को सिसई, टुंडी, हटिया, मांडु जैसी सीटों पर भी दोनों दल दावा कर रहे हैं. आजसू के लिए पाला बदल कर बीजेपी में शामिल नेता ही मुसीबत बन रहे हैं और यही दोनों दलों के बीच टकराव की वजह भी बन रही है.
बीजेपी की दलील ये है कि वो उन नेताओं के लिए आजसू के हिस्से की सीटें मांग रही है जो उन इलाकों से चुनाव जीते हुए हैं. दूसरी तरफ आजसू का कहना है कि वो उन इलाकों को तो कतई नहीं छोड़ सकती जहां उसका जनाधार है.
झारखंड में चुनाव से पहले ही गठबंधन की तकरार
आजसू ही नहीं, बीजेपी के लिए एक और चुनौती बिहार में उसकी एनडीए सहयोगी जेडीयू भी है. नीतीश कुमार की पार्टी झारखंड में ये कहते हुए चुनाव लड़ने जा रही है कि बीजेपी से उसका सिर्फ बिहार में समझौता है. कहते तो ये भी हैं कि जेडीयू की तरह रामविलास पासवान की पार्टी LJP भी मन ही मन तैयार है, लेकिन वो बीजेपी के खिलाफ कोई कदम आगे नहीं बढ़ाना चाहती. 2017 के यूपी चुनाव में भी एलजेपी ने ऐसी कोशिश की थी, लेकिन अमित शाह के आंख दिखाते ही कदम पीछे खींच लिये थे.
महागठबंधन में तो झगड़ा और भी भारी!
बीजेपी और आजसू की ही तरह कांग्रेस और जेएमएम वाले गठबंधन की भी कहानी है. इसे बिहार के महागठबंधन की ही तरह विपक्ष का संयुक्त गठबंधन बनाने की कोशिश थी, लेकिन अब वो नाकाम नजर आने लगी है.
जिस तरह महाराष्ट्र में सरकार बनाने को लेकर शिवसेना, बीजेपी को आम चुनाव के दौरान हुई बातों की याद दिला रही है, झारखंड में चुनाव से पहले ऐसे ही JMM भी कांग्रेस को पुराने वादे की ओर ध्यान दिलाने की कोशिश कर रही है.
हेमंत सोरेन की पार्टी JMM का कहना है कि कांग्रेस के साथ आम चुनाव के वक्त ही तय हो गया था कि विधानसभा चुनाव में वो सहयोगी की भूमिका में रहेगी. मतलब, विधानसभा चुनाव हेमंत सोरेन के नेतृत्व में लड़ा जाएगा - लेकिन अभी तो कांग्रेस का नया स्टैंड सामने आ रहा है.
जेएमएम की ओर से कांग्रेस के सामने गठबंधन का एक नया फॉर्मूला पेश किया गया है. नये फॉर्मूले के तहत झारखंड मुक्ति मोर्चा अपने हिस्से में 44 सीटें रखते हुए कांग्रेस और वाम दलों को 30 सीटें देने का प्रस्ताव रखा है. इसके साथ ही जेएमएम की इच्छा है कि कांग्रेस ही लेफ्ट पार्टियों के साथ सीटों पर डील करे.
कांग्रेस चाहती है कि गठबंधन में कम से कम 30 सीटें तो उसे ही मिले और उसके बाद जेएमएम और लेफ्ट आपस में बांट लें. गठबंधन में पूर्व मुख्यमंत्री बाबूलाल मरांडी की पार्टी JVM को भी शामिल करने की कोशिश रही, लेकिन वो सीटों पर समझौता करने को राजी नहीं हुए. मरांडी का ही रास्ता सीपीआई ने भी अख्तियार कर लिया है.
महागठबंधन में सीटों के मामले में कुर्बानी देने से इंकार करते हुए बाबूलाल मरांडी ने झारखंड की सभी 81 सीटों पर अकेले मैदान में उतरने की घोषणा कर दी है. बिलकुल वैसे ही सीपीआई ने भी 16 सीटों पर अकेले चुनाव लड़ने की घोषणा कर दी है.
बाबूलाल मरांडी ने कम सीटों का बहाना जरूर लिया है लेकिन हकीकत कुछ और है. माना जा रहा है कि हेमंत सोरेन के नेतृत्व के मुद्दे पर ही मरांडी की पार्टी जेवीएम ने अलग हो जाने का फैसला किया. 2019 के लोकसभा चुनाव में जो महागठबंधन बना था उसमें कांग्रेस के साथ जेएमएम, जेवीएम और आरजेडी भी शामिल थे.
झारखंड में पहली सरकार बीजेपी की बनी थी और बाबूलाल मरांडी मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बैठे. तब बीजेपी ने जेडीयू की मदद से से ही बन पायी थी. जेएमएम की शिबू सोरेन सरकार को भी सपोर्ट कर चुकी नीतीश कुमार की जेडीयू इस बार मरांडी की तरह ही अपना जनाधार मजबूत करने अकेले मैदान में उतरने के फिराक में है.
हाल ही में जब बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह ने बिहार में नीतीश कुमार को 2020 विधानसभा चुनाव के लिए एनडीए का नेता बताया तो एक और भी खास बात कही थी. बिहार में नीतीश कुमार की ही तरह देशभर में एनडीए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में चुनाव लड़ेगा - और गठबंधन के पार्टनर सहयोगी की भूमिका में रहेंगे.
अभी तक नीतीश कुमार की ओर से ऐसा कोई संकेत नहीं मिला है कि वो अमित शाह की इन बातों को तवज्जो देने जा रहे हैं. महाराष्ट्र में शिवसेना के तेवर को देखते हुए हो सकता है नीतीश कुमार भी मन ही मन कुछ और तैयारी कर रहे हों. बाद में जो भी हो. ये भी हो सकता है कि गठबंधन के बिखराव का बीजेपी फायदा भी उठा ले - लेकिन अभी तो बीजेपी और कांग्रेस दोनों के सामने गठबंधन के मामले में पेंच फंसा ही हुआ है.
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