Jharkhand election results में BJP का 'बाहरी' CM वाला प्रयोग फेल
झारखंड (Jharkhand Assembly Election Results 2019) में भी अब बीजेपी (BJP) का वो एक्सपेरिमेंट (BJP Experiment) फेल हो गया है जिसने हरियाणा और महाराष्ट्र में झटका दिया. झारखंड में रघुवर दास (Raghubar Das Non Adivasi CM) की सफलता में उनका गैर-आदिवासी होना भी बाधक बना है.
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झारखंड विधानसभा चुनाव (Jharkhand Assembly Election Results 2019) में भी बीजेपी (BJP) को वैसा ही झटका लगा है जैसा हरियाणा और महाराष्ट्र में कुछ दिनों पहले लगा था - और इसकी बड़ी वजह तीनों ही राज्यों में पार्टी का एक खास तरह का एक्सपेरिमेंट रहा है. झारखंड, महाराष्ट्र और हरियाणा तीनों ही राज्यों में बीजेपी का ये प्रयोग पूरे पांच साल सत्ता पर काबिज रहने के बावजूद फेल हो चुका है. 2014 में बीजेपी नेतृत्व की तरफ से चुने गये तीनों ही मुख्यमंत्री एक विशेष कैटेगरी में फिट होते हैं जो तीनों ही राज्यों की मूल प्रवृत्ति के खिलाफ जाता है.
झारखंड में रघुवर दास (Raghubar Das Non Adivasi CM) को दोबारा सफलता न मिल पाने के तमाम कारणों में से एक उनका गैर-आदिवासी होना भी लगता है.
BJP का 'बाहरी' CM वाला प्रयोग फेल रहा
बीजेपी नेतृत्व ने 2014 में केंद्र की सत्ता संभालने के बाद महाराष्ट्र, हरियाणा और झारखंड में एक खास तरह के प्रयोग किये थे. बीजेपी ने मुख्यमंत्री उस समुदाय से नहीं बनाने का फैसला लिया जिसका सूबे में आबादी के हिसाब से स्वाभाविक दबदबा रहा हो.
झारखंड में आदिवासियों का दबदबा रहा है और वहां की 28 सीटें उनके लिए रिजर्व हैं. सुरक्षित सीटों के अलावा भी आदिवासी नेताओं का दूसरे क्षेत्रों में भी प्रभाव है. इस बार भी लड़ाई गैर-आदिवासी रघुवर दास बनाम आदिवासी नेता हेमंत सोरेन हुई है. हेमंत सोरेन राज्य में गुरुजी के नाम से लोकप्रिय और मुख्यमंत्री रह चुके शिबू सोरेन के बेटे हैं. और खुद भी रघवर दास से ठीक पहले करीब डेढ़ साल झारखंड के मुख्यमंत्री रह चुके हैं.
झारखंड में भी बीजेपी को भारी पड़ा स्थानीय कद्दावर नेताओं को नजरअंदाज करना
2014 में झारखंड में बीजेपी ने गैर-आदिवासी नेता रघुवर दास को मुख्यमंत्री बनाया था, जबकि वहां आदिवासी वोटों का दबदबा रहा है. महाराष्ट्र में भी बीजेपी ने एक गैर-मराठा ब्राह्मण देवेंद्र फणडवीस को CM बनाया और ठीक उसी तरीके से हरियाणा में गैर-जाट नेता मनोहर लाल खट्टर को कुर्सी पर बिठाया. खट्टर पंजाबी कम्युनिटी से आते हैं.
ऐसा लगता है स्थानीय स्तर पर झारखंड में इस बार लड़ाई को आदिवासी बनाम गैर-आदिवासी मुख्यमंत्री बनाने की कोशिश की गयी - और उसमें बीजेपी चूक गयी. ऐसा नहीं कि बीजेपी के पास कोई आदिवासी नेता नहीं है, लेकिन पार्टी की अंदरूनी झगड़े के कारण एक मजबूत आदिवासी नेता को केंद्रीय मंत्रिमंडल में शामिल कर रांची से दिल्ली शिफ्ट कर दिया गया है.
अंदरूनी लड़ाई ने भी आग में घी का काम किया
झारखंड में लड़ाई रघुवर दास बनाम हेमंत सोरेन तो प्रत्यक्ष तौर पर देखने को मिली, परोक्ष रूप से रघुवर दास बनाम अर्जुन मुंडा भी लड़ाई भीतर ही भीतर चलती रही. बीजेपी को अर्जुन मुंडा से जो फायदा मिल सकता था वो बिलकुल नहीं मिला. ऐसा होने की वजह भी कोई मामूली नहीं रही है.
दरअसल, अर्जुन मुंडा को पक्का यकीन रहा कि 2014 के विधानसभा चुनाव में उनकी हार की वजह भी पार्टी के भीतर के ही उनके राजनीतिक विरोधी रहे - और सबसे बड़े विरोधी तो मुख्यमंत्री बने रघुवर दास ही होंगे, ये तो वो मानते ही होंगे.
ताजा चुनाव में रघुवर दास को बीजेपी के ही बागी नेता सरयू राय के विरोध को ही फेस करना पड़ा है. विरोध भी ऐसा तगड़ा कि वो जमशेदपुर में रघुवर दास के खिलाफ निर्दलीय उम्मीदवार के तौर पर चुनाव मैदान में उतर गये. सरयू राय की छवि को लेकर भी चर्चा ये रही कि रघुवर दास सरकार पर भ्रष्टाचार के आरोप लगाने के चलते ही बीजेपी ने उनका टिकट तक काट दिया. ऐसे में बीजेपी पर भ्रष्टाचार के गंभीर आरोपों को नजरअंदाज करने का भी इल्जाम लगा.
सरयू राय का भी ट्रैक रिकॉर्ड कोई मामूली नहीं है. माना जाता है कि बिहार और झारखंड के दो पूर्व मुख्यमंत्रियों को भ्रष्टाचार के मामलों में सलाखों तक पहुंचाने में उनकी बड़ी भूमिका रही है. ये दोनों नेता हैं लालू प्रसाद और मधु कोड़ा.
झारखंड के पैमाने से ही महाराष्ट्र को देखें तो देवेंद्र फडणवीस को स्थानीय मराठा नेताओं को नजरअंदाज कर तरजीह दी गयी. तब वो बीजेपी के प्रदेश अध्यक्ष थे और उनमें नेतृत्व निश्चित तौर पर विशेष प्रतिभा दिखी होगी. वैसे भी मराठा समुदाय का मसला सुलझाते वो कई बार सफल नजर आये थे - लेकिन दूसरी तरफ क्या हो रहा था उस पर किसी ने ध्यान नहीं दिया.
फडणवीस के खिलाफ, चंद्रकांत पाटिल जैसे नेता ही नहीं बल्कि पंकजा मुंडे और उनके साथ आये विनोद तावड़े और एकनाथ खड़से जैसे बड़े जनाधार वाले ओबीसी नेता नाराज हुए. जिस वक्त फडणवीस को मुख्यमंत्री बनाया गया तब भी और उसके बाद भी चंद्रकांत पाटिल भी मजबूत दावेदार थे - चुनावों में इसका असर तो हुआ ही होगा.
आखिर पंकजा मुंडे और एकनाथ खड़से का आरोप भी तो यही है कि बीजेपी के ही लोगों ने उन्हें हराने के इंतजाम किये थे. इसी बात को मुद्दा बनाकर वो अब भी देवेंद्र फडणवीस के खिलाफ विरोध की आवाज तेज किये हुए हैं.
हरियाणा के हालात झारखंड और महाराष्ट्र से थोड़े अलग जरूर लगते हैं, लेकिन मसला वही है. जिस तरह झारखंड में रघुवर दास से इतर अर्जुन मुंडा और महाराष्ट्र में देवेंद्र फणडवीस के बराबर चंद्रकांत पाटिल और पंकजा मुंडे जैसे नेता रहे हैं - हरियाणा में बीजेपी के पास मजबूत जाट नेता का अभाव रहा है. हरियाणा में तो जाट वोटर के बीच पैठ बढ़ाने में दुष्यंत चौटाला ज्यादा कारगर भले न हों लेकिन बीजेपी चाहे तो मौका देख कर नये नेता खड़ा तो कर ही सकती है. मनोहर लाल खट्टर बीजेपी नेतृत्व के वरदहस्त के कारण अभी तक टिके हुए हैं, लेकिन जैसे ही कोई स्थानीय चैलेंज सामने आया उनके घुटने टेकते देर नहीं लगेगी.
अब तो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह को भी लग रहा होगा कि स्थानीय नेताओं की अहमियत क्या होती है? स्थानीय नेताओं के ऊपर बाहरी नेताओं को थोपने की प्रैक्टिस इंदिरा गांधी के जमाने में सबसे ज्यादा रही - और बीजेपी भी मोदी लहर के बूते ऐसे प्रयोग करती आ रही है. लगता नहीं कि अब ये ज्यादा चल पाएगा. खासकर झारखंड चुनाव के नतीजे देखने के बाद.
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