JNU protest: फीस वृद्धि के नाम पर बवाल काट रहे स्टूडेंट्स क्यों भर्त्सना के पात्र हैं
जेएनयू (JNU) में जो चल रहा है उसे अगर गांधी जी के शब्दों में कहा जाए तो जो अपनी रोटी ख़ुद नहीं कमाता, वह समाज का चोर होता है. वहीं जो चोरी पर भी सीनाज़ोरी करे, उसका क्या? विरोध और अधिकारों के नाम पर जेएनयू के उद्दंड छात्र ऐसा बहुत कुछ कर रही है जिसकी जितनी भर्त्सना की जाए उतनी कम है.
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जेएनयू के छात्र-आंदोलन (JNU Student Protest) के परिप्रेक्ष्य में नैतिक महत्व का एक प्रश्न मेरे मन में आया, जिसे सबके सामने रखता हूं- "जो किसी और का दायित्व है, क्या वह आपका अधिकार हो सकता है?" दूसरे शब्दों में, जब कोई व्यक्ति या संस्था किसी कार्य को नीति, नियम या उत्तरदायित्व की भावना के वशीभूत होकर करता है, जिससे आपको लाभ होता हो, तब आप क्या उसे उस तरह से अपना अधिकार मान सकते हैं, कि उसके लिए उग्र होकर मांग करने लगें? यों तो ये बात जेएनयू (JNU Protest) और शासन तंत्र के बीच जारी संघर्ष के परिप्रेक्ष्य में है, किंतु इसे हम अपने जीवन में भी देख सकते हैं, जहां हम अनेक कारणों से विवश होकर अपने दायित्वों का निर्वहन करते हैं. तब किसी के द्वारा उसी की आपसे उद्दंड और आक्रामक होकर मांग करना क्या अनैतिक नहीं कहलाएगा? विवाह-संस्था में वैसे दायित्व और वैसी मांगें बहुत होते हैं. ख़ैर.
जेएनयू (JNU) में विगत 19 वर्षों से फ़ी-स्ट्रक्चर पर पुनर्विचार नहीं किया गया था. इन वर्षों में दुनिया कहां से कहां चली गई. शुल्क-ढांचे का पुनरीक्षण करके उसे बढ़ाया गया. अभी तक वहां बिजली, सफ़ाई और रखरखाव सुविधाओं का कोई भी पैसा नहीं लिया जाता था, अब इसके 1700 रुपए लिए जा रहे हैं. आश्चर्य की बात है कि ये छात्र अभी तक बिजली, सफ़ाई, रखरखाव का एक भी पैसा नहीं चुका रहे थे. किंतु ये चीज़ें नि:शुल्क तो नहीं आतीं, इनका व्यय तो होता ही था, कोई न कोई तो उसका बिल भुगतता ही होगा. प्रश्न उठता है, कौन? जेएनयू प्रांगण में कमरे का किराया अभी तक 20 रुपया प्रतिमाह था, जो अब 600 रुपया प्रतिमाह हो गया. दो लोग इस कमरे को साझा करें तो 10 रुपया प्रतिमाह. अब ये बढ़कर 300 रुपया प्रतिमाह हो गया.
जब मैं यह सुनता हूं कि जेएनयू के छात्र 10 रुपया प्रतिमाह में दिल्ली जैसे नगर के उस सुरम्य प्रांगण में रह रहे थे और इसे बढ़ाकर 300 रुपया कर दिए जाने पर उग्र आंदोलन कर रहे हैं, तो मैं सोचने लगता हूं कि 10 रुपए में कमरा दिया जाना शासन-तंत्र की अनुकम्पा थी या उसकी विवशता थी? दूसरी तरफ़ उस सुविधा का उपभोग करना छात्रों का अधिकार था या उनका सौभाग्य था?
अपने प्रदर्शन के दौरान जेएनयू के स्टूडेंट्स ने बेशर्मी की सारी सीमाएं लाघ दी हैं
जेएनयू छात्र कहते हैं कि वे अपने "अधिकारों" के लिए संघर्ष कर रहे हैं. जब मैं यह शब्द सुनता हूं तो सोच में पड़ जाता हूं. अधिकार यानी क्या? अधिकार से हम क्या समझते हैं? यह एक बहुत महत्वपूर्ण प्रश्न है, जो जेएनयू के उद्दंडों को ही नहीं, हम सभी को स्वयं से जीवन में निरंतर पूछना चाहिए. दो तरह के अधिकार होते हैं- एक वे, जिनको हम अर्जित करते हैं.दूसरे वे, जो हमें प्रदान किए जाते हैं.
जो अधिकार हम अर्जित करते हैं, उन्हें पाकर हमें संतोष होता है. और जो अधिकार हमें किसी और के द्वारा प्रदान किए जाते हैं, उन्हें पाकर हममें अनुग्रह होता है. तब, अगर ये दिया जाने वाला अधिकार बाधित हो जाए, तो हमें क्या करना चाहिए? विनय से उसके लिए याचना करनी चाहिए या उद्दंडता से उसकी मांग करनी चाहिए?
अब हम इस लेख के आरम्भ में रखे गए प्रश्न को समझने की बेहतर स्थिति में हैं- "जो किसी और का दायित्व है, क्या वह आपका अधिकार हो सकता है?"
लोककल्याण सरकार का दायित्व है, यह तो निश्चित है. रियायती दर पर शिक्षा उपलब्ध कराना सरकार का फ़र्ज़ है. केवल शिक्षा ही नहीं, स्वास्थ्य और आहार भी रियायती दरों पर उपलब्ध करना एक वेलफ़ेयर स्टेट का मानदण्ड है. वैसी रियायत केवल जेएनयू को ही क्यों मिले, भारत-देश के दूसरे केंद्रीय विश्वविद्यालयों को क्यों नहीं मिले, वह भी एक प्रश्न है. किंतु शिक्षा, स्वास्थ्य, आहार पर होने वाले इस व्यय का भुगतान सरकार कहां से करेगी? निश्चय ही, सरकार बहुत सारी फ़िज़ूलख़र्चियां करती है, उनमें वह कटौती करेगी और देश के सक्षम नागरिक निष्ठापूर्वक कर चुकाएंगे, उससे यह सम्भव हो सकेगा. दूसरे शब्दों में राष्ट्र एक मिली-जुली ज़िम्मेदारी का नाम है.
अपने प्रदर्शन के दौरान दिल्ली पुलिस से उलझते जेएनयू के छात्र
किंतु अगर सरकार अपने दायित्वों का पालन करती है, तो क्या उतने भर से वो हमारे अधिकार भी बन जाते हैं? संविधान में जो लिख दिया गया, क्या उतने भर से कुछ हमारा बुनियादी हक़ हो जाता है? मैं तो ऐसा नहीं मानता. नीति की बात तो यही है कि अधिकार को हम अर्जित करते हैं और जो हमें दिया जाता है, उसे अनुग्रहपूर्वक स्वीकार करते हैं.
अनुकम्पा और अनुदान मांगने का एक तरीक़ा होता है. किसी नीति या कार्यक्रम के वशीभूत होकर यदि कोई सरकार आपको रियायत देती हो तो हमें इसके प्रति मन में धन्यता का भाव रखना चाहिए. इसी भारत-देश में करोड़ों ऐसे हैं, जो इस लाभ से वंचित हैं और उत्तम शिक्षा-स्वास्थ्य के लिए तरस रहे हैं. किंतु जब हम उस रियायत को अपना जन्मसिद्ध हक मानकर आक्रामक और उग्र प्रतिरोध करते हैं, सार्वजनिक सम्पत्तियों को क्षति पहुंचाते हैं और एक नकारात्मक दुर्भावना का परिचय राज्यतंत्र के प्रति देते हैं तो क्या इससे राज्यतंत्र को लोककल्याण की प्रेरणा मिलती है या वह इससे विमुख ही होता है?
गांधीजी सत्याग्रह करते थे, अहिंसक आंदोलन चलाते थे और उसके बावजूद अपने लोगों को बोलते थे कि जेल जाने को तैयार रहो. क्योंकि उनकी यह दृष्टि थी कि आंदोलन करना हमारा अधिकार है और क़ानून-व्यवस्था बनाए रखने के लिए हमें बंदी बनाना सत्ता पक्ष का अधिकार है, इसमें अंत में जो अधिक नीतिपूर्वक आचरण करेगा, उसी की विजय होगी. इस तरह से गांधीजी का सत्याग्रह दोनों पक्षों का आत्मिक परीक्षण और उन्नयन करता था. जनेवि के छात्र जो कर रहे हैं, उसे तो अराजकता की ही संज्ञा दी जा सकती है.
भारतीय परम्परा तो यही कहती है कि जब आप कुछ मांगें तो आपकी आंख नीचे रहनी चाहिए. और जब आप किसी को कुछ दें तो मन में अभिमान नहीं होना चाहिए. "देनदार कोउ और है" की भावना सरकार में रहे और "नीचे नैन" लाभार्थियों के रहें, तो ही सुराज होगा. जब जेएनयू के छात्र कहते हैं कि हम बिजली-सफ़ाई का 1700 रुपया और कमरे का 300 रुपया नहीं दे सकते, तो उन्हें इसके साथ ही अपने आय-व्यय का ब्योरा भी सरकार के सामने रखना चाहिए कि उनकी आमदनी के स्रोत क्या हैं, वे महीने में कितना अर्जित करते हैं, कितना ख़र्च करते हैं.
उसी से उनकी यह दुर्दशा प्रमाणित होगी कि वो तो बेचारे इतने निर्धन और दुखियारे हैं कि यह पैसा नहीं दे सकते. दूसरे शब्दों में, सरकार की मेहरबानी के वो तलबगार हैं. किंतु तलबगार कबसे ऊंची आवाज़ में मांग करने लगा? इसके बाद, इस पर विचार किया जावै कि क्या जनेवि के ये नौजवान इतने लाचार भी हैं कि परिश्रम से कमाई करके अपना ख़र्चा नहीं निकाल सकते? क्योंकि भारत-देश में तो नौजवान और बुज़ुर्ग ही क्या, महिला और बच्चे भी रोटी कमाने के लिए घर से निकलते हैं.
मैं स्वयं बारह वर्ष की अवस्था से काम करके अपनी आजीविका कमा रहा हूं. फिर सरकार अगर किसी से बिजली-सफ़ाई का शुल्क मांगती है तो क्या अन्याय करती है? तब जो भारतवर्ष के नागरिक बिजली, पानी, आय का शुल्क और कर चुकाते हैं, वो क्या मूर्ख हैं? या वो धन्नासेठ हैं? क्या दिल्ली जैसे नगर में एक कमरे का एक माह का 300 रुपया मांगना अन्याय है? अगर सरकार कल को जेएनयू प्रांगण ख़ाली कराने का आदेश दे दे तो ये छात्र क्या इतनी दर में दिल्ली में अन्यत्र कहीं कमरा प्राप्त कर सकते हैं?
इन सभी प्रश्नों का सम्बंध सार्वजनिक नैतिकता से है. जब मैं जनेवि के छात्रों का आचरण देखता हूं तो उसमें तो मुझे कहीं भी विनय, नीति, शील, चरित्र दिखलाई नहीं देता, केवल उद्दंडता ही दिखती है. इनकी देहभाषा से नकारात्मकता की गंध आती है. ये चेतना के स्तर पर बड़े ही विपन्न मालूम होते हैं. एनटाइटलमेंट का भाव भारत-देश को डॉ. आम्बेडकर की देन है, जो सिविल राइट्स की पश्चिमी शब्दावली में सोचते थे. किंतु नागरिक अधिकार शासन और प्रजा के परस्पर सम्बंधों का विषय है, वे नैतिक अधिकार नहीं हैं, जन्मसिद्ध अधिकार नहीं हैं.
नैतिक अधिकार तो हम निष्ठा से ही अर्जित करते हैं. और जन्मसिद्ध अधिकार तो इस संसार में एक भी नहीं है, क्योंकि हमने वैसा कुछ पुरुषार्थ नहीं किया कि इस धरती पर अन्न के एक दाने पर भी अधिकार जता सकें. गांधी जी कहते थे, जो अपनी रोटी ख़ुद नहीं कमाता, वह समाज का चोर होता है. तब चोरी पर भी जो सीनाज़ोरी करे, वो क्या है, इसका निर्धारण तो लोक-समाज स्वयं ही अपने विवेक से कर सकता है, थोथी नारेबाज़ी का शोर उसे कभी प्रभावित नहीं करेगा, वैसा मुझे विश्वास है. जेएनयू के उद्दंड भर्त्सना के पात्र हैं.
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