वामपंथ का ब्लैक एंड व्हाइट
एक सवाल यहां खड़ा होता है जो सीधे सीधे भारत के एक वर्ग के मिजाज को असमंजस के कठघरे में खड़ा करता है और वो सवाल करोड़ों लोगों का भी हो सकता है कि आखिर देश इतनी जल्दबाजी में क्यों है जो अपरिपक्वता को भी आसानी से स्वीकार करने के लिए आतुर है.
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'कितनी आसानी से मशहूर किया है खुद को, मैंने अपने से बड़े शख्स को गाली दी'
एक छात्र जिसने अभी यूनीवर्सिटी से बाहर कदम भी नहीं रखा है, एक छात्र जिसने हर जाति, धर्म और वर्ग के लोगों के साथ पढ़ाई की है, एक छात्र जिसने अभी हिंदुस्तान को सिर्फ किताबों में पढ़ा है वो छात्र देश के प्रधानमंत्री का कॉलर पकड़कर सवाल करना चाहता है, वो छात्र जातिवाद से त्रस्त है और वो छात्र देश की सेना पर बलात्कारी होने का आरोप मढ़ रहा है. फिर भी वो आजाद है देश भर की मीडिया के सामने मुट्ठी तानने के लिए, वो आजाद है खुले आम प्रेस कॉफ्रेंस करने के लिए, वो आजाद है देश के टुकड़े करने वालों की मंशा के साथ खड़ा होने के लिए. शायद यही लोकतंत्र है और शायद यही इस लोकतंत्र की खूबसूरती. लोग तालियां बजा रहे हैं, कन्हैया में नेता तुम्हीं हो कल के देख रहे हैं.
लेकिन एक सवाल यहां खड़ा होता है जो सीधे सीधे भारत के एक वर्ग के मिजाज को असमंजस के कठघरे में खड़ा करता है और वो सवाल करोड़ों लोगों का भी हो सकता है कि आखिर देश इतनी जल्दबाजी में क्यों है जो अपरिपक्वता को भी आसानी से स्वीकार करने के लिए आतुर है. जेल से छूटने के बाद कन्हैया ने कहा कि पूर्व आरएसएस प्रमुख गोलवलकर की मुलाकात मुसोलिनी से हुई थी. जबकि सच्चाई ये है कि मार्च 1931 में गोलवलकर नहीं डॉ बी एस मुंजे थे जो मुसोलिनी से मिले थे इस में गलती कन्हैया की नहीं है दूसरी गोल मेज कांफ्रेस से लौटते वक्त मुंजे ने यूरोप का रुख किया था और वो वहां कुछ दिन इटली में रुके. इसके बाद मुंजे ने कई मिलिट्री स्कूल और उनकी शिक्षा प्रणाली को समझा और अध्ययन किया. जिसके बाद भारत में भी उन्होंने सन् 1939 मिलेट्री स्कूल की नींव रखी. मुंजे ने जीवन भर अछूतों, दलित और अनाथों के लिए कई शिक्षण संस्थान खोले. यहां ये ध्यान रखना जरूरी है कि उस वक्त ना तो द्वितीय विश्य युद्ध की कोई सुगबुगाहट थी और ना ही मुसोलिनी कोई खलनायक नहीं था. यहां सवाल ये है कि इसी तरह ही तो सुभाष चंद्र बोस खुद हिटलर से मिले थे वो भी दूसरे विश्व युद्ध से कुछ पहले.
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अब बात करते हैं न्यायिक हत्या की जैसा कि कन्हैया ने अपने तथाकथित आजादी वाले भाषण में कहा कि मकबूल भट्ट और अफजल गुरू को सजा नहीं मिली थी बल्कि उनकी न्यायिक हत्या हुई थी. अब एक सवाल क्या कन्हैया या और कोई कम्युनिस्ट नेता रवींद्र म्हात्रे को जानता है? अगर यही बात यूं ही किसी कम्युनिस्ट नेता से पूछें, तो शायद ही कोई बता पाएगा. सरकारी फाइलों में रवींद्र म्हात्रे के नाम पर एक पुल है और एक मैदान. इसके उलट अफजल गुरु या मकबूल बट के बारे में पूछें, तो बताने वालों की संख्या एकदम उल्टी हो जाएगी. यानी एकाध लोगों को छोड़कर सभी लोग बता देंगें कि दोनों कौन थे.
रवींद्र म्हात्रे ब्रिटेन में भारतीय राजनयिक थे, 3 फरवरी 1984, जम्मू-कश्मीर लिबरेशन फ्रंट के सहयोगी संगठन जम्मू-कश्मीर लिबरेशन आर्मी के आतंकवादियों ने बर्मिंघम में उन्हें अपहृत कर लिया. आतंकवादियों ने उसी दिन शाम 7 बजे तक भारत के सामने जेल में बंद मकबूल भट को छोड़ने और दस लाख ब्रिटिश पाउंड की मांग रखी. छह फरवरी को आतंकियों ने म्हात्रे का कत्ल कर दिया. म्हात्रे के सिर में दो गोली मारी गई थी. म्हात्रे की हत्या के बाद 11 फरवरी 1984 को मकबूल बट को तिहाड़ जेल में फांसी पर लटका दिया गया और उसके शव को जेल में ही दफना दिया गया. 4 नवंबर 1989 नीलकंठ गंजू जिन्होंने अमर चाँद हत्या के मामले में मकबूल को सजा सुनाई थी. उनकी जे.के.ल.फ के आतंकवादियों ने सरेआम गोली मार कर हत्या कर दी. तब किसी कम्युनिस्ट नेता ने नीलकंठ गंजू, रवींद्र म्हात्रे के हत्या पर हो-हल्ला नहीं किया, क्योंकि मरने वाले किसी का वोट बैंक नहीं थे. ध्यान रहे ये दोनों वही हैं जिनके लिए पूरा विपक्ष और कम्युनिस्ट दल देश की ईंट से ईंट बजाने की कोशिश कर रहे हैं. कांग्रेस की भूमिका तो खैर हास्यास्पद है जिसमें सत्ता खोने की खीझ ज्यादा नजर आती है.
जेएनयू में जो कुछ भी हो रहा उसमें कुछ नया नहीं है और न ये पहली बार हो रहा है. दरअसल जेएनयू में जो भी सतही तौर पर दिख रहा है, संकट वो नहीं है. मुसीबत ये है कि जेएनयू ने जो प्रतिष्ठा हासिल की, वहां उसके मंच पर ये सब हो रहा है. परिसर में ऐसी घटनाएं होती रही हैं जो देश की अखंडता पर सवाल उठाती हैं. ऐसी घटनाएं कम्युनिस्टों की उस सोच का आईना हैं जो अब तक ये तय नहीं कर पाए हैं कि उनकी लड़ाई भारतीय राज्यव्यवस्था से है या भारतीयता से है.
इतिहास के पन्नों को जरा उलट के देखा जाए तो कोई भी समझ जायेगा इस लड़ाई का रूख क्या है और गलती कहां है. मसलन 1962 का भारत चीन युद्ध, कम्युनिस्ट का झुकाव चीन की तरफ था. साम्यवादी ये तय नहीं कर पा रहे थे कि किस ने किस पर हमला किया. इसके लिए 32 लोगों की कमेटी का गठन किया गया, जिसमें उस वक्त के दिग्गज कम्युनिस्ट नेता ई.एम.एस नंबूदरीपाद, हरकिशन सिंह सुरजीत, ज्योति बसु शामिल थे. बाद में उस कमेटी ने ये फैसला दिया कि ये चीनी आक्रमण नहीं बल्कि भारत का हमला है चीन पर. आज़ादी के बाद ये पहली बार था जब कम्युनिस्ट भारतीय जनभावना के उलट जा कर पार्टी के फैसले ले रहे थे. 1962 में चीन का समर्थन करने के पीछे कम्युनिस्ट पार्टी ने ये माना कि चीन का आक्रमण, एक कम्युनिस्ट राज्य का एक कैपिटलिस्ट राजव्यवस्था पर हमला है और अंततोगत्वा फायदा इनकी विचारधारा का ही है. इनका मानना था कि लाल क्रांति तब और ज्यादा आसानी से संभव है जब चीन पूर्णत भारत पर विजय हासिल कर ले.
इमरजेंसी में जब सारा विपक्ष एकजुट था और सरकार के तानाशाही का मुकाबला कर रहा था तब भी इन्होंने भारतीय जनभावना के साथ न जा कर सरकार का साथ दिया. उनको लगा कि इस बार क्रांति की धारा नीचे से न फूट कर इसकी शुरुआत सत्ता के केंद्र से हुई है. इस वजह से कम्युनिस्टों ने फिर एक बार गलत का साथ दिया. और अपनी क्रांति, विचारधारा को भारतीय जनभावना से और दूर ले गए.
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अगर सिर्फ जेएनयू की बात करें, तो नक्सलियों के लिए इनका प्रेम जगजाहिर है. राष्ट्रविरोध से जुड़ा सबसे बड़ा वाक्या जो जहन में आता है साल 2010 का दंतेवाड़ा का है. जहां कुछ नक्सलियों ने कायरों की तरह छुप के पुलिस गश्ती दल पर हमला कर के 76 जवानों को मार दिया. उसकी प्रतिक्रिया यहां दिल्ली में बैठे माओ और मार्क्स के चेलों ने जेएनयू में जश्न मना कर दिया, खैर ये मामला तब भी कुछ अखबारों ने छापा मगर तब भी यूपीए सरकार चेती नहीं. दरअसल कम्युनिस्टों की दिक्कत ही यही है वो अपने शुरुआती दौर से लेकर अभी तक अपने पूरे आंदोलन या विरोध का भारतीयकरण करने में कामयाब नहीं हो सके. जैसा की चीन में हुआ और सफल भी रहा.
एक देश में कई धर्म और पंथ हो सकते है या होते हैं. यही धर्म और पंथ जब समग्र रूप में मिल जाते हैं या देखे जाते हैं तब उस देश की संस्कृति और सभ्यता का निर्माण होता है. मगर एक आँख से सोवियत और दूसरे से चीन को देखने में भारत और भारतीयता कही पीछे छूट गई. धर्म और संस्कृति में क्या भेद है ये न समझ पाना भी एक वजह है जिस से इनका संघर्ष कुछ लोगों में सिमट कर रह गया. इन्होंने धर्म को तो नकारा ही भारतीय संस्कृति का भी कई मायनों में विरोध किया. कम्युनिस्टों में संघर्ष और संगठन की गजब की काबिलियत है. लेकिन भारतीय साम्यवाद के तो मायने ही अलग हैं जो हमेशा सत्ता पक्ष के साथ खड़ा है.
अजीब सी बात है इन कम्युनिस्टों को अफजल गुरु, मकबूल बट, इशरतजहां की मासूमियत दिखती है मगर उन 76 जवानों का परिवार नहीं दिखता जो नक्सलियों से लड़ते हुए शहीद हो गए. उनके बच्चों के आंसू भी इन्हें नहीं दिखते. इन्हें कश्मीर, फिलिस्तीन दिखता है मगर कश्मीरी पंडितों का दर्द नहीं दिखता, तिब्बत, बलूचिस्तान नहीं दिखता. कन्हैया और कुछ कॉमरेड प्रोफेसर लगतार कश्मीर, गाजा और न जाने क्या क्या की आजादी की मांग करते रहे है. मगर जो बात वामपंथी बुद्धिजीवी भूल जाते हैं या जानबूझकर आंखें मूंदे रहते हैं वो ये है कि कम्युनिस्ट चीन का जबरन कब्जा तिब्बत है. ये अफजल गुरु के फांसी को गलत साबित करने के लिए दुनिया भर की दलीलें देंगे, कोर्ट के फैसले तक को अपनी वैचारिक अदालत में गलत, दोष, भावभेद वाला फैसला बता देंगे, मगर इनके तर्क भी इनकी सोच की तरह एक आयामी हैं. अफज़ल को बेगुनाह बताते वक़्त, अदालत पर सवाल उठाते वक्त ये भूल जाते हैं कि जिस कोर्ट ने अफजल को सजा दी उसी कोर्ट ने एस.ए.आर गिलानी को दोष मुक्त करते हुए बाइज्जत बरी किया तब किसी ने इस फैसले पर सवाल नहीं किया.
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इनका दोहरा चेहरा दलितों के मामले भी नजर आता है. दलितों की आवाज होने का दावा सीपीआई (एम) तब से कर रही है जिस दिन से ये पार्टी बनी है. अभी हाल में रोहित के मामले पर कितना हो हल्ला किया गया मगर ये बात किसी ने न सोची न ही पूछी कि जिन दलितों की बहुत बड़ी संख्या इनकी पार्टी में है. क्या उस में से एक भी ऐसा कार्यकर्ता नहीं है जिसको ये अपने पोलित ब्यूरो या सेंट्रल कमेटी में ले सकें. पार्टी बनने के बाद से आज तक कोई भी दलित इनकी मुख्य समिति में नहीं रहा है न ही पोलित ब्यूरो में न सेंट्रल कमेटी में. ये कैसी आवाज है दलितों की जिसके विलाप में रुदन तो बहुत है मगर दर्द नहीं है. जो समस्या तो जानता है मगर उसका हल देना नहीं चाहता.
दरअसल कारण साफ है कि देश में वामपंथियों को अपना आखिरी किला भी ध्वस्त होता हुआ दिख रहा है. राजनीति में इनकी निरर्थकता लगभग जगजाहिर है और अकादमिक संस्थानों में जो रही-सही उपस्थिति है वह भी खात्मे की ओर है. ऐसे में यह अशांति और आक्रोश असल में कुंठा है और कन्हैया जैसे लोगों में इन्हें रोशनी की आखिरी चिंगारी दिखती है. जबकि इतिहास ने बार बार साबित किया है कि कन्हैया जैसे लोग सिर्फ मोहरे होते हैं स्थापित पार्टिंयों के लिए. जो पहले भी आते थे, आगे भी आते रहेंगे.
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