जज लोया केस के फैसले में वकीलों के बहाने सुप्रीम कोर्ट के 'विद्रोही' जजों को भी नसीहत है
सुप्रीम कोर्ट ने जज लोया की मौत को प्राकृतिक और PIL को बदनाम करने के मकसद से उठाया कदम माना है. फिर भी याचिकाकर्ता के वकील प्रशांत भूषण अपने सवाल पर कायम हैं.
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सुप्रीम कोर्ट को सुनिश्चित करना था कि CBI के स्पेशल जज बीएच लोया की मौत की जांच SIT से करायी जाये या नहीं? 'बिलकुल नहीं,' सुप्रीम कोर्ट ने सिर्फ इतना ही नहीं कहा, बल्कि - दाखिल याचिका को न्यायपालिका पर सीधा हमला, याचिकाकर्ता का उद्देश्य जजों को बदनाम करना और PIL को आपराधिक अवमानना के बराबर बताया.
प्राकृतिक मौत की जांच का क्या मतलब?
सुनवाई के दौरान सुप्रीम कोर्ट ने माना था कि ये मामला गंभीर है क्योंकि एक जज की मौत हुई है. चीफ जस्टिस ने दोहराया कि पहले ही कह चुके हैं कि मामले को गंभीरता से ले रहे हैं.
जज लोया की मौत की जांच सुप्रीम कोर्ट को नामंजूर
सुनवाई के बाद सुप्रीम कोर्ट ने माना कि जस्टिस लोया की मौत प्राकृतिक थी - और जब मौत प्राकृतिक थी, फिर जांच का सवाल ही कहां पैदा होता है. सुप्रीम कोर्ट की तीन जजों की बेंच ने कहा - 'हम उन न्यायिक अधिकारियों के बयानों पर संदेह नहीं कर सकते, जो जज लोया के साथ थे... राजनीतिक लड़ाई मैदान में की जानी चाहिए, कोर्ट में नहीं.'
मौत पर सवाल, मगर तीन साल बाद!
नागपुर में 30 नवंबर 2014 की रात को लोया की मौत हुई और तीन साल तक किसी ने इस पर उंगली नहीं उठाई. तब लोया एक सहकर्मी की बेटी की शादी में शामिल होने जा रहे थे. तब मौत की वजह दिल का दौरा पड़ना बताया गया था लेकिन नवंबर, 2017 में लोया की बहन ने मौत की परिस्थियों पर शक जाहिर किया. हालांकि, कुछ ही दिन बाद लोया के बेटे ने किसी तरह का शक होने से इंकार कर दिया था.
दरअसल, जज लोया सोहराबुद्दीन शेख फर्जी एनकाउंटर केस की सुनवाई कर रहे थे जिसमें अमित शाह भी आरोपी थे, जो बाद में बरी कर दिये गये. इसे लेकर सोशल एक्टिविस्ट सामाजिक कार्यकर्ता तहसीन पूनावाला, बॉम्बे अधिवक्ता संघ, पत्रकार बंधुराज सम्भाजी लोन, सेंटर फॉर पब्लिक इंटरेस्ट लिटिगेशन और अन्य ने लोया की मौत की स्वतंत्र जांच करने की मांग की थी. सुप्रीम कोर्ट के चार जजों की प्रेस कांफ्रेंस के बाद राहुल गांधी ने जज लोया की मौत की जांच की मांग की थी.
सुप्रीम कोर्ट के फैसले को लेकर याचिकाकर्ता के वकील प्रशांत भूषण का कहना रहा - एक डिस्ट्रिक्ट जज की 'संदिग्ध' मौत की स्वतंत्र जांच की मांग करना 'पॉलिटिकली मोटिवेट' कहां से है?
जज लोया की मौत परिस्थितियों पर रिपोर्ट प्रकाशित करने वाली मैगजीन कारवां के एडीटर ने ट्वीट कर कहा है कि वो अपनी 22 स्टोरी के तथ्यों के साथ खड़े हैं - और आगे भी पत्रकारिता के दायरे में सवाल उठाते रहेंगे.
Will have to wait till one reads the whole judgment on the specifics. But Caravan magazine stands by each of its 22 stories. The stories speak for itself. And we will follow journalistically the qns that continue to puzzle the circumstances of Judge Loya’s death.
— Vinod K. Jose (@vinodjose) April 19, 2018
फैसले का सम्मान करते हुए कुछ सवाल
ये फैसला देश की सबसे बड़ी अदालत का है - अदालत के फैसले पर वैसे भी सवाल खड़े करने की हमारे देश में परंपरा नहीं है, इसलिए इस पर सवालिया निशान लगाने का प्रश्न ही नहीं उठता. भारत में न्यायपालिका को सर्वोच्च स्थान हासिल है जहां न्याय के नैसर्गिक सिद्धांत को सर्वोपरि माना जाता है. ये भारतीय न्याय व्यवस्था की खूबसूरती ही तो है कि अजमल आमिर कसाब और याकूब मेमन जैसे दहशतगर्द से लेकर निर्भया के बलात्कारियों तक को बचाव का पूरा मौका दिया जाता है. जरूरत पड़ने पर अदालत मुफ्त वकील तक का इंतजाम करती है.
जज लोया केस में सुप्रीम कोर्ट ने पाया है कि एसआईटी जांच की मांग के पीछे जजों को बदनाम करने का मकसद है. कोर्ट के पूरे मामले को उछालने के पीछे सिर्फ और सिर्फ राजनीति नजर आयी है.
जज लोया की मौत को सुप्रीम कोर्ट ने प्राकृतिक मौत माना है
कोर्ट ने याचिका खारिज करने का जो आधार दिया है - वो है आखिरी वक्त में लोया के साथ रहे जजों के बयान पर भरोसा. वास्तव में जजों की गवाही पर भरोसा न करने की कोई वजह नहीं होती.
महाराष्ट्र सरकार की ओर से पैरवी करते हुए सीनियर वकील हरीश साल्वे का कहना रहा कि इस मामले में सुप्रीम कोर्ट को निचली अदालत के जजों को सरंक्षण देना चाहिये. ये कोई आम पर्यावरण का मामला नहीं है. ये हत्या का मामला है. निश्चित तौर पर साल्वे की दलील दमदार है - क्या चार जजों से संदिग्ध की तरह पूछताछ की जाएगी? ऐसे में वो लोग क्या सोचेंगे जिनके मामलों का फैसला इन जजों ने किया है?
साल्वे की ही तरह पूर्व अटॉर्नी जनरल मुकुल रोहतगी ने भी तर्क पेश किये थे - ये याचिका न्यायपालिका को स्कैंडलाइज करने के लिए की गई है. सिर्फ इसलिए कि सत्तारूढ पार्टी के अध्यक्ष हैं, आरोप लगाए जा रहे हैं, प्रेस कांफ्रेस की जा रही है.
सारी दलीलों को सुनने के बाद भी मन में एक स्वाभाविक सा सवाल उठता है - 'एक बार सुप्रीम कोर्ट जब कोई फैसला दे देता है फिर उसी के पास रिव्यू पेटिशन क्यों दाखिल की जाती है? आखिर एससी-एसटी एक्ट में तब्दीली के ऑर्डर के खिलाफ सरकार सुप्रीम कोर्ट क्यों गयी? क्यों शाहबानो के मामले में राजीव गांधी की सरकार ने फैसला बदल दिया?
अब एक बार याकूब मेमन की फांसी से पहले की पल पल की गतिविधियों को जरा शिद्दत से याद कीजिए. मन में उठने वाले स्वस्थ विचार और स्वाभाविक सवालों को रोकने की कोशिश मत कीजिए - उन्हें उठने दीजिए. कुछ देर के लिए ही सही.
जब अगले भोर में सजायाफ्ता आतंकी याकूब मेमन की फांसी दी जानी होती है तो उस पर रोक लगाने के लिए आधी रात को अदालत लगा कर सुनवाई क्यों की जाती है?
फांसी की सजा होने पर राष्ट्रपति द्वारा भी माफी ठुकरा दिये जाने पर सुप्रीम कोर्ट सुनवाई के लिए याचिका क्यों स्वीकार करता है?
क्या ऐसा करना फैसला सुनाने वाले सीटिंग जजों की विश्वसनीयता पर भरोसा न करने जैसा नहीं है?
क्या इससे ऐसा नहीं लगता कि जिन जजों ने कोई फैसला सुनाया है उन पर सुनवाई करना शक जताने जैसा है?
ये सारी बातें कोर्ट के फैसले पर टिप्पणी नहीं बल्कि बड़े दायरे में एक सम्माननीय व्यवस्था को समझने की छोटी सी कोशिश भर है.
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