सिंधिया ने कांग्रेस नेतृत्व को भूल सुधार का बड़ा मौका दिया है - और ये आखिरी है!
राहुल गांधी (Rahul Gandhi) भले ही ज्योतिरादित्य सिंधिया (Jyotiraditya Scindia) को दोस्ती की दुहाई देते दिखें, लेकिन 'महाराज' ने भी 'युवराज' को भूल सुधार का बड़ा मौका दिया है - अगर सोनिया गांधी (Sonia Gandhi) ने फिर लापरवाही बरती तो कांग्रेस को उठ कर खड़े का भी मौका मिलने से रहा.
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ज्योतिरादित्य सिंधिया (Jyotiraditya Scindia) की पैमाइश जारी है. मसलन, कोई उनको मध्य प्रदेश के एक इलाकाई नेता मानता है. कोई उनको सिर्फ दिल्ली के मीडिया भर के लिए महत्वपूर्ण नेता बता रहा है. कोई सिंधिया के गुना लोक सभा सीट से चुनाव तक हार जाने की याद दिला रहा है - और ये सब सिर्फ कांग्रेस के भीतर की बात नहीं है.
अगर कांग्रेस के भीतर भी ज्योतिरादित्य सिंधिया के पार्टी छोड़ने को लेकर कोई अफसोस नहीं है, तो बात अलग है. सच तो ये है कि सिंधिया ने सोनिया गांधी (Sonia Gandhi) और राहुल गांधी (Rahul Gandhi) को बहुत बड़ा अलर्ट भेजा है. अलर्ट ये है कि ये आखिरी मौका है. ये तो बस ट्रेलर भर है, पिक्चर पूरी बाकी है. ट्रेलर इस बात का नहीं कि बहुत सारे नेता कांग्रेस छोड़ सकते हैं, बल्कि इस बात के लिए कि कांग्रेस नेतृत्व सचेत नहीं हुआ तो पार्टी उठ कर कभी खड़ा होने के काबिल बचेगी भी नहीं.
कुछ दिन पहले संदीप दीक्षित ने कांग्रेस नेतृत्व को आगाह करने की कोशिश की थी. संदीप दीक्षित ने नाम तो नहीं लिया था, लेकिन ये जरूर कहा था कि कांग्रेस में करीब आधे दर्जन ऐसे नेता हैं जो बेहतरीन नेतृत्व प्रदान कर सकते हैं. ये तो नहीं मालूम कि संदीप दीक्षित की संभावित सूची में सिंधिया का नाम रहा या नहीं, लेकिन ये भी नहीं भूलना चाहिये कि शशि थरूर ने आगे बढ़ कर संदीप दीक्षित का सपोर्ट किया था - साथ में ये भी जोड़ा था कि ये कांग्रेस के भीतर बहुतेरे नेताओं के मन की बात है. सिंधिया का कांग्रेस छोड़ देने का फैसला भी बहुतों के मन की बात हो सकती है. हो सकता है बाकी नेताओं के सामने ऐसा विकल्प न हो या फिर उनकी मुलाकात किसी जफर इस्लाम से न हो पाती हो. या फिर कोई शिवराज सिंह उनसे देर रात मुलाकात के लिए राजी न होता हो.
समय समय पर शशि थरूर के साथ साथ जयराम रमेश, अभिषेक मनु सिंघवी जैसे नेता भी कांग्रेस नेतृत्व को आगाह करते रहे हैं, लेकिन अब तक सोनिया गांधी या राहुल गांधी ने कभी ऐसे नेताओं की बातों को महत्व नहीं दिया है. मध्य प्रदेश में तो जो कुछ भी करना है कमलनाथ को ही करना है या फिर थोड़ा बहुत अपने फायदे के हिसाब से दिग्विजय सिंह कुछ कर सकते हैं. सिंधिया के जाने से कांग्रेस में इतना तो हुआ है कि पार्टी ने दिल्ली और कर्नाटक के मामले में फैसला ले लिया है - दोनों राज्यों में नये कांग्रेस अध्यक्ष नियुक्त हो चुके हैं.
दोस्ती को दूसरे पहलू से भी देखें राहुल गांधी
कांग्रेस के दूसरे नेताओं की कौन कहे, कभी कभी तो लगता है जैसे खुद राहुल गांधी भी पार्टी में बिलकुल वैसे ही परेशान हैं जैसे सिंधिया या उनके जैसे बाकी नेता. अपनी बात नहीं सुने जाने से जितने परेशान सिंधिया रहे होंगे, राहुल गांधी की भी मुश्किल तो वही है. कई बार तो वो इस बात का इजहार भी कर चुके हैं.
सिंधिया की तो किस्मत अच्छी है कि जो काम वो करना चाहते हैं उसके लिए विकल्प भी मौजूद है. राहुल गांधी के साथ तो ये भी सुविधा नहीं है. वो जो चाहें कांग्रेस में ही कर सकते हैं - उनके सामने तो सिंधिया की तरह कोई ऑप्शन भी नहीं है. राहुल गांधी चाहे होते तो पहली बार न सही, 2009 में तो यूपीए की सरकार में प्रधानमंत्री बन ही सकते थे, लेकिन तब सिस्टम बदलने का उनका कोर्स भी पूरा नहीं हो पाया था. कोर्स खत्म होते होते सत्ता ही हाथ से फिसल गयी - और अब तो दूर की कौड़ी हो गयी है. करें भी तो क्या करें.
राहुल गांधी ने लियो टॉलस्टॉय को फिर से याद किया है - दो सबसे बड़े योद्धा हैं धैर्य और वक्त. ऐसा पहले तब किया था जब मध्य प्रदेश में कांग्रेस के मुख्यमंत्री के नाम पर कोई फैसला नहीं हो पा रहा था. मालूम नहीं राहुल गांधी ये समझ पा रहे हैं कि नहीं कि सवा साल बाद भी हालात बदले नहीं हैं. सिंधिया ने उसी वजह से कांग्रेस छोड़ी है जो 13 दिसंबर, 2018 को बतौर कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी की उलझन रही और जिसे सुलझाने में सोनिया गांधी और प्रियंका गांधी वाड्रा भी जुटी रहीं. कमलनाथ के लिए तब भी सिंधिया को चुप कराया गया और अब तक उनको बोलने की अनुमति नहीं मिल पा रही थी. जाहिर है जो बात राहुल गांधी याद दिलाने की कोशिश कर रहे हैं वो खुद भी समझ रहे होंगे या समझने की कोशिश कर रहे होंगे. असल बात तो ये है कि बात समझ में आये या नहीं हालात तो बिलकुल नहीं बदले हैं.
सिंधिया के कांग्रेस छोड़ने पर दो अलग अलग छोर पर खड़े नेताओं के बयान एक जैसे हैं - एक नेता घर का है और दूसरा थोड़ा बाहर है. एक हैं राजस्थान के डिप्टी सीएम सचिन पायलट और दूसरे हैं एनसीपी नेता शरद पवार. सचिन पायलट घर में हैं और पुराने कांग्रेसी शरद पवार थोड़ा बाहर लेकिन कांग्रेस के गठबंधन पार्टनर हैं - दोनों की ही राय है कि सिंधिया का मामला कांग्रेस पार्टी के भीतर ही सुलझा लिया जा सकता था, लेकिन ऐसा हुआ नहीं. हुआ तो ऐसा भी नहीं जिसे अप्रत्याशित समझा जाये - हो सकता है इसे भी 'हुआ तो हुआ' वाली निगाह से देखने और समझने की कोशिश चल रही हो - लेकिन जो कुछ हुआ है वो तो होना ही था.
राहुल गांधी को ज्योतिरादित्य सिंधिया की दोस्ती की दुहाई नहीं, संदेश समझने की कोशिश करनी चाहिये!
सिंधिया के कांग्रेस छोड़ कर बीजेपी ज्वाइन करने पर राहुल गांधी की बड़ी ही छोटी सी प्रतिक्रिया आयी है. राहुल गांधी के अनुसार कॉलेज में उनके साथ पढ़े सिंधिया ही एक ऐसे नेता थे जो कभी भी उनके घर जा सकते थे. जब नजदीकियां ऐसी रही तो राहुल गांधी घर पर ही इंतजार क्यों करते रहे. क्या राहुल गांधी को पता नहीं था कि सिंधिया के साथ क्या हो रहा है. मुख्यमंत्री और अध्यक्ष न सही, उनके लिए राज्य सभा पहुंचना क्यों दूभर हो चला था? ऐसा भी तो नहीं कि राहुल गांधी वायनाड के काम में इतने व्यस्त रहे कि कुछ याद ही नहीं रहा. अमेठी से भले खुद को दूर कर चुके हों लेकिन दिल्ली में वो चुनाव प्रचार भी कर लेते हैं और दंगे प्रभावित इलाकों में जाकर कैमरे पर भाषण भी दे लेते हैं.
'महाराज' के बारे में 'युवराज' की जो भी राय बनी हो, लेकिन लगता तो ऐसा है कि जो बात सिंधिया राहुल गांधी को बोल कर नहीं समझा पाये उसे एक्शन से समझाने की कोशिश की है. सिंधिया का एक्शन कांग्रेस के अंदर तमाम नेताओं के मन की बात है. पता नहीं राहुल गांधी को एहसास है कि नहीं, लेकिन अगर कोई मशीन हो तो वो चेक कर सकते हैं कि कांग्रेस के भीतर कई नेता खुद के अंदर भी एक सिंधिया का किरदार ही महसूस कर रहे होंगे.
सिंधिया भी आखिर अपने से लिए कोई सम्मानजनक जिम्मेदारी ही चाहते थे. वो चाहते थे कि उनको मौका मिले - लेकिन कांग्रेस ने ऐसा नहीं किया. ऐसा तो नहीं था कि सिंधिया इतने गलत थे कि सोनिया गांधी और राहुल गांधी भी सिंधिया को कमलनाथ की तरह आंख की किरकिरी समझने लगे थे. कांग्रेस नेतृत्व ने सिंधिया के साथ जो भी सलूक किया वो कमलनाथ के कहने पर ही किया होगा, ऐसा लगता है. राहुल गांधी तो खुद बता चुके हैं कि कैसे कमलनाथ अपने स्वार्थ के लिए उन पर दबाव डालते रहे हैं. वो तो अशोक गहलोत का भी ऐसे ही नाम ले चुके हैं. वैसे भी सिंधिया के बाद बारी सचिन पायलट की ही नजर आती है क्योंकि बीजेपी के निशाने पर तो अशोक गहलोत हैं ही.
सिंधिया के साथ सब ठीक हो, कुछ गड़बड़ न हो, ये सुनिश्चित करना भला किसकी जिम्मेदारी थी. अगर सोनिया गांधी से कमलनाथ अपनी बात मनवा लेते रहे - और राहुल गांधी पर भी दबाव बना लेते रहे तो कोई उपाय खोजना चाहिये था कि नहीं? आखिर नेतृत्व का काम ही क्या होता है?
अगर वो किसी एक के साथ पक्षपात करेगा तो नतीजे तो भुगतने ही पड़ेंगे. आज नहीं कल. कभी न कभी तो गुब्बारा फूटेगा ही. और ये कांग्रेस नेतृत्व के लिए आखिरी अलर्ट है - सिंधिया के एक्शन का यही दोस्ताना संदेश है. कांग्रेस नेतृत्व ये जितना जल्दी समझ ले, पार्टी के लिए उतना ही अच्छा है.
सोनिया भी कहां संभाल पा रही हैं
ज्योतिरादित्य सिंधिया के कदम से कांग्रेस के पास आत्मचिंतन का सबसे बड़ा मौका मिला है. आत्मचिंतन भी मुद्दे के हिसाब से होना चाहिये. कांग्रेस को चुनावी हार भी लगातार ये मौका देते रहे हैं, लेकिन इस बार भी आत्मचिंतन की जिम्मेदारी अगर कांग्रेस के इमानदार नेताओं में से एक एके एंटनी को ही सौंप दी गयी तो फिर भगवान ही मालिक है.
वैसे मध्य प्रदेश संकट के अलावा कांग्रेस नेतृत्व दूसरे राज्यों को लेकर भी सचेत नजर आने लगा है, लेकिन ये काफी नहीं है. ये ठीक है कि सोनिया गांधी ने दिल्ली और कर्नाटक कांग्रेस को अध्यक्ष दे दिया है, लेकिन ऐसे ही फैसले बाकी जगह भी लेने होंगे. नियुक्तियों के साथ साथ नेताओं का असंतोष भी कम करना जरूरी है. असंतोष खत्म तो होने से रहा लेकिन कम तो किया ही जा सकता है. जब किसी को पूरा नहीं मिलता तो वो आधे से भी संतोष कर लेता है, लेकिन जब आधा भी नहीं मिलता तो वो ज्योतिरादित्य सिंधिया जैसा कड़ा कदम उठाने को मजबूर हो जाता है. अनिल चौधरी को दिल्ली कांग्रेस का नया अध्यक्ष अध्यक्ष बनाया गया है, जबकि कर्नाटक में ये जिम्मेदारी ED की जांच से जूझ रहे और जेल से लौटे डीके शिवकुमार को ये जिम्मेदारी मिली है. मुश्किल ये थी कि कर्नाटक कांग्रेस के बड़े नेता सिद्धारमैया अपने आदमी को PCC अध्यक्ष की कुर्सी पर बिठाना चाहते थे. कांग्रेस नेतृत्व ने ये समझदारी दिखायी है कि सिद्धारमैया के आदमी को भी कार्यकारी अध्यक्ष बनाये रखा है. जहां तक दिल्ली का सवाल है, पूर्व अध्यक्ष अजय माकन को अपील जारी करनी पड़ी है क्योंकि दिल्ली कांग्रेस के कई नेता बीजेपी से ग्रीन सिग्नल का बेसब्री से इंतजार कर रहे हैं.
पंजाब को लेकर अभी अभी नवजोत सिंह सिद्धू पूरे एक्शन प्लान के साथ सोनिया गांधी और प्रियंका गांधी वाड्रा से मिले थे. सिद्धू के मुताबिक ऐसा वो आलाकमान के तलब किये जाने के बाद किये थे. हरियाणा में विधानसभा चुनाव से पहले विवाद के हल का रास्ता निकाला तो गया था लेकिन अब वो गले की हड्डी साबित हो रहा है.
ये राज्य सभा चुनाव ही हैं जो सिंधिया को फैसला ले लेने की ताकत दी और यही हरियाणा कांग्रेस में नये विवाद की वजह भी बन रहा है. भूपिंदर सिंह हुड्डा इस बार सोनिया गांधी की करीबी कुमारी शैलजा को राज्य सभा भेजे जाने के पक्ष में कतई नहीं हैं. राज्य सभा चुनाव ऐसे मोड़ पर आ खड़ा हुआ है कि सोनिया गांधी के लिए भीतर और बाहर दोनों मोर्चों पर जूझना पड़ रहा है.
जैसे मध्य प्रदेश में कांग्रेस की दूसरी सीट फंस गयी है, वैसा ही कई राज्यों में हुआ है. कांग्रेस नेतृत्व को सहयोगी दलों से उम्मीद रही कि उनकी मदद से उसके 8 उम्मीवार राज्य सभा पहुंच सकते हैं, लेकिन आखिर वक्त में सभी ने साफ साफ इंकार कर दिया है. बिहार प्रभारी शक्तिसिंह गोहिल ने तो आरजेडी को पत्र लिख कर रिक्वेस्ट की थी, लेकिन उसने भी पल्ला झाड़ लिया है. डीएमके तमिलनाडु में अपने दम पर एक सीट जीत सकती है, लेकिन उसने कांग्रेस की मदद करने से साफ इंकार कर दिया है. डीएमके की ही तरह झारखंड में सत्ताधारी JMM और बिहार में लालू प्रसाद की पार्टी RJD ने भी कांग्रेस की मदद की अपील ठुकराते हुए उम्मीदों पर पानी फेर दिया है.
कहने को सोनिया गांधी कांग्रेस की अंतरिम अध्यक्ष जरूर हैं, लेकिन CWC के साथ उनके पास पूरा पावर है - हर फैसले के लिए अधिकृत हैं और यही ताकत कोई फैसला न लेने का भी अधिकार देती है. कोई फैसला न लिये जाने को फैसला मानने वाले सिर्फ नरसिम्हा राव सफल हुए थे, लेकिन कांग्रेस का मौजूदा नेतृत्व ऐसा करके कदम कदम पर चूक जा रहा है.
राहुल गांधी के इस्तीफे के बाद जब सोनिया ने मोर्चा संभाला था तो लगा कि वो कांग्रेस को उन मुश्किलों से भी बचा पाएंगी जहां राहुल गांधी बेबस हो जाते रहे - विपक्षी खेमे के नेताओं से डील करने में. अब तो सोनिया गांधी के साथ भी बिलकुल वैसा ही होने लगा है और राज्य सभा चुनाव में ये तस्वीर पूरी तरह साफ भी हो चुकी है.
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