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Updated: 11 मार्च, 2020 03:29 PM
मृगांक शेखर
मृगांक शेखर
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ज्योतिरादित्य सिंधिया (Jyotiraditya Scindia joins BJP) के लिए बीजेपी कोई अनजान जगह नहीं है. उनकी दो-दो बुआ वसुंधरा राजे और यशोधरा राजे बीजेपी में ही हैं. चुनावी रैलियों में भले ही वैचारिक दुश्मन नजर आते रहे हों, लेकिन बाद में उनकी मुलाकात की आत्मीय तस्वीरें गूगल पर आसानी से देखी जा सकती हैं. वसुंधरा राजे के बेटे दुष्यंत सिंह भी बीजेपी में ही हैं. ज्योतिरादित्य की दादी राजमाता विजयाराजे सिंधिया तो यही चाहती थीं कि उनका पूरा परिवार बीजेपी में ही रहे, लेकिन उनके बेटे माधवराव सिंधिया और फिर पोते ज्योतिरादित्य दोनों को कांग्रेस में ही मन रम गया था. बहरहाल, ज्योतिरादित्य ने दादी की इच्छा पूरी कर दी है और कुछ कुछ उसी अंदाज में जैसे विजयाराजे सिंधिया ने पांच दशक पहले कांग्रेस छोड़ कर बीजेपी (1967 में जनसंघ) का रुख किया था.

हो सकता है ज्योतिरादित्य सिंधिया को कांग्रेस (Sonia Gandhi and Rahul Gandhi) छोड़ कर बीजेपी में चले जाने के बाद भी बहुत ज्यादा फायदा न मिले, लेकिन कमलनाथ (Kamal Nath government in crisis) को निजी तौर पर कितना नफा नुकसान होगा पैमाइश कुछ दिन बाद ही हो पाएगी. ये भी सही है कमलनाथ ने दिग्विजय सिंह की मदद से ज्योतिरादित्य सिंधिया से पार्टी में तो छुटकारा पा लिया है, लेकिन, ध्यान रहे, घायल शेर पीछे के मुकाबले सामने से ज्यादा खतरनाक होता है.

सिंधिया के पास ऑप्शन भी तो नहीं था

कुछ भी यूं ही नहीं होता. हां - अपवादों की बात और जरूर है. ज्योतिरादित्य सिंधिया ने अपने ट्विटर प्रोफाइल से कांग्रेस नाम काफी पहले हटा दिया था. बस वही दो शब्द रखे थे जिससे उन्हें कभी कोई अलग नहीं कर सकता. सोनिया गांधी को इस्तीफा तो एक दिन पहले ही भेज दिया था, लेकिन सब कुछ औपचारिक बुरा न मानों होली है वाले अंदाज में किया. अपने इस्तीफे में लिखा भी कुछ ऐसा ही था - 'कांग्रेस की प्राथमिक सदस्यता से इस्तीफा दे रहे हैं लेकिन इस रास्ते पर साल भर पहले ही निकल पड़े थे.' ये नींव भी ट्विटर पर ही पड़ी थी जब प्रोफाइल छोटा कर लिया था.

jyotiraditya scindia, jp naddaसिंधिया और बीजेपी दोनों को एक दूसरे की बहुत जरूरत थी

ज्योतिरादित्य सिंधिया का कांग्रेस में दम घुट रहा था, बीजेपी में वो राहत की सांस ले सकते हैं - फर्क बस इतना ही पड़ेगा. कांग्रेस में रह कर वो मध्य प्रदेश के मुख्य मंत्री बनना चाहते थे, बीजेपी में भी फिलहाल ये मौका तो मिलने से रहा. सिंधिया मध्य प्रदेश कांग्रेस की कमान चाहते थे, ऐसा कुछ भी बीजेपी सिंधिया को देने से रही. हाल फिलहाल वो ये जरूर चाहते थे कि और कुछ हो न हो पार्टी राज्य सभा ही भेज दे. कमलनाथ और दिग्विजय सिंह इसमें भी अड़ंगा डाले हुए थे. ऐसा इसलिए भी क्योंकि कांग्रेस की अंतरिम अध्यक्ष सोनिया गांधी के दरबार में कमलनाथ की ही चलती है और उनसे दोस्ती के नाते दिग्विजय भी अपनी दाल गला ही लेते हैं.

भरी संसद में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से गले मिल कर आंख मार देने वाले नेताओं की जमात में भले ही ज्योतिरादित्य सिंधिया कभी रहे हों, लेकिन जब वो खुद ही पैदल हो गये तो साथियों के लिए कैसे सहारा बनते. शायद यही वजह रही कि राहुल गांधी ने अपने गुरु मनमोहन सिंह की तरह खामोशी ही अख्तियार कर ली - और बाकी नेताओं की तरह सिंधिया के लिए भी दरवाजे बंद कर लिये.

ले देकर बीजेपी में ज्योतिरादित्य सिंधिया को राज्य सभा में खड़े होने के लिए ऑक्सीजन जरूर मिल जाएगा. रहीं बात मंत्री बनने की तो कैबिनेट या स्वतंत्र प्रभार न सही राज्य मंत्री वाला काम तो मिल ही जाएगा. गाढ़े वक्त में ये भी कम है क्या?

सोनिया और राहुल दोनों ही सिंधिया को निराश किया

कहते हैं हालात नहीं, सिर्फ किरदार बदलते जाते हैं. किरदार तब और तेजी से बदलने लगते हैं जब हालात सुधारने की कोशिश होनी बंद हो जाये. कांग्रेस और ज्योतिरादित्य सिंधिया दोनों ने एक बार फिर ये थ्योरी सही साबित कर दी है.

2018 के मध्य प्रदेश विधानसभा चुनाव के पहले से ही ज्योतिरादित्य सिंधिया के साथ कांग्रेस में कुछ भी अच्छा नहीं हो रहा था. बतौर कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी की ताजपोशी से पहले ज्योतिरादित्य सिंधिया साये की तरह उनके साथ हुआ करते थे. जहां जहां युवराज वहां वहां महाराज. राहुल गांधी को तो सिर्फ मीडिया में या बीजेपी नेताओं के बयान में युवराज कहा जाता है, लेकिन ज्योतिरादित्य को तो लोग महाराज ही बुलाते हैं. सिंधिया घराने के होने के चलते ज्योतिरादित्य सिंधिया को सीनियर नेता भी ऐसे बुलाया करते हैं.

jyotiraditya scindiaकमलनाथ की कौन कहे, सिंधिया को तो सोनिया-राहुल ने भी निराश किया है

मध्य प्रदेश से ठीक साल भर पहले पहले 2017 में गुजरात विधानसभा के चुनाव हुए थे. सोनिया गांधी की तरफ से तो राहुल गांधी के अगल बगल अशोक गहलोत और अहमद पटेल तैनात थे और परदे के पीछे काफी पहले से सैम पित्रोदा एक पैर पर खड़े हुआ करते थे, लेकिन युवराज के दिल के करीब महाराज ही हुआ करते थे. साथ में सचिन पायलट भी. तब से लेकर अब तक जब भी कुछ सिंधिया या पायलट में से किसी एक के साथ होता है, दूसरे का जिक्र जबान पर आ ही जाता है. गुजरात चुनाव के बाद जब सचिन पायलट को राजस्थान कांग्रेस का अध्यक्ष बनाया गया, लगा मध्य प्रदेश की कमान भी सिंधिया को मिलने वाली है - लेकिन वैसा कुछ नहीं हुआ. कांग्रेस की जीत के बाद सचिन पायलट तो डिप्टी सीएम भी बने लेकिन सिंधिया को तो मध्य प्रदेश से बाहर ही कर दिया गया - पूर्वी उत्तर प्रदेश का प्रभार देकर. वो प्रियंका गांधी के साथ आधी हिस्सेदारी की शर्त के साथ. तब प्रियंका गांधी की औपचारिक वीआईपी एंट्री हुई थी. ऐसे में सिंधिया के लिए कितना रोल बचता होगा, समझा जा सकता है. वैसे शिकस्त तो बराबर की रही, जब प्रियंका गांधी वाड्रा पूरी ताकत झोंक कर भी राहुल गांधी की सीट नहीं बचा सकीं तो सिंधिया के बारे में कौन सोचे भला.

सिंधिया को यूपी से एमपी लौटना चाहते थे लेकिन कमलनाथ की इतनी चली की वो सीधे महाराष्ट्र भेज दिये गये - चुनाव प्रभारी बनाकर. समर्थकों ने शोर मचाया भी कि अगर कुछ करना है तो सिंधिया के लिए मध्य प्रदेश में काम दिया जाये, महाराष्ट्र में वो क्या करेंगे.

कांग्रेस नेतृत्व का सिंधिया के प्रति अब तक जो व्यवहार नजर आया है - ये संभावना भी कम ही लगती है कि कांग्रेस नेतृत्व को उनके जाने का कोई अफसोस भी हो रहा होगा. ऐसा भी हो सकता है कि कांग्रेस नेतृत्व ऐसे सोच रहा हो अच्छा हुआ बला टली. व्यवहार तो करीब करीब ऐसा ही अशोक तंवर के साथ भी हुआ. पांच साल तक हरियाणा में मुख्यमंत्री मनोहरलाल खट्टर के साथ साथ भूपिंदर और दीपेंद्र हुड्डा से भी बराबर मोर्चा लेते रहे अशोक तंवर हड़बड़ी और गुस्से में गलती कर बैठे. सिंधिया ने सोच समझ कर काम लिया. ये भी हो सकता है अशोक तंवर को सिंधिया की तरह कोई जफर इस्लाम नहीं मिल सका हो.

माना जा रहा है कि सिंधिया को बीजेपी तक पहुंचाने में मुख्य भूमिका बीजेपी प्रवक्ता जफर इस्लाम ने ही निभायी. दोनों ही पहले बैंकर रहे हैं और दिल्ली में रहते पुरानी जान-पहचान भी रही है. खबर है कि पिछले छह महीने से जफर इस्लाम और ज्योतिरादित्य सिंधिया की मुलाकातें कुछ ज्यादा ही हुईं. जफर इस्लाम बीजेपी में तो सिंधिया के लिए जमीन तो तैयार कर ही रहे थे, बीच बीच में उनका मन भी टटोल लेते रहे. कुछ दिन पहले, सूत्रों के हवाले से आ रही खबर बताती है, खुद ज्योतिरादित्य सिंधिया ने अपनी ओर से ही प्रस्ताव रख दिया. फिर क्या था जिक्र तो पहले से ही जारी था. बस प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और बीजेपी के पूर्व अध्यक्ष अमित शाह से मुलाकात तय हुई और सब फाइनल हो गया.

धीरे धीरे जो बात सामने आ रही है, सिंधिया कमलनाथ से खफा जरूर थे लेकिन सोनिया गांधी और राहुल गांधी दोनों से निराश हो चुके थे. वैसे तो एक अनुशासित नेता की तरह सिंधिया सोनिया या राहुल गांधी के खिलाफ कभी कुछ नहीं बोले, लेकिन धारा 370 को लेकर CWC में जोरदार विरोध के साथ अपनी बात रखी थी. सिंधिया भी उन नेताओं में शामिल थे तो धारा 370 पर मोदी सरकार के विरोध के कांग्रेस के फैसले के खिलाफ रहे. सिंधिया और उनके जैसे नेताओं का यही कहना था कि पार्टी जनभावनाओं के खिलाफ जा रही है, लेकिन उनकी बातों पर ध्यान नहीं दिया गया. उस मीटिंग में गुलाम नबी आजाद लगातार पार्टी के स्टैंड का बचाव करते रहे और पी. चिदंबरम अपने तरीके से तर्क पेश कर उसे उचित साबित करने की कोशिश कर रहे थे. मीटिंग में मौजूद सोनिया गांधी, राहुल गांधी और प्रियंका गांधी वाड्रा ने आजाद और चिदंबरम को ही तरजीह दी.

कांग्रेस में युवाओं की बातें तो खूब होती हैं, लेकिन राहुल गांधी के अलावा वहां कोई युवा तो है नहीं, जब भी बात सुनी जाती है तो अपने अपने राज्यों में अब तक तो यही देखने को मिलता रहा है कि असम में तरुण गोगोई भारी पड़ते हैं, पंजाब में कैप्टन अमरिंदर सिंह, मध्य प्रदेश में कमलनाथ, राजस्थान में अशोक गहलोत और हरियाणा में हुड्डा. भयंकर गुटबाजी के आगे कांग्रेस नेतृत्व हथियार डाल देता है और जब फैसले का वक्त आता है तो करीबियों की ही बात सुनी जाती है.

करीबियों को भी इस बात से फर्क नहीं पड़ता कि पार्टी की की भरी सभा जलील किया जाता है कि हत्यारा कहा जाता है. याद कीजिये मई, 2019 में आम चुनाव के नतीजे आने के बाद CWC की मीटिंग में राहुल गांधी ने कमलनाथ और अशोक गहलोत का नाम लेकर परिवारवाद का इल्जाम लगाया था - और उसी मीटिंग में प्रियंका गांधी ने कहा था कि कांग्रेस पार्टी का हत्यारा उसी कमरे में मौजूद है. ऐसा कुछ भी होता रहे चलती तो उनकी ही है.

असम में भी कांग्रेस के हाथ से सत्ता गये पांच साल होने जा रहे हैं. गौरव गोगोई फिर फॉर्म में देखे गये हैं. बिलकुल अपने नेता वाले अंदाज में कागज फाड़ते हुए. ये गौरव गोगोई ही हैं जिन्हें तरुण गोगोई का बेटा होने के चलते कांग्रेस में रुतबा हासिल रहा. ऐसा कि हिमंता बिस्व सरमा जैसे नेताओं से मुलाकात में राहुल गांधी पीडी (Pidi) सहित अपने पालतुओं से खेलने में ज्यादा मशगूल पाये जाते हैं.

कभी त्रिपुरा कांग्रेस के अध्यक्ष रहे प्रद्योत माणिक्य देबबर्मन ने एक फेसबुक पोस्ट में लिखा है कि किस तरह तमाम कोशिशों के बावजूद ज्योतिरादित्य सिंधिया को राहुल गांधी की ओर से मुलाकात का वक्त तक नहीं दिया गया - और ऐसा महीनों से होता आ रहा था. आखिर ज्योतिरादित्य सिंधिया कर भी क्या सकते थे. एक बात तो साफ है. कांग्रेस में हिमंता बिस्व सरमा से लेकर ज्योतिरादित्य सिंधिया तक सभी की एक जैसी कहानी है - और ये तब जब कांग्रेस इसकी पूरी कीमत भी चुका रही है.

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लेखक

मृगांक शेखर मृगांक शेखर @mstalkieshindi

जीने के लिए खुशी - और जीने देने के लिए पत्रकारिता बेमिसाल लगे, सो - अपना लिया - एक रोटी तो दूसरा रोजी बन गया. तभी से शब्दों को महसूस कर सकूं और सही मायने में तरतीबवार रख पाऊं - बस, इतनी सी कोशिश रहती है.

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