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Updated: 09 मई, 2018 02:24 PM
राहुल कंवल
राहुल कंवल
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स्थानीय जानकारों को हमेशा राज्य में हर सीट के समीकरणों की कहीं ज्यादा गहरी समझ होती है. लेकिन चुनावी रण में उतरे सभी तीन पार्टियों के अहम योद्धाओं के साथ घंटों बिताने और जिन क्षेत्रों की हमने यात्रा की, वहां के मतदाताओं से बात करने के बाद मैंने कर्नाटक के कांटे के चुनाव को लेकर 10 अहम निष्कर्ष निकाले हैं.

1. भ्रष्टाचार जमीन से ज्यादा टीवी पर बड़ा मुद्दा

प्राइम टाइम टीवी टॉक शोज में कई-कई घंटे रेड्डी भाइयों की सियासी बहाली से जुड़ी बहस पर खपाए गए और कैसे बीजेपी के भ्रष्टाचार विरोधी राग की हवा निकली जब पार्टी ने बेल्लारी के दागी आयरन माफिया के करीबियों को 8 टिकटों से नवाजा. बीजेपी अपनी मुहिम के तहत सिद्धारमैया सरकार पर हमला कर रही है, इसे 10% सरकार का नाम देकर बुला रही है. प्रधानमंत्री मोदी ने भी मुख्यमंत्री को "सिद्धा-रुपैया" बता कर निशाना साधा.

दुखी करने वाली हकीकत ये है कि मतदाता दोनों पार्टियों के खिलाफ भ्रष्टाचार के आरोपों को ज्यादा तवज्जो नहीं दे रहे हैं. बेल्लारी भाइयों की बेल्लारी के आसपास के तीन जिलों में खासी पकड़ नजर आती है और बहुत आसार है कि इन जिलों की 22 सीटों में से बड़ा हिस्सा बीजेपी की झोली में ही जाए.

कांग्रेस ने भी माइनिंग माफिया से जुड़े लोगों को टिकट दिए हैं. ऐसे में कांग्रेस भी भ्रष्टाचार के मुद्दे पर नैतिकता की ऊंची जमीन पर होने का दावा नहीं कर सकती. दोनों पार्टियों के रणनीतिकारों का मानना है कि इंटरव्यू और प्रेस कॉन्फ्रेंस में कुछ मुश्किल और असहज सवालों का जवाब देना कहीं बेहतर है बजाए इसके कि नैतिकता के पाठ के चक्कर में सीटों को गंवा दिया जाए.

प्रधानमंत्री ने ऐसे नेताओं पर प्रहार किए जिन्होंने मोपेड से शुरुआत की थी और अब एक से बढ़ कर एक लग्जरी गाड़ियों पर चलते हैं और आलीशान मकानों में रहते हैं. ऐसे नेता राज्य में सभी पार्टियों में देखे जा सकते हैं. नेताओं की ओर से शान-शौकत दिखाने में आंध्र प्रदेश के बाद कर्नाटक का दूसरा स्थान लगता है.

अभागे मतदाता ने खुद को भाग्य के हाल पर छोड़ दिया लगता है और उसकी दिलचस्पी इस बात में ज्यादा है कि कौन सा नेता उसकी अधिक मदद कर सकता है.

lingayatनहीं चल पा रहा लिंगायत का दांव

2. नहीं चल पा रहा लिंगायत का दांव

इस चुनाव में चर्चा के अहम मुद्दों में मुख्यमंत्री सिद्धारमैया की ओर से लिंगायत कार्ड चलना भी रहा. मुख्यमंत्री ने इसके तहत राज्य के 17% लिंगायत समुदाय को अल्पसंख्यक दर्जा देने की पेशकश की.

मुख्यमंत्री की ओर से ऐसा एलान करते ही कयास लगाए जाने लगे कि क्या लिंगायत वोट कांग्रेस की ओर मुड़ेगा. जमीन पर, ऐसा कुछ भी होता नहीं दिख रहा. हां उन कुछ मठों के लिए ये बात नहीं कही जा सकती जिन्होंने सिद्धारमैया के इस कदम की खुलकर वकालत की थी. इसका अर्थ ये है कि अल्पसंख्यक समुदाय का दर्जा देने का दांव भी बीजेपी के लिंगायत वोट-बैंक को तोड़ने में कामयाब नहीं हो पाया है.

वीरशैव समुदाय बीजेपी के पक्ष में मजबूती से डटा दिखता है और उसकी कोशिश ऐसे शख्स को हराने की नजर आती है जिसने उन्हें बांटने का दांव चला. यहां तक कि कांग्रेस भी ये मानती है कि उसके पक्ष में लिंगायत वोटों में कोई खास बढ़ोतरी नहीं होगी. कांग्रेस के शीर्ष नेता अब दावा कर रहे हैं कि उन्होंने बीजेपी से लिंगायत वोटों के बड़े पैमाने पर छिटकने की उम्मीद कभी नहीं की थी.

हां, लिंगायत दांव ने इतना जरूर किया कि इस समुदाय की खुली दरारों का भेद लेने के चक्कर में बीजेपी को अस्थायी तौर पर डिफेंसिव मोड में ला दिया. दुश्मन को उसी की पिच पर पछाड़ने के उद्देश्य से लाई गई रणनीति को लेकर सिद्धारमैया ने अपने पत्ते अच्छी तरह खेले.

3. राहुल गांधी अपने जॉब में हो रहे हैं बेहतर

पहले राहुल गांधी की सबसे बड़ी दिक्कतों में से एक ये मानी जाती थी कि वे अपनी ही सेना को अपने पीछे एकजुट लेकर चलने में नाकाम रहते हैं. राहुल के अपने सर्किल के लोगों से ही शिकायतों की लंबी फेहरिस्त पहले सुनी जाती थी कि कैसे फैसले लेने में बॉस की असमर्थता आड़े आती है और कैसे निहित स्वार्थों की ओर से कान भरने पर प्रभाव में आने की उनकी प्रवृत्ति है.

अब लगता है कि परिस्थितियां बदल रही हैं. राहुल की सेना अब उनके पीछे अधिक मजबूती से डटी नजर आती है. साथ ही उनके योद्धा अब ये दावा करते भी नहीं थकते कि राहुल अब बदले हुए व्यक्ति हैं जिन्होंने आखिरकार मजबूती से फैसले लेना शुरू कर दिया है. राहुल भी अब वही गेम खेलते नजर आ रहे हैं जो कि और नेता खेलते हैं. राहुल के प्रचार अभियान को ट्रैक करते वक्त उनके एक सहयोगी ने हमसे कहा, ‘टोपी नहीं पहना सकता कोई अब बॉस को.’

rahul gandhiराहुल की सेना अब उनके पीछे अधिक मजबूती से डटी नजर आती है

गुजरात कैम्पेन के दौरान भी ऐसी कई रिपोर्ट आई थीं कि राहुल पहले से बदले-बदले नजर आते हैं. उसके बाद से उनका आत्मविश्वास अब एक पायदान और ऊपर चढ़ा लगता है. गुजरात में नजदीकी हार ने राहुल को वही विश्वास दिया जो अब तक मोदी-शाह की जोड़ी में निहित माना जाता रहा है. अब राहुल के बोलते समय वैसे ही व्यक्ति जैसा भाव दिखता है जो सोचता है कि वो जीत रहा है.

पहले राहुल व्यक्तिगत रूप से पीएम मोदी पर हमला करने में बहुत सावधानी बरतते थे. लेकिन अब लगता है कि उन्होंने खुले प्रहार करने का रास्ता पकड़ा है. हालांकि अभी ये देखना बाकी है कि क्या ये राहुल के लिए स्मार्ट मूव होगा कि जिस शख्स के पास कोई प्रशासकीय अनुभव नहीं है वो भारत के सबसे दुर्जेय राजनेता के साथ सीधे पंजा लड़ाना चाहता है. लेकिन राहुल का ये फैसला मायने रखता है राजनीतिक रूप से अपनी लकीर बड़ी करने का रास्ता मोदी गाथा को ध्वस्त करके बनाया जाए.  

यहां तक कि बीजेपी के टॉप नेता भी मान रहे हैं कि कांग्रेस ने इस चुनाव में टिकट बंटवारा अच्छी तरह किया है. साथ ही पार्टी के भीतर आपस में टकराने वाले हितों का प्रबंधन करने में भी कांग्रेस कामयाब रही है.

पिछले चुनावों में, कांग्रेस नेताओं के अंतर्घात ने ही कई सीटों पर पार्टी को नुकसान पहुंचाया. ऐसा लगता है कि राहुल इस पर काफी हद तक अंकुश लगाने में कामयाब रहे हैं. कांग्रेस में ऐसे कई नेता हैं जो सिद्धारमैया से खार खाते हैं, लेकिन उनमें से कोई भी खुले तौर पर ऐसा काम नहीं करता दिख रहा जो पार्टी के हितों को नुकसान पहुंचाए.

4. भारत के सबसे बेहतर प्रदर्शन दिखाने वाले CEO अमित शाह

राहुल गांधी की दिक्कत यह है कि उनका मुकाबला अमित शाह जैसे शख्स से है. एक तरफ जहां हाल के वर्षों में कांग्रेस संगठन बहुत चटका है वहीं शाह ने बीजेपी संगठन को तेजी से दोबारा खड़ा किया है जो कि अपने आप में प्रबंधन की सफलता की कहानी है. वो कहानी जो किसी टॉप आईवी लीग स्कूल में MBA केस स्टडी के लिए पूरी तरह फिट है.

amit shah

कई राज्यों में, कांग्रेस के पास बहुत कम ही असली सांगठनिक ढांचा बचा है. कांग्रेस ऐसे मजबूत स्थानीय नेताओं के हाथों में है जो अपने प्रभाव वाले क्षेत्रों में पार्टी उम्मीदवारों की मदद करते हैं. यदि इनमें से कोई भी नेता कांग्रेस छोड़ देता है, तो उस विशेष क्षेत्र में पार्टी का ढांचा ही उसके साथ चला जाता है. इस तरह के झटके कांग्रेस को कमजोर बना देते हैं. कांग्रेस की इस खामी को शाह लगातार बीजेपी के हक में भुनाते आ रहे हैं. साथ ही अमित शाह देश के हर नुक्कड़ में बीजेपी के लिए मजबूत ढांचा बनाने में कामयाब रहे हैं. छोटी से छोटी यूनिट की बारिकियों पर शाह काम करते हैं. जिस तरह बीजेपी हर घर में अपने संदेशों की भरमार करने में समर्थ रहती है, इस मामले में वो कांग्रेस से मीलों आगे है.

मौजूदा स्थिति में कांग्रेस और बीजेपी की सेनाओं में अंतर उतना ही बड़ा है जितना 1962 के युद्ध के दौरान भारतीय और चीनी सेनाओं के बीच था. बीजेपी की ओर से नए युग के ऐप्स के इस्तेमाल के साथ कई वॉट्सअप ग्रुप का सहारा लिए जाना, साथ ही जमीन पर समर्पित और जुझारू कार्यकर्ताओं की मौजूदगी पार्टी को मतदाताओं तक जिस स्तर पर पहुंचने में मदद करती है, वैसा कांग्रेस नहीं कर सकती. ऐसे में स्थानीय नेताओ के पास पार्टी को बंधक बना कर रखने की गुंजाइश बहुत कम रह जाती है. बीएस येदियुरप्पा के बेटे तक का टिकट काट दिया जाता है और वो कुछ नहीं कर पाते. सिवाए इसके कि अपने अहम को गले से नीचे उतार कर पार्टी के फैसले को सिर-माथे पर धरें.

कांग्रेस के पास जमीनी स्तर पर सेवा दल नाम का संगठन हुआ करता था, जो आरएसएस की तर्ज पर ही कांग्रेस को चुनाव के वक्त आखिरी मील तक मतदाताओं से संपर्क कराने में मदद करता था. बरसों तक ध्यान ना दिए जाने की वजह से सेवा दल अब अपने मजबूत अतीत की कमजोर छाया ही बन कर रह गया है. बीजेपी स्थानीय कांग्रेस नेताओं पर डोरे डाल कर अपने साथ जोड़ ही रही है, साथ ही ये सुनिश्चित भी करा रही है कि ये दलबदलू अपने साथ सेवा दल के समर्पित कार्यकर्ताओं को भी लाएंगे.

जब तक राहुल गांधी कांग्रेस संगठन को नीचे से ऊपर तक मजबूत बनाने के लिए युद्ध स्तर पर मुहिम नहीं छेड़ते और सेवा दल जैसे संगठनों को नई धार देने के लिए दोबारा खड़ा नहीं करते, तब तक कांटे के चुनाव में बीजेपी से मुकाबला करने के लिए उनके पास कोई उम्मीद नहीं है. नजदीकी लड़ाई में ये बहुत मायने रखता है कि किस के पास  मतदाताओं को मतदान केंद्र तक लाने की अधिक क्षमता है. और यही अक्सर हार और जीत की वजह बन जाता है. इस मामले में बीजेपी का कोई सानी नहीं है.

5. तेज़ चमक रहा है सिद्धारमैया का ‘भाग्य’

जहां तक तिकड़मी नेताओं का सवाल है तो बीजेपी को कर्नाटक में सिद्धारमैया से कड़ी चुनौती मिल रही है. मुख्यमंत्री ने राजनीतिक क्षमताओं के मामले में बेहतरीन कारगुजारी दिखाई है. सिद्धारमैया इस चुनाव के लिए लगातार एजेंडा सेट करने में कामयाब रहे हैं.

आम तौर पर देखा जाता है कि ये बीजेपी ही होती है जो अपने सियासी गोलाबारूद से आक्रमण करती है और सामने वाले को डिफेंस के लिए कवर के नीचे आने को मजबूर होना पड़ता है. वहीं इस बार कर्नाटक में चाहे राज्य के लिए अलग झंडा हो या हिन्दी के खिलाफ लड़ाई या फिर लिंगायत कार्ड का दांव, ये सिद्धारमैया ही थे जिन्होंने फ्रंटफुट पर आकर बैटिंग की और बीजेपी को जवाब देने के लिए बाध्य होना पड़ा.

siddaramaiah

कैम्पेन का पीछा करते हुए हम जहां भी गए, हमने सिद्धारमैया के खिलाफ एंटी इंकम्बेंसी फैक्टर को कोई खास कारगर होते नहीं देखा. ऐसे में जब कि कर्नाटक का 30 साल का इतिहास रहा है कि किसी भी सत्तारूढ़ पार्टी को पांच साल का कार्यकाल पूरा होने के बाद सत्ता दोबारा नहीं मिली, सिद्धारमैया की ये उपलब्धि कम बड़ी नहीं है. मुख्यमंत्री के साथ कार पर सफर करते हमने देखा कि जहां से भी काफिला गुजरता था वहां लोगों के चेहरे पर अपने मुख्यमंत्री को देखने के बाद चमक आ जाती. आयु वर्ग कोई भी हो, लोगों में मुख्यमंत्री को लेकर वास्तविक रूप से आभार का भाव दिखा.

राज्य में मुख्यमंत्री की भाग्य योजनाएं बड़ी कामयाब रही हैं. असलियत में हर घर को किसी ना किसी सरकारी योजना का लाभ मिला है. यह एक अलग मामला है कि वोक्कालिगा जैसी अगड़ी जातियों में सिद्धारमैया के लिए बेहद नापसंदगी है. सिद्धारमैया ने उन्हें अपने साथ लाने के लिए कुछ विशेष किया भी नहीं. लेकिन पिछड़ों और अगड़ों की चुनावी जंग में पिछड़ों का बहुमत एक पक्ष में होना हमेशा फायदेमंद रहता है.

एक व्यक्ति जो सिर्फ 2006 में ही कांग्रेस में आया, ऐसे व्यक्ति यानी सिद्धारमैया के लिए राज्य में पार्टी और सरकार पर पूरा दबदबा बनाए रखना, कम बड़ी उपलब्धि नहीं है. वो भी ऐसी स्थिति में जब कई तरफ से विरोधी उन पर घात लगाए बैठे थे.

अगर सिद्धारमैया 15 मई को नतीजे आने पर कांग्रेस को बहुमत दिलाने में समर्थ रहते हैं तो निश्चित रूप से उनका कद कांग्रेस में राहुल और सोनिया गांधी के बाद तीसरे सबसे महत्वपूर्ण नेता के तौर पर उभरेगा. मुख्यमंत्री की टीम में उनके करीबी दावा करते हैं कि अगर सिद्धारमैया ने यूपी जैसे राज्य में वो काम किया होता जो उन्होंने कर्नाटक में करके दिखाया तो वे गवर्नेंस के बेहतरीन ट्रैक रिकार्ड वाले मजबूत सीएम के तौर पर प्रधानमंत्री पद के लिए स्वाभाविक दावेदार हो जाते.

6 विंध्य के नीचे मोदी फैक्टर कितना कारगर?

कई राजनीतिक जानकार ये अनुमान व्यक्त करते रहे हैं कि विंध्य के आगे मोदी फैक्टर अधिक कारगर नहीं रहेगा. वो गलत हैं. बीजेपी क्या सोचती है इसे छोड़िए, कांग्रेस का अंदरूनी फीडबैक भी ये कह रहा है कि कर्नाटक में चुनाव प्रचार के आखिरी चरण में प्रधानमंत्री मोदी 18 से 25 आयुवर्ग के मतदाताओं पर प्रभाव डालने में सफल रहे हैं. ये कांग्रेस के थिंकटैंक के लिए चिंता की बात है. इस आयुवर्ग से कर्नाटक में 65 लाख मतदाता हैं. ये राज्य के कुल मतदाताओं का 13 फीसदी बैठता है.

narendra modi

आधुनिक भारतीय राजनीति में वोटरों को मोड़ने में पीएम मोदी की क्षमता का कोई मुकाबला नहीं है. हालांकि बीजेपी नेता भी मानते हैं कि अनुवाद करते वक्त राजनीतिक संदेश का कुछ हिस्सा खो जाता है लेकिन इसके बावजूद बीजेपी के तरकश में पीएम मोदी ही अकेले ब्रह्मास्त्र हैं. मोदी सरकार के चार साल पूरे होने पर भी ब्रैंड मोदी पर एंटी इंकम्बेंसी का कोई असर नजर नहीं आता. उनकी व्यक्तिगत अपील अब भी वैसी ही है जैसे कि प्रधानमंत्री दफ्तर का चार्ज लेते समय थी. संभवतः दुनिया में किसी भी बड़े लोकतंत्र में ऐसा कोई नेता नहीं है जो हर चुनाव को अपनी सरकार के प्रदर्शन पर राजनीतिक स्वीकृति में बदल देता है और मतदाताओं को वैसे ही प्रभावित करता है जैसे कि मोदी करते हैं.  

7. राजस्थान और मध्य प्रदेश को लेकर बीजेपी चिंतित

कांग्रेस ने जैसे अपने गेम को बेहतर किया है, राहुल गांधी ने जिस तरह आदर्शवाद की लकीर से हटकर व्यावहारिक फैसले लेना शुरू किया है, बीजेपी को ये चिंता सताने लगी है कि इस साल के आखिर में मध्य प्रदेश और राजस्थान में क्या होगा.  

राजस्थान में, मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे पार्टी अध्यक्ष अमित शाह के साथ युद्ध में इसलिए उलझी हैं कि कौन राज्य में पार्टी का अध्यक्ष बनेगा. शाह केंद्रीय कृषि और किसान कल्याण राज्य मंत्री गजेंद्र सिंह शेखावत के लिए बैटिंग कर रहे हैं वहीं राजे ने अपनी पंसद की फेहरिस्त थमाई है.

बीजेपी का अंदरूनी आकलन कहता है कि राजस्थान में मुख्यमंत्री के खिलाफ भारी सत्ता विरोधी रूझान काम कर रहा है. और अगर तत्काल उपचारात्मक कदम नहीं उठाए जाते तो पार्टी को राज्य में बड़ी हार का सामना करना पड़ेगा. वहीं राजे इस तरह के प्रयासों को अपनी सरकार को कमतर आंकने के तौर पर देखती हैं. अब जबकि राजस्थान में चुनाव सिर्फ छह महीने ही दूर हैं, बीजेपी को राज्य में भागीरथ चुनौती का सामना है.

मध्यप्रदेश को लेकर बीजेपी उम्मीद कर रही थी कि राहुल गांधी वहां कांग्रेस के कैम्पेन की बागडोर संभालने के लिए अपने दोस्त ज्योतिरादित्य सिंधिया की नियुक्ति करेंगे. लेकिन इसके बजाय राहुल ने कमल नाथ को चुना. कमल नाथ को राजनीति का चतुर खिलाड़ी माना जाता है. वे भी उन तिकड़मी खेलों में माहिर हैं जिनमें बीजेपी के शीर्ष नेतृत्व को बेजोड़ माना जाता है. कमल नाथ के पास वो संसाधन भी हैं जो धारदार कैम्पेन को चलाने के लिए आवश्यक माने जाते हैं.

इस घटनाक्रम ने मध्यप्रदेश में बीजेपी के लिए चीजों को भी मुश्किल बनाया है. जबकि बीजेपी को अब भी मध्य प्रदेश में जीत की उम्मीद है. लेकिन पार्टी का शीर्ष नेतृत्व मानता है कि अगर मुकाबले में चतुर ऑपरेटर हो तो तीन कार्यकाल की एंटी इंकम्बेंसी के साथ तभी सामना किया जा सकता है जबकि अपने प्रदर्शन को बहुत ऊंचे स्तर पर ले जाया जाए. पार्टी उम्मीद करती है कि मध्य प्रदेश चुनाव कॉरपोरेट बनाम किसान की जंग में तब्दील हो जाए. जहां कमल नाथ को कॉरपोरेट की आंख के दुलारे के तौर पर और शिवराज सिंह चौहान को धरती के विनम्र पुत्र के तौर पर पेश किया जाए. ऐसा धरती पुत्र जिसने राज्य में किसानों की बेहतरी के लिए बहुत कुछ किया.

8. 2019 : एकजुट विपक्ष के सामने होगी ब्रैंड मोदी की असली परीक्षा

रिकॉर्ड पर, बीजेपी नेताओं का दावा है कि उत्तर प्रदेश में मायावती और अखिलेश के साथ आने से 2019 के आम चुनावों में पार्टी की संभावनाओं के लिए कोई वास्तविक खतरा नहीं है. लेकिन निजी तौर पर पार्टी नेता मानते हैं कि विपक्षी सेनाओं के साथ आने से 2019 की लड़ाई उससे कहीं ज्यादा मुश्किल हो जाएगी, जैसे कि मानी जा रही थी.

2014 में, बीजेपी ने यूपी जैसे राज्यों में बड़ी जीत हासिल की थी क्योंकि बहुकोणीय मुकाबले में विपक्षी वोट बंट गए थे. बीजेपी अब उम्मीद कर रही है कि बुआ-भतीजे की जोड़ी को जमीन पर अपने गठबंधन को अमली जामा पहनाने में मुश्किलों का सामना करना पड़े.

पार्टी यह भी गुणा-भाग करती है कि मुस्लिम वोट जहां एसपी-बीएसपी गठबंधन के पक्ष में जुटेंगे, वहीं समाजवादी पार्टी को अपने यादव वोटों को बसपा उम्मीदवारों को शिफ्ट करना मुश्किल लगेगा. ऐसे ही बीएसपी को अपने बचे हुए गैर-जाटव वोट बैंक को एसपी उम्मीदवारों के पक्ष में ट्रांसफर करना कठिन लगेगा.

बिहार चुनाव से पहले बीजेपी का शीर्ष नेतृत्व उसे पौराणिक युद्ध की तरह बताता था जिसमें एक तरफ बीजेपी की सेना और दूसरी तरफ समूचा एकजुट विपक्ष. बीजेपी का शीर्ष नेतृत्व सोचा था कि मोदी और शाह का सांगठनिक कौशल उन्हें राज्य में 50 फीसदी से अधिक वोट दिलाएगा. लेकिन बीजेपी के लिए बिहार में जिस तरह के उलटे नतीजे आए उसके बाद से पार्टी नेतृत्व ज्यादा सतर्क है. बीजेपी उम्मीद कर रही है कि हिन्दी बेल्ट में उसे अगर कोई नुकसान होता है तो उसकी भरपाई नए क्षेत्रों से कर लेगी. आखिर में ब्रैंड मोदी पर ही सब आ टिकेगा. क्या मतदाताओं का बहुमत सरकार के पांच साल के कामकाज के आधार पर मोदी को दूसरे कार्यकाल के लिए मौका देगा.  

9. बीजेपी और जेडीएस में गुप्त समझौता

बीजेपी और जेडीएस के बीच कर्नाटक में गठबंधन की संभावना का जहां तक सवाल है तो बीजेपी विरोधाभासी संकेत दे रही है. वहीं जेडीएस की ओर से बीजेपी के साथ किसी भी तरह के गठबंधन के आरोपों को सिरे से खारिज किया जा रहा है. हालांकि जमीनी स्तर पर यह दिन के उजाले की तरह दिख रहा है बीजेपी और जेडीएस रणनीतिक साझेदारी के तहत काम कर रही हैं. खास तौर पर दक्षिणी कर्नाटक में ओल्ड मैसूर के हिस्सों मे ये तालमेल साफ दिखाई दे रहा है.

बीजेपी ने उन सीटों पर कमजोर उम्मीदवार उतारे हैं जहां जेडीएस उम्मीदवार कांग्रेस को हराने की बेहतर स्थिति में नजर आ रहे हैं. हालांकि बीजेपी कर्नाटक में अपने बूते बहुमत की उम्मीद कर रही है, लेकिन अगर वो बहुमत से दूर रहती है तो जेडीएस के साथ गठबंधन की संभावना को मूर्त रूप देने के लिए जमीनी काम अभी से शुरू कर चुकी है. उधर कांग्रेस भी जेडीएस उम्मीदवारों तक स्थानीय दिग्गज नेताओं जैसे कि कर्नाटक के ऊर्जा मंत्री डीके शिवकुमार और पूर्व जेडीएस दिग्गज सीएम इब्राहिम के जरिए संपर्क बना रही है. कांग्रेस को उम्मीद है कि अगर 15 मई को जरूरत पड़ी तो इन्हें अपने साथ लाने में दिक्कत नहीं आएगी.

जेडीएस नेता और पूर्व मुख्यमंत्री एचडी कुमारस्वामी मुख्यमंत्री सिद्धारमैया के प्रति अपनी खुन्नस दिखाने में परहेज नहीं करते. कुमारस्वामी का दृढ़ मत है कि कांग्रेस से तब तक किसी तरह के तालमेल की संभावना नहीं है जब तक वो सिद्धारमैया से पाला नहीं छुड़ा लेती. कांग्रेस में ऐसे कुछ नेता है जो उम्मीद लगाए बैठे हैं कि अगर कांग्रेस बहुमत से दूर रहती है तो उन्हें जेडीएस के साथ गठबंधन की स्थिति में खुद मुख्यमंत्री बनने का मौका मिल सकता है.

10. अब बीजेपी को अपना गेम ऊंचा करने की जरूरत

2009 लोकसभा चुनाव में जीत के कुछ अर्से बाद ही कांग्रेस ने राष्ट्रीय परिदृश्य पर नियंत्रण खो दिया था और फिर इसे कभी दोबारा वापस पाने की स्थिति में नहीं दिखी. सोशल मीडिया पर कांग्रेस सरकार का उपहास उड़ता रहा और राहुल गांधी को पप्पू कह कर निंदा की जाती रही. कांग्रेस ऐसी स्थिति से पार पाने में कुछ नहीं कर सकती थी. लेकिन बीते एक साल से कांग्रेस ने नाटकीय ढंग से अपने मीडिया गेम को ऊपर उठाया है.

रणदीप सुरजेवाला और दिव्या स्पंदना ने पार्टी के लिए मीडिया और सोशल मीडिया ऑपरेशन्स को अंजाम देने में अच्छा काम करके दिखाया है. अब ये बात अलग है कि दोनों की आपस में पटरी ज्यादा नहीं बैठती.

कांग्रेस अब इस निचोड़ पर पहुंची है कि आक्रामण ही अकेला बचाव है और मोदी-शाह की जोड़ी से लड़ाई के लिए अकेला रास्ता यही है कि पार्टी लगातार अटैक के मोड में रहे. बेशक कुछ हमले बढ़ा चढ़ा कर किए गए हों. कांग्रेस बचाव में यही दलील देती है कि ये रुख ठीक वैसा ही जैसा बीजेपी ने कांग्रेस के साथ किया था. इसलिए कांग्रेस उसी की शैली में अब भुगतान कर रही है.

कांग्रेस के ऐसा रुख अपनाने से बीजेपी की सोशल मीडिया पर बढ़त छुप गई है. मोटे तौर पर अब दोनों पार्टियां वहां बराबरी की जंग पर हैं. हालांकि बीजेपी के नेता अब भी कांग्रेस के नेताओं से अधिक लोकप्रिय हैं लेकिन कांग्रेस कई मौकों पर एजेंडा सेट करने में कामयाब रही है.

पहले यह कांग्रेस थी, जिसे अपने सोशल मीडिया गेम को दुरूस्त करने के लिए मदद की जरूरत लगती थी. लेकिन अब बीजेपी को 2019 चुनाव से पहले सोशल मीडिया फ्रंट पर अपने कौशल को ऊंचा उठाने की आवश्यकता लगती है. तभी वो इस मोर्चे पर अपनी बढ़त बरकरार रखने की उम्मीद कर सकती है.

बीजेपी नेतृत्व अब कहता है कि सोशल मीडिया चुनाव का रुख नहीं मोड़ता और ये बस मीडिया पर किस्सागोई को आकार देने में ही उपयोगी रहता है.

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लेखक

राहुल कंवल राहुल कंवल @rahul.kanwal.52

लेखक टीवी टुडे ग्रुप के मैनेजिंग एडिटर और प्रख्यात टीवी एंकर हैं.

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