New

होम -> सियासत

बड़ा आर्टिकल  |  
Updated: 08 फरवरी, 2023 07:39 PM
अशोक भाटिया
अशोक भाटिया
 
  • Total Shares

इस साल मई में कर्नाटक में विधानसभा चुनाव होना है. अभी यहां भारतीय जनता पार्टी सत्ता में है. सूबे में चुनावी माहौल अभी से बनने लगे हैं. राजनीतिक दलों ने पूरी ताकत झोंक दी है. हाल ही में राहुल गांधी ने यहां 20 दिन तक भारत जोड़ो यात्रा की. राहुल की इस यात्रा को काफी समर्थन भी मिला. यही कारण है कि अब भाजपा ने नए सिरे से यहां गणित बैठाना शुरू कर दिया है क्योकि भाजपा दक्षिण के राज्यों में भी कमल खिलाना चाहती है. लेकिन 2023 में कर्नाटक चुनाव एक बार फिर पार्टी के लिए खासा अहम हो गया है. पार्टी के सामने चेहरे की क्राइसिस है. क्या यही वजह है कि पार्टी एक बार फिर से प्रदेश के दिग्गज नेता बीएस येदियुरप्पा को चुनावी तौर पर सक्रिय करना चाहती हैं?

कर्नाटक में भाजपा की सरकार पार्टी के लिए दक्षिण के राज्यों में सत्ता का गेटवे है. लेकिन इस साल चुनौतियां भी कम नहीं. भाजपा का खास चेहरा बीएस येदियुरप्पा अस्सी साल के हो रहे हैं. बढ़ती उम्र उनकी राजनीतिक सक्रियता में सबसे बड़ी बाधा है. मुख्यमंत्री पद से हटाये जाने के बाद से वो नाराज भी बताये जा रहे हैं. उनकी नाराजगी का जमीनी असर न दिखे, इसके लिए प्रयास तेज हो गये हैं. बीएस येदियुरप्पा के सत्ता से अलग होने के अलावा मौजूदा मुख्यमंत्री बसवराज बोम्मई भी विपक्ष के निशाने पर हैं. विपक्ष लगातार उन पर भ्रष्टाचार के आरोप लगा रहा है.  चुनावी दौर में ये दो मुश्किलें भाजपा के लिए कठिनाई खड़ी ना करे, इसके लिए पार्टी ने नई-नई रणनीतियां बनानी शुरू कर दी है.

650x400_020823063932.jpg

पचहत्तर की उम्र पार होने के बाद कर्नाटक की राजनीतिक बिसात पर पूर्व मुख्यमंत्री बीएस येदियुरप्पा जैसे हाशिये पर आ गये थे लेकिन चुनावी बिगुल फूंके जाने के बाद वो एक बार फिर सक्रिय हो गए हैं. भाजपा के दिग्गजों ने उनकी तलाश तेज कर दी. पिछले दिनों प्रधानमंत्री मोदी और बीएस येदियुरप्पा की मुलाकात भी हुई थी. इसके बाद कई तरह के कयास लगने शुरू हो गये हैं.  समझा जा रहा है चुनाव से पहले उनकी नाराजगी को दूर करने की कोशिश की जा रही है. कर्नाटक की राजनीति में बीएस येदियुरप्पा की अपनी बिसात है. वो कर्नाटक के चार बार मुख्यमंत्री रह चुके हैं. येदियुरप्पा की लिंगायत समुदाय पर अच्छी पकड़ मानी जाती है. कर्नाटक में उनकी आबादी करीब 17-18 फीसदी है.

येदियुरप्पा की अगुवाई के चलते लिंगायत समुदाय को भाजपा का ही समर्थक माना जाता है. लेकिन भाजपा यहां जिस एक और समुदाय को लुभाना चाहती है, वो है-वोक्कालिंगा. दोनों समुदाय की आबादी को अगर मिला दें तो करीब 33-34 फीसदी वोट बैंक बन जाता है. भाजपा के मुख्य रणनीतिकार अमित शाह ने कर्नाटक में 224 में से 136 सीटें जीतने का लक्ष्य रखा है.  यह कितना आसान होगा, ये फिलहाल नहीं कहा जा सकता. क्योंकि कर्नाटक में कांग्रेस पार्टी ने भाजपा को कड़ी चुनौती देने के लिए कमर कस ली है. भाजपा अगर गुजरात मॉडल को पेश करना चाहती है तो दूसरी तरफ कांग्रेस के पास भी हिमाचल जीत का परचम लहराने का मौका है. पिछले दिनों कांग्रेस महासचिव प्रियंका गांधी ने बैंगलुरु में संबोधित किया था और महिलाओं के लिए नई योजना की घोषणा की थी. कांग्रेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष बनें मल्लिकार्जुन खरगे का यह गृहराज्य है और वे राष्ट्रीय स्तर पर कर्नाटक के दिग्गज नेता माने जाते हैं. एक और पहलू है जिसका कांग्रेस को फायदा मिल सकता है. मल्लिकार्जुन खरगे दलित समुदाय से आते हैं. कर्नाटक में सबसे बड़ी आबादी दलित मतदाताओं की है.

कर्नाटक में अनुसूचित जाति की आबादी 23% है. यहां विधानसभा की 35 सीटें एससी के लिए आरक्षित हैं. पिछली बार यानी 2018 के विधानसभा चुनाव में भाजपा को सबसे बड़ी पार्टी बनाने में दलितों का बड़ा योगदान रहा था. भाजपा को इस समुदाय का 40 फीसदी वोट मिला था.  जबकि 2013 में कांग्रेस को 65 फीसदी दलित वोट मिले थे. पिछले कुछ सालों से सूबे में एससी समुदाय के बीच कांग्रेस का जनाधार सिकुड़ते जा रहा था. मल्लिकार्जुन खरगे के पार्टी अध्यक्ष बनने से कर्नाटक का दलित वोट बैंक फिर से कांग्रेस की ओर लामबंद हो सकता है. कर्नाटक में भाजपा की लंबे समय से सत्ता है. लेकिन आंतरिक सर्वे से पार्टी को झटका लगता दिख रहा है. सर्वे के मुताबिक उतनी सीटें आती नहीं दिख रही है, जितनी सीटों का अमित शाह ने लक्ष्य रखा है.  और यही वजह है कि पार्टी एक बार फिर से प्रदेश के दिग्गज नेता बीएस येदियुरप्पा को आगे कर रही है.  

भाजपा के साथ दूसरी मजबूरी यह भी है कि कर्नाटक में भाजपा के पास कोई ऐसा चेहरा नहीं, जिसकी बदौलत आसानी से सरकार बन जाये. दरअसल कर्नाटक में भाजपा के दिग्गज नेता और पूर्व मुख्यमंत्री बीएस येदियुरप्पा की दमदार छवि रही है.  साल 2008 में कर्नाटक में भाजपा को सत्ता दिलाने में उनका बड़ा योगदान माना जाता है.  उनका ताल्लुक किसान परिवार से रहा है और उन्हें लिंगायत समुदाय का पूरा समर्थन है.  ऐसा समझा जाता है राज्य की 224 सीटों में से 40 से अधिक सीटों पर उनके व्यक्तित्व का सीधा दबदबा है. लेकिन पार्टी नियम के मुताबिक बढ़ती उम्र के चलते साल 2021 में उन्हें मुख्यमंत्री पद से हटना पड़ा था.  पद से हटने के बाद समझा जा रहा है वो पार्टी से नाराज चल रहे हैं. लेकिन चुनाव नजदीक आने पर उनकी नाराजगी पार्टी को कहीं भारी न पड़ जाये.  लिहाजा 2023 के विधानसभा चुनाव के दौरान पार्टी फिर से उन्हें सक्रिय करना चाहती है.

कर्नाटक के अंदर 2018 में जब विधानसभा चुनाव हुए थे तो भारतीय जनता पार्टी सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी थी. पार्टी को स्पष्ट बहुमत तो नहीं था, लेकिन 104 सीटों पर जीत जरूर मिली थी. सरकार बनाने के लिए कर्नाटक में बहुमत का आंकड़ा 113 है. राज्य में कांग्रेस और जेडीएस ने गठबंधन करके सरकार बनाई. हालांकि, बाद में दोनों पार्टियों   के कई विधायकों ने पाला बदल लिया. इन विधायकों की मदद से भाजपा ने सरकार बनाई. बीएस येदियुरप्पा राज्य  के मुख्यमंत्री बने. लेकिन 2021 में भाजपा नेतृत्व ने उनकी जगह बसवराज बोम्मई को मुख्यमंत्री बना दिया. कहा जाता है कि बोम्मई को येदियुरप्पा की सलाह पर ही मुख्यमंत्री बनाया गया. हालांकि, उसके बाद से येदियुरप्पा जरूर धीरे-धीरे साइड लाइन चले गए. कर्नाटक में येदियुरप्पा की पकड़ काफी मजबूत मानी जाती है. खासतौर पर लिंगायत समुदाय में उन्हें काफी पसंद किया जाता है. 

भाजपा के राष्ट्रीय महासचिव (संगठन) बीएल संतोष भी कर्नाटक से ताल्लुक रखते हैं. इस चुनाव में वह भी काफी एक्टिव हैं. हालांकि, बताया जाता है कि बीएल संतोष, बीएस येदियुरप्पा और बोम्मई के बीच सब कुछ ठीक नहीं चल रहा है. भाजपा में ये तीन फ्रंट सामने हैं. इसके अलावा बोम्मई कैबिनेट के भी कुछ सीनियर मंत्री ऐसे हैं, जो मुख्यमंत्री बनने का सपना देख रहे हैं.  इनका एक अलग मोर्चा बन चुका है. देखा जाय तो मौजूदा समय कर्नाटक के अंदर सरकार और पार्टी दोनों ही कई चुनौतियों से जूझ रही है. हालांकि, इनमें से जो सबसे बड़ी चुनौती है वो कार्यकर्ता, संगठन के बड़े नेता और संगठन-सरकार में तालमेल की कमी है.इसके आलावा  पिछले साल कर्नाटक के अंदर दो हिंदूवादी युवा नेताओं की हत्या हो गई. इन मामलों में सरकार के रवैए पर  सवाल हुए. इससे संघ से जुड़े दूसरे संगठनों के कार्यकर्ता और युवा नेता नाराज चल रहे हैं.

एबीवीपी, बजरंग दल, विश्व हिंदू परिषद के कार्यकर्ता और नेता सरकार से नाखुश हैं. ये लोग बोम्मई को मुख्यमंत्री पद से हटाने की मांग कर रहे हैं. बोम्मई के अलावा बीएस येदियुरप्पा, बीएल संतोष का भी अलग गुट प्रदेश में काम कर रहा है. इसके अलावा कुछ कैबिनेट मंत्री भी हैं, जो खुद को मुख्यमंत्री पद का मजबूत दावेदार मानते हैं. संगठन में कई गुट बनने से भी पार्टी को नुकसान होता दिख रहा है. आलम ये है कि एक गुट के समर्थक नेता किसी दूसरे गुट के बुलावे पर बैठक तक में शामिल नहीं होते. यहां तक की पार्टी के एक वरिष्ठ नेता खुद को सुपर मुख्यमंत्री मानकर चलते हैं. सीएमओ का कोई भी प्रोटोकॉल मानने से साफ इंकार कर देते हैं.  

कर्नाटक में राहुल गांधी की भारत जोड़ो यात्रा बीस दिनों तक रही. इस यात्रा के बाद कर्नाटक कांग्रेस ने नारा दिया कि 'अबकी बार, कांग्रेस 150 पार'. राहुल ने कर्नाटक के अंदर काफी रणनीति तैयार की. इसका अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि कर्नाटक में यात्रा के दौरान सोनिया गांधी और प्रियंका गांधी भी पहुंची. राहुल की यात्रा का रूट और सियासी समीकरण समझें तो ये यात्रा दक्षिण कर्नाटक से होकर गुजरी. यात्रा सात जिलों की सात संसदीय सीटों चामराजनगर, मैसुरू, मांड्या, तुमकुर, चित्रदुर्ग, बेल्लारी और रायचूर से होकर गुजरी. इन सात संसदीय इलाकों में करीब 21 विधानसभा सीटें आती हैं. दक्षिणी कर्नाटक का यह पूरा हिस्सा वोक्कालिंगा समुदाय का गढ़ माना जाता है. जो मूल रूप से जेडीएस से जुड़ा है. ऐसे में जेडीएस का हिस्सा पाने के लिए कांग्रेस और भाजपा दोनों ही अपनी अपनी निगाहें लगाए बैठी हैं. खासकर मैसूर इलाके में पारंपरिक रूप से लड़ाई कांग्रेस और जेडीएस के बीच में है. हालांकि, यहां भाजपा अपना पैर जमाने की कोशिश कर रही है, लेकिन वह ज्यादा सफल नहीं हो पा रही. बताया जा रहा है कि  भाजपा  ने जिस फॉर्मूले के दम पर गुजरात में 156 सीटें जीतीं, वही फॉर्मूला अब पार्टी कर्नाटक में भी आजमाने वाली है. इसके तहत करीब 30% विधायकों के टिकट काटे जाएंगे. टिकट उनके कटेंगे, जिनकी सर्वे में रिपोर्ट नेगेटिव आई है. यहां गुजरात की तरह मुख्यमंत्री  नहीं बदला जा रहा, क्योंकि अब चुनाव में तीन महीने ही बचे हैं. ये तय है कि भाजपा  जीती और सत्ता में लौटी तो भी बसवराज बोम्मई को फिर से  मुख्यमंत्री  नहीं बनाया जाएगा.चुनाव से पहले प्रदेश संगठन में भी बड़ा बदलाव होने जा रहा है. भाजपा  के एक सीनियर लीडर के मुताबिक, कर्नाटक के प्रदेश अध्यक्ष समेत उनकी पूरी टीम को जल्द हटाया जाएगा. इसका मकसद लोगों तक ये मैसेज पहुंचाना है कि पुराने लोगों को हटाया जा रहा है और नए लोग लाए जा रहे हैं.

गुजरात की तरह ही अपनी जीत को दोहराने के लिए भाजपा, पार्टी के मंझे हुए संगठनकर्ता प्रधान को जिसे  पिछले साल उत्तर प्रदेश में हुए विधानसभा चुनाव समेत अतीत में भी कई चुनावों का जिम्मा सौंपा जा चुका है को कर्णाटक का प्रभारी नियुक्त किया है . इन्ही के कारण  उत्तर प्रदेश चुनाव में भाजपा ने बड़े अंतर से अपनी सत्ता बरकरार रखी थी. मांडविया भी अपने गृह राज्य गुजरात में अनुभवी संगठनकर्ता रहे हैं. पूर्व भाजपा महासचिव प्रधान ने 2013 में कर्नाटक, बिहार, उत्तराखंड और झारखंड विधानसभा चुनावों में भी अहम भूमिका निभाई थी.  वह 2015 और 2018 में क्रमश: असम और मध्य प्रदेश विधानसभा चुनाव के लिए भी पार्टी के प्रभारी थे.  भाजपा की उनसे अपेक्षा रहेगी कि वह एक कुशल संगठनकर्ता के रूप में राज्य में पार्टी संगठन को मजबूत करें और स्थानीय इकाई में आंतरिक समस्याओं को दूर करें, ताकि इस महत्वपूर्ण दक्षिणी राज्य में पार्टी सत्ता बरकरार रखने के अधिकतम प्रयास कर सके.

लेखक

अशोक भाटिया अशोक भाटिया

अशोक भाटिया, वरिष्ठ स्वतंत्र पत्रकार ,लेखक एवं टिप्पणीकार पत्रकारिता में वसई गौरव अवार्ड – 2023 से सम्मानित, वसई पूर्व - 401208 ( मुंबई ) फोन/ wats app 9221232130 E mail – vasairoad.yatrisangh@gmail।com

iChowk का खास कंटेंट पाने के लिए फेसबुक पर लाइक करें.

आपकी राय