ओपिनियन: डिप्लोमेसी और हकीकत में पिसता कश्मीर मुद्दा
केंद्र में सत्ता चला रही बीजेपी जम्मू-कश्मीर में भी सत्ता की भागीदार है. लेकिन परेशानी यहीं से शुरू होती है. बीजेपी या कहें मोदी अब कश्मीर को किसी विपक्षी पार्टी द्वारा शासित राज्य की तरह मानकर उपेक्षित नहीं छोड़ सकते. हर मोर्चे पर दिखाई पड़ना, उनके लिए अब मजबूरी बन गया है.
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केंद्र में सत्ता चला रही बीजेपी जम्मू-कश्मीर में भी सत्ता की भागीदार है. लेकिन परेशानी यहीं से शुरू होती है. बीजेपी या कहें मोदी अब कश्मीर को किसी विपक्षी पार्टी द्वारा शासित राज्य की तरह मानकर उपेक्षित नहीं छोड़ सकते. हर मोर्चे पर दिखाई पड़ना, उनके लिए अब मजबूरी बन गया है. जिसमें एक ओर पाकिस्तान और कश्मीरी अलगाववादियों से बातचीत की मजबूरी है तो दूसरी ओर राज्य के तनावपूर्ण हालात. इस कश्मकश में दोष किसका है? कुछ अनसुलझे सवाल कायम हैं-
पाकिस्तान और कश्मीर में शांति लाने की जिम्मेदारी भारत की है?
आतंकवाद इसकी जड़ है. पाकिस्तान में पला-बढ़ा. पहले कश्मीर और अब पाकिस्तान में ही मुसीबत बन गया है. पाकिस्तान में बम धमाका होता है, तो उसकी साजिश किसी विदेशी धरती पर रची गई नहीं होती. उसी के घर से निकलते हैं आतंकी और वहीं अपना काम दिखा जाते हैं. फिर जब कुछ मिशन मिलता है, चाहे वह किसी आतंकी संगठन की ओर से हो या आईएसआई की ओर से, तो वे भारत का रुख भी कर लेते हैं. तो भारत की जिम्मेदारी सिर्फ अपनी सुरक्षा की खातिर पाकिस्तान को उसकी जिम्मेदारी समझाने की ही रहेगी. जो वह वर्षों से करता रहा है.
अलगाववादियों से डिप्लोमेसी कैसी?
कश्मीर की राजनीति में हुर्रियत एक अहम किरदार है. अरबी शब्द हुर्रियत का मतलब है आजादी. जब इस संगठन की नीव ही भारत से अलग होने के विचार पर पड़ी है तो उनसे बात करके क्या हासिल होगा. ऑल पार्टी हुर्रियत कान्फ्रेंस के लगभग सभी बड़े नेता दिल्ली से ज्यादा इस्लामाबाद के करीबी है. उन्हें पाकिस्तान और अरब देशों से अच्छी-खासी फंडिंग होती है. ताकि वे जरूरत पड़ने पर कश्मीर की शांति में तनाव घोल सकें. जब भारत सरकार नक्सलियों को कोई सीधी बात नहीं करती, तो हुर्रियत को क्यों मान्यता देती रही है.
क्या अफगानिस्तान से नाटो फौजों की वापसी चिंता का कारण है?
अमेरिका के नेतृत्व वाली नाटो फौजें अफगानिस्तान से जा रही हैं. ऐसे में इस खतरे का अंदेशा जताया जा रहा है कि जिस तरह 1984 में अफगानिस्तान से सोवियत सेनाओं के वापस जाने पर तालिबान का उदय हुआ, वैसे ही अब तालिबान और अलकायदा फिर से सिर उठाएगा. इससे कश्मीर में भी आतंकवाद बढ़ने की आशंका है. यदि आतंकियों के ये मंसूबे हैं तो क्या वे किसी डिप्लोमैसी से मानेंगे. यदि ऐसा होता है तो पाकिस्तान के पास आसानी होगी, यह कहने में कि हमला तो अफगानिस्तान वाले आतंकी कर रहे हैं.
कश्मीरी युवाओं के भविष्य की चिंता कौन करेगा?
पिछले 30 साल से कश्मीर में चले आ रहे संघर्ष से सबसे ज्यादा किसी ने नुकसान उठाया है तो वह हैं कश्मीरी युवा. राजनीति की हवा और माहौल ऐसा बना दिया गया कि भारत उन्हें दुश्मन लगने लगा. इस विपरीत मनोदशा ने लंबे समय तक उन्हें न सिर्फ पढ़ाई और रोजगार के मौकों से महरूम रखा, बल्कि आतंक की राह पर भी ढकेला. कश्मीर घाटी में राजनीति करने वाली पार्टियां अब भी भारत से अपने विरोध की आवाज छेड़कर इन युवाओं का ध्यान भटकाती हैं. पत्थरबाजी, आगजनी की घटना में ये फिर आगे आ जाते हैं. आजादी-आजादी के नारे लगाते हुए. इन्हें इस संघर्ष के रास्ते से हटाने की परवाह किसे है.
कश्मीर यानी घाटी ही या जम्मू और लद्दाख भी?
कश्मीर के अलगाववादी सिर्फ कश्मीर घाटी की बात करते हैं. उनकी विचारधारा को जम्मू और लद्दाख में बिल्कुल तवज्जो नहीं मिलती. नेशनल कॉन्फ्रेंस और पीडीपी भी ज्यादातर इसी लाइन पर काम करती रही हैं. हाल के विधानसभा चुनाव में तो पीडीपी को घाटी से ही सीटें मिली हैं. ऐेसे में अब सवाल उठ रहा है कि क्या उसकी चिंता सिर्फ घाटी के अपने वोटरों और उनकी भावनाओं तक ही सीमित है.
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