कश्मीरी पंडितों का दर्द: दुखदायी पन्नों की दस्तक
जम्मू और कश्मीर की रियासत भारत माता का माथा है, जिसके बिना भारत का अस्तित्व अधूरा है. इस रियासत की राजनीति कुछ विचित्र रही है. उथल-पुथल, उतार-चढ़ाव, तोड़-फोड़ की एक लम्बी दास्तान है जिसको आंसुओं और हंसी के मिश्रण से लिखा जा सकता है.
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एक वर्ष पहले अलमारी में किताबें समेट रही थी. कई पुराने पन्ने व पुरानी डायरी से मिलन हुआ. बड़ी प्रसन्नता हुई पुरानी प्रतिच्छाया को देखकर. पुराना जो भी है जीवन में बस एक याद बनकर आपके पास रहता है, फिर चाहे वो किताबें हो या कोई शब्दों से सजे फटे पन्ने या अनेक विचारों से पिरोई कई किताबें जीवित कर देती हैं. यूं ही समेटते समेटते मुझे वो मिला जिसका मिलना मुझे अचंभित सा कर गया. मेरे दादाजी श्री द्वारका नाथ सप्रू ‘मुसाफ़िर’ की वो डायरी जो कश्मीर में शुरू हुई उन घातक परिस्थितियों का प्रमाण सिद्ध हो सकती है, या कहूं प्रमाण ही है. दादाजी गवर्नमेंट हायर सेकंड्री स्कूल भदेरवाह जम्मू के प्रधानाचार्य के पद से निवृत्त हुए. आज आंख की पुतली पर बने आंसू के शीशों से उन्हें आकाश में चन्द्रमा के मित्र बने एक तारे के रूप में देखती हूं. बड़े खुश दिखते है वो और मैं उन्हें देखकर खुश हो जाती हूँ. भाग्यशाली हैं वो जो आकाश मिला है रहने को, हम धरती वाले तो विष में तैर रहे हैं. न जाने कब डूब जाएँ. दादाजी के कश्मीरी पंडितों की व्यथा बताने वाले इन पन्नों को आप सभी के बीच पहुंचाने का उद्देश्य बहुत प्रगाढ़ है, क्यूंकि ये डायरी के पन्ने आखों देखा हाल बताते हैं.
द्वारका नाथ सप्रू ‘मुसाफिर’ की डायरी से-
मेरा जन्म 16 जुलाई 1926 को हुआ. मैं अपने बचपन की राम कथा सुनाने से पाठकों को तंग नहीं करना चाहता हूं. हां! कुछ ऐसी बातें लिखना चाहता हूं जिसने हमारे वातावरण का निर्माण किया. जम्मू और कश्मीर की रियासत भारत माता का माथा है, जिसके बिना भारत का अस्तित्व अधूरा है. इस रियासत की राजनीति कुछ विचित्र रही है. उथल-पुथल, उतार-चढ़ाव, तोड़-फोड़ की एक लम्बी दास्तान है जिसको आंसुओं और हंसी के मिश्रण से लिखा जा सकता है.
सबसे पहला राजनीतिक स्वागत मेरे जीवन में 1931 में हुआ. यह साम्प्रदायिक दंगे का पहला दृश्य था. पंडित बिरादरी को महाराजा हरी सिंह का हामी माना गया. हिन्दू ताजरों को मुस्लिम विरोधी तथा अ-कश्मीर जान कर उन पर हमले किए गए. लूट मार का बाजार गर्म हुआ अनेक हिन्दू व्यापारियों को मौत के घाट उतारा गया. उनके माल को लूटा गया. जो भी कश्मीरी पंडित मिला उसकी खूब पिटाई की गई. घर के अन्य सदस्यों के साथ हम कई दिन घरों में बंद रहे. दिन को क्या रात को भी जागना पड़ता था कि कहीं लूट मार का बाजार गर्म न हो. बच्चों के लिए खेलना दर किनार, रोना या किलकारियां करना भी बंद था. ‘कन्य कूट’ के गाँव में 21 पंडितों को ओखलों में डाल कर कूट कूट कर मारा गया. मारने वालों को फांसी की सजा दी गई. इनको आजादी के जंग के शहीद माना गया और शहीद मजार की नीव डाली गई. जहाँ आज भी शहीद दिवस 13 जुलाई को मनाया जाता है. इसी भूमिका की पृष्ठ भूमि पर श्री शेख मुहम्मद अब्दुल्ला का राजनितिक जीवन आरम्भ हुआ.
इधर महाराजा हरी सिंह उदारचित्त हो कर मुसलमानों को उन्नति के मार्ग पर अग्रसर करना चाहते थे. मुफ्त और जरूरी शिक्षा का प्रबंध किया गया. स्पेशल मुस्लिम इंस्पेक्टर की नियुक्ति करके मुसलमानों में शिक्षा का प्रचार किया गया. उनकी नौकरियों का यथा योग्य प्रबन्ध किया गया. मुसलमान हरी सिंह के आभारी होने लगे. इधर शेख साहब अपनी साम्प्रदायिकता का प्रचार कर रहे थे. मुस्लिम कांफ्रेंस के पंडाल पर घोषणा करते हुए उन्होंने अपने भावों को इस प्रकार प्रकट किया ‘बटव, रोलिव, गोलिव, या चोलिव’ अर्थात ‘पंडितों मिलो, मरो या भाग जाओ’ पंडितों के प्रति घृणा के भाव हर एक मुसलमान के मन में भर दिया.
इस ‘मुसाफिर’ की डायरी ने कश्मीर में चल रहे हालातों की व्यथा का एक मार्मिक वर्णन किया है. उस समय विषैली वादियों में सांस लेता हर कश्मीरी पंडित किस तरह से डर की चार दीवारियों में दबा हुआ था उसी का सशक्त प्रमाण है ये दुखदायी पन्ने. इन पन्नों ने दरार भरी दस्तक मेरे मन में छोड़ दी है, और जिसने कभी कश्मीर को ठीक से देखा भी नहीं उसके मन में शरणार्थी होने की एक छवि बना दी है. यही कहूँगी कि अपने देश में मैं शरणार्थी हूँ.
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