खड़गे जी की ज़ुबान जब भी फिसलती है, कुत्ते पर आकरअटकती है!
निश्चित ही खुन्नस है कुत्ते से, तभी तो रिपीट दर रिपीट कर देते हैं. पिछली बार 'पिटाई' (पलटवार) भी हुई थी और एक बार फिर हो जाएगी, 'मत चूको चौहान' वाली कहावत चरितार्थ करने का पल आने भर की देर है.
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निश्चित ही खुन्नस है कुत्ते से, तभी तो रिपीट दर रिपीट कर देते हैं. पिछली बार 'पिटाई' (पलटवार) भी हुई थी और एक बार फिर हो जाएगी, 'मत चूको चौहान' वाली कहावत चरितार्थ करने का पल आने भर की देर है.यूं तो कुत्ते सर्वोच्च नेता के प्रिय हैं, ख़ास है. इतने ख़ास हैं कि उनके ‘पीदी’ के ऑफिसियल ट्विटर हैंडल होने की कल्पना भी की गई थी कभी. इतना ही नहीं, पिछले दिनों मध्य प्रदेश में ‘नफ़रत छोड़ो भारत जोड़ो’ का संदेश देते दो कुत्तों की जोड़ी ने उनका स्वागत किया था. 'पीदी' से तो उनके पार्टी मैनों की डाह छिपी नहीं थी जिसका खुलासा एक महत्वपूर्ण पार्टी मैन ने तब किया जब पाला बदल लिया. और देखिए क्या विडंबना है जहां सर्वोच्च नेता नफरत के बाज़ार में मोहब्बत की दुकान खोले बैठे हैं, उम्रदराज़ खड़गे जी नफ़रत उड़ेलने के लिए कुत्ते को कमतर बता दे रहे हैं, आखिर ‘साडा कुत्ता कुत्ता तुआडा कुत्ता टॉमी’ वाली मानसिकता जो हावी है. खड़गे जी सीजंड नेता हैं फिर भी पॉलिटिकल सीजन नहीं भांप पाते. 2017 में लोकसभा में विपक्ष के नेता की हैसियत से मल्लिकार्जुन खड़गे ने केंद्र सरकार पर वार करते हुए कहा था, 'देश की एकता के लिए गांधी जी ने कुर्बानी दी, इंदिरा जी ने कुर्बानी दी, आपके घर से कौन गया? एक कुत्ता भी नहीं गया.'
जिस हिसाब से खड़गे की जुबान फिसल रही है यक़ीनन कांग्रेस मुश्किल में आ सकती है
उनके इस तंज का जवाब पीएम नरेंद्र मोदी ने अपने ही चिर परिचित अंदाज में दिया था, 'चंपारण सत्याग्रह शताब्दी का वर्ष है. इतिहास किताबों में रहे तो समाज को प्रेरणा नहीं देता. हर युग में इतिहास को जानने और जीने का प्रयास जरूरी होता है. उस समय हम थे या नहीं थे? हमारे कुत्ते भी थे या नहीं थे?... औरों के कुत्ते हो सकते हैं... हम कुत्तों वाली परंपरा में पले-बढ़े नहीं हैं. 'शायद कुत्ते को उद्धृत करना उनका शगल है तभी तो करारा तमाचा भी वे साल भर में ही भूल गए और एक बार फिर अक्टूबर 2018 में एक पब्लिक रैली में बोल बैठे कि देश की आजादी के लिए RSS और BJP के 'घर के एक कुत्ते' ने भी बलिदान नहीं दिया.
लेकिन सत्ताच्युत अवस्था का दशक पूरा होने को आया, खड़गे जनाब को सद्बुद्धि नहीं आयी. लगता है अब उन्हें नेता प्रतिपक्ष का पद सुहाने लगा है, अंदाज भी शायराना हो गया है आखिर लोकसभा नहीं तो राज्यसभा मिल ही जाती है. तभी तो बीते दिन राजस्थान के अलवर में एक जनसभा को संबोधित करते हुए खड़गे जी ने कहा कि हमारे नेताओं ने देश के के बलिदान दिया है, कुर्बानी दी है. आपके यहां से कोई कुत्ता भी मरा है क्या?
उन्होंने कहा कि इंदिरा गांधी ने देश की एकता के लिए कुर्बानी दी है. राजीव गांधी ने देश के लिए जान दे दी. उन्होंने कहा कि आपने क्या कोई कुर्बानी दी है...लेकिन फिर भी वो देशभक्त और हम कुछ भी बोलेंगे तो देशद्रोही। फिर शायराना अंदाज भी उभरा उनका, 'कत्ल हुआ हमारा कुछ इस तरह किश्तों में... कभी कातिल बदल गया, कभी खंजर बदल गया !'
और साथ ही जोश खरोश में 'उनके' साथ कैट एंड माउस खेलने की ज़ुर्रत भी कर बैठे, कह जो दिया पीएम बाहर शेर जैसी बात करते हैं, लेकिन असल में वह चूहे की चाल चलते हैं. अब होगा क्या ? लाइटर नोट पर कहें एक तो 'सर्वोच्च नेता' का 'पीदी' बुरी तरह घबड़ा गया है और दूजे महाबली रावण भी सकते में हैं ! पीदी को ‘उनकी’ याद आ रही है जिन्होंने कार के नीचे आए ‘सहोदर’ के लिए दुख जताया था.
तो क्या पैट के रूप में कुत्ते को रखना या यूं ही पुचकारना आदि महज दिखावा है ? और हकीकत में क्या होगा ? 'उन्हें' खूब खाद पानी मिल गया और अब जल्द ही देखेंगे उनके भाषणों की धार ! और आज का चीन यही तो चाहता है. धरती पे कब्जा करना उसका मकसद है ही नहीं. अगर चीन जमीन कब्जाने के फेर में होता तो उसकी सेना ने तोप-गोली के इस्तेमाल से परहेज न किया होता. भारत की राष्ट्रीय सुरक्षा के मामले में विभाजित राजनीति ही कुटिल चीन का मकसद है.
राहुल गांधी कह रहे हैं कि चीन ‘हमारी जमीन पर कब्जा’ कर रहा है और प्रधानमंत्री खामोश हैं. तृणमूल कांग्रेस से लेकर ओवैसी की एआईएमआईएम तक तमाम दूसरे विपक्षी दल भी जमीन की ही बात कर रहे हैं. जबकि चीन भारत को विविध, पेचीदा रणनीतिक और राजनीतिक संदेश दे रहा है. इसके बदले हम जमीन और सैन्य व सामरिक मसलों पर ही जोर देकर अपना भला नहीं कर रहे हैं.
2022 मे अगर हमारी सामूहिक सोच अभी भी सीमा पर अपनी चौकियों की रक्षा करने तक सिमटी हुई है, जैसा 1962 में था, समझ लीजिये चीन जीत गया. बजाय कब्जाने के रणनीतिक रूप से भारत को कमजोर कर देना बेहतर विकल्प है चीन के लिए. यही दुनिया के हर सुपर पावर की कूटनीति है. और अंत में सौ बातों की एक बात, चीन के मामले में पारदर्शिता नहीं, दूरदर्शिता के साथ दूरगामी नीति की जरूरत है जिसके तहत हम कॉस्ट इफेक्टिव आत्मनिर्भरता की ओर बढ़ना अपेक्षित है. फिर आजकल वॉर क्या है ?
प्रोपेगेंडा ही तो है ! राष्ट्रीय सुरक्षा - आंतरिक हो या बाह्य - के मद्देनजर सच जानना ही क्यों हैं ? कुरेदना ही क्यों है ? जान सकते हैं तो क्लोज डोर डायलाग कर लीजिये जिसके लिए आपसी विश्वास पहली और आखिरी शर्त है. जब भूतपूर्व गृहमंत्री चिदंबरम सरीखे विद्वान शख्स संसद में जानना चाहेंगे कि पीएम ने पिछले दिनों G-20 के दौरान जिनपिंग से हंसते हुए(वीडियो का जिक्र करते हुए) क्या बात की तो विश्वास कीधज्जियां उड़ गई ना !
और फिर लॉजिक देंगे 500 करोड़ के डिफेन्स कैपिटल एक्सपेंडिचर के लिए ग्रांट का तो तरस ही आएगा. दरअसल उनकी बुद्धि कुंठित हो गई है. दुश्मन को दुश्मन की स्ट्रेटेजी से ही जवाब दीजिए ना. चीन कब सच बोलता है या सच बाहर आने देता है ? आ भी गया तो स्वीकारता नहीं। यही तो लोकतंत्र बनाम जनतंत्र है, DEMOCRACY Vs PEOPLE'S DEMOCRACY है. कम से कम राष्ट्रहित में राष्ट्र की सुरक्षा के लिए राष्ट्र के सुरक्षा मामलों में जनतंत्र सरीखी गोपनीयता कायम कीजिए, बाकी लोकतंत्र लोकतंत्र खूब कीजिये, किसने रोका है?
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