स्वीडन में क्यों भड़के मुसलमान और क्यों हो रहे हैं दंगे? जानिए, क्या है पूरा मामला
ग्लोबल पीस इंडेक्स 2021 में 15वें स्थान पर रहने वाला स्वीडन (Sweden) इन दिनों 'सांप्रदायिक दंगों' की आग में झुलस रहा है. अपने 'बहुसंस्कृतिवाद' और 'शांतिप्रियता' के लिए मशहूर छोटे से इस देश स्वीडन में गाड़ियों को फूंकने से लेकर बाजारों में लूटपाट (Communal Riots) तक की घटनाएं लगातार सामने आ रही हैं.
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ग्लोबल पीस इंडेक्स 2021 में 15वें स्थान पर रहने वाला यूरोपीय देश स्वीडन इन दिनों 'सांप्रदायिक दंगों' की आग में झुलस रहा है. अपने 'बहुसंस्कृतिवाद' और 'शांतिप्रियता' के लिए मशहूर छोटे से इस देश स्वीडन में गाड़ियों को फूंकने से लेकर बाजारों में लूटपाट तक की घटनाएं लगातार सामने आ रही हैं. इंडिया टुडे की एक रिपोर्ट के अनुसार, हिंसक झड़पों में 40 से ज्यादा लोग घायल हो चुके हैं. ईस्टर के त्योहार के बाद से ही स्वीडन के पूर्वी हिस्से के कुछ शहरों में प्रदर्शन लगातार उग्र होता जा रहा है. ये काफी हद तक ठीक उसी तरह ही है, जैसा आजकल भारत के कुछ हिस्सों में माहौल बना हुआ है. आसान शब्दों में कहा जाए, तो जैसे भारत में हिंदु-मुस्लिम तनाव है, वैसे ही स्वीडन में डेनिश-स्वीडिश और मुस्लिम समुदाय आमने-सामने आ गए हैं. और लंबे समय से चली आ रही खींचतान अब 'सांप्रदायिक दंगों' का रूप ले रही है. वैसे, स्वीडन के शहरों में जारी उग्र प्रदर्शन मुख्य रूप से मुस्लिम समुदाय की ओर से ही किया जा रहा है. इस स्थिति में सवाल उठना लाजिमी है कि आखिर स्वीडन में सांप्रदायिक दंगे क्यों भड़के हैं?
डेनिस-स्वीडिश और मुस्लिम समुदाय के बीच चली आ रही खींचतान समय-समय पर 'सांप्रदायिक दंगों' का रूप ले ही लेती है.
धुर दक्षिणपंथी संगठन ने दी 'धमकी' और भड़क गई आग
स्वीडन के एक धुर-दक्षिणपंथी धड़े की ओर से इस्लाम की पवित्र किताब कुरान जलाने और उस पर 'सुअर का खून' डालने की धमकी दी थी. इस धड़े के नेता रासमस पालुदान की इस धमकी के बाद से ही वहां के कई शहरों में 'सांप्रदायिक दंगे' भड़क गए हैं. स्ट्राम कुर्स (हार्ड लाइन) नाम के धुर-दक्षिणपंथी संगठन को चलाने वाले रासमस पालुदान एक वकील और यूट्यूबर हैं. रासमस पालुदान स्वीडन में अपनी अप्रवासियों और इस्लाम विरोधी नीतियों के लिए मशहूर हैं. पालुदान इससे पहले भी कई बार कुरान की बेअदबी करते हुए नजर आ चुके हैं. और, इस बार भी रासमस पालुदान ने ऐसा ही करने की धमकी दी थी. जिसके बाद 15 अप्रैल को शुक्रवार के दिन नोरकोपिंग समेत कई शहरों में रासमस का विरोध करने के लिए भीड़ इकट्ठा हो गई. पुलिस के समझाने के बावजूद ये लोग वापस नहीं लौटे. और, पथराव शुरू होने के साथ ही सांप्रदायिक दंगों की आग भड़क गई.
क्या स्वीडन को 'बहुसंस्कृतिवाद' का प्रयोग पड़ रहा भारी?
दरअसल, यूरोप के कई देशों ने ओपन बॉर्डर्स नीति के तहत अप्रवासियों और शरणार्थियों को बड़ी संख्या में अपने देश में एंट्री दी थी. मध्य एशिया और अफ्रीका जैसे रीजन से कई शरणार्थी और अप्रवासी स्वीडन की ओपन बॉर्डर्स नीति के चलते वहां पहुंचे. और, स्वीडन ने उनका दिल खोलकर स्वागत किया. लेकिन, स्वीडन जैसे शांतिप्रिय देश के लिए शरणार्थियों और अप्रवासियों की यही तादात अब सिरदर्द बनती जा रही है. क्योंकि, स्वीडन की कुल आबादी के एक-तिहाई शरणार्थी और अप्रवासी हैं. और, इनमें से अधिकतर मुस्लिम हैं. वहीं, इनमें से ज्यादातर के पास अब स्वीडन की नागरिकता है. 2016 में छपी बीबीसी एक रिपोर्ट में कहा गया था कि स्वीडन से बड़ी संख्या में लोग इस्लामिक कट्टरपंथी आतंकी संगठन आईएसआईएस के साथ मुस्लिमों की जंग लड़ने के लिए चले गए थे.
बीबीसी की इस रिपोर्ट में कहा गया है कि स्वीडन के कई शहर ऐसे हैं, जहां मुस्लिमों की संख्या अच्छी-खासी हो गई है. और, अब मुस्लिम समुदाय के लोग यहां समानांतर समाज बना चुके हैं. मुस्लिम समाज के कुछ लोग अब चाहते हैं कि वहां के रहने वाले लोग इस्लामिक कानून शरिया को मानें. बीबीसी की रिपोर्ट के मुताबिक, लोगों से कहा जाता है कि 'अल्लाह के लिए लड़ें, मुसलमानों की आजादी के लिए लड़ें. मुसलमान मारे जा रहे हैं, उनके साथ बलात्कार हो रहा है और आप अपना समय नष्ट कर रहे है. आपको स्वीडन के लोगों से कुछ नहीं मिलने को है.' वहीं, स्वीडन के राष्ट्रीय पुलिस प्रमुख एंडश टूनबेरी ने भी इस बार भड़के सांप्रदायिक दंगों के कुछ अलग होने का दावा किया है. एंडश टूनबेरी के अनुसार, इससे पहले भी हिंसक दंगे हुए. लेकिन, प्रदर्शनकारियों ने पुलिस अफसरों की जान की अनदेखी नहीं की.
सांस्कृतिक परिवर्तन ने बदला 'मिजाज'!
स्वीडन में रहने वाली एक-तिहाई आबादी विदेशों से आए लोगों की है. और, इनकी जनसंख्या तेजी से बढ़ रही है. फिनलैंड की शोधकर्ता क्योस्ति तरवीनैन ने फोक्सब्लैड अखबार में अपना एक शोध जारी किया था. इसमें क्योस्ति तरवीनैन ने दावा किया था कि अगर स्वीडन में आबादी इसी तरह से बढ़ती रही, तो 45 साल में स्वीडिश नागरिक अपने ही देश में अल्पसंख्यक हो जाएंगे. क्योस्ति तरवीनैन के दावे के मुताबिक, अगर अप्रवासियों की संख्या में यूं ही इजाफा होता रहा, तो इसके और जल्दी होने की संभावना भी है. तरवीनैन ने एक लेख में लिखा कि 1975 में स्वीडिश संसद ने स्वीडन को एक बहुसांस्कृतिक देश बनाने का फैसला लिया. उस दौरान 40 फीसदी से अधिक अप्रवासी फिनलैंड के निवासी थे. लेकिन, अब हालात बदल गए हैं. 2019 में 88 फीसदी अप्रवासी गैर-पश्चिमी देशों से थे. और, इनमें से 52 फीसदी मुस्लिम थे. जिसने अप्रवासी आबादी में एक बड़ा सांस्कृतिक परिवर्तन किया है.
फिनलैंड की इस रिसर्चर ने स्पष्ट शब्दों में लिखा है कि फिनलैंड से आए शरणार्थियों ने खुद को स्वीडन के समाज में खुद घुला-मिला लिया था. लेकिन, अब आने वाले मुस्लिम शरणार्थी स्वीडन के समाज का हिस्सा बनने की बजाय समानांतर समाज बना रहे हैं. क्योस्ति तरवीनैन की बातों और बीबीसी की रिपोर्ट में किए गए दावे एकदूसरे के पूरक नजर आते हैं. वैसे, स्वीडन भले ही अपने बहुसंस्कृतिवाद को लेकर दुनिया भर के उदारवादियों से सराहना पा रहा हो. लेकिन, देश के आंतरिक हिस्सों में हालात भयावह होते जा रहे हैं. और, बहुसंस्कृतिवाद अपनाने वाले स्वीडिश लोगों की अपनी ही संस्कृति पर खतरा मंडराने लगा है.
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