पीएम इन वेटिंग से प्रेजिडेंट इन वेटिंग तक...
भाजपा को कामयाबी के शिखर तक पहुंचाने में लालकृष्ण आडवाणी ने भले ही कोई कसर नहीं छोड़ी, लेकिन एक कसक जो उनके दिल में रह गई, वो थी वो कुर्सी जिस पर बैठकर वो भारत का सबसे ताकतवर पुरूष बनना चाहते थे.
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लालकृष्ण आडवाणी एक ऐसे शख्स हैं जिन्होंने बीजेपी को अपने खून पसीने से सींचा. अपने संगी-साथियों के साथ 1984 में चार सांसदों वाली भारतीय जनता पार्टी को 90 के दौर में अकेले दम पर अपनी रथ यात्रा से देशभर में जो कामयाबी दिलाई, वैसी मिसाल कम ही देखने को मिलती है.
आडवाणी की इतनी मेहनत के बाद जब 1996 के लोकसभा चुनावों में बीजेपी देश की सबसे ज़्यादा सीटें जीतनी वाली पार्टी बनकर उभरी तो आडवाणी ने अटल बिहारी वाजपेयी का नाम पीएम के लिए पेश कर दिया. शायद उनको लगता था कि अटल जी की उदार छवि बाकि दलों का समर्थन पाने में कामयाब रहेगी. हुआ भी यही. भाजपा को कामयाबी के शिखर तक पहुंचाने में लालकृष्ण आडवाणी ने भले ही कोई कसर नहीं छोड़ी, लेकिन एक कसक जो उनके दिल में रह गई, वो थी रेस कोर्स रोड की वो कुर्सी जिस पर वो एक बार बैठकर बीजेपी के लौह-पुरूष से भारत का सबसे ताकतवर पुरूष बनना चाहते थे.
लेकिन हालात ऐसे बने कि पीएम बनने का ये ख्वाब अधूरा रह गया. वो डिप्टी पीएम तो बने, लेकिन पीएम नहीं बन सके और इन्हीं हालातों में उन्हें कुछ बड़े पत्रकारों ने पीएम इन वेटिंग कहना शुरु कर दिया.
आडवाणी की रथयात्रा कौन भूला सकता है, जिसमें उनके सारथी पीएम नरेंद्र मोदी थे. अब आडवाणी को अपने सारथी के साथ की दरकार है क्योंकि मौजूदा वक्त में उनका ये पुराना चेला ही गुरू के अरमानों को पार लगा सकता है.
बीजेपी के कई बड़े नेता भी दबी जुबान में मानते हैं कि आडवाणी ही राष्ट्रपति के लिए सबसे अच्छे उम्मीदवार होंगे. लेकिन कोर्ट में चलने वाले केस सारा खेल खराब कर सकते हैं. लालकृष्ण आडवाणी भी एक बार हल्के अंदाज में खुद में राष्ट्रपति की रेस में होने से इंकार कर चुके हैं. लेकिन जब तक पीएम मोदी और बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह अपने पत्ते नहीं खोलते, उनके राष्ट्रपति के दावेदार होने को लेकर कयासबाजियां चलती रहेंगी और शायद इन्हीं सबके बीच उन्हें कोई पीएम इन वेटिंग से प्रेजिडेंट इन वेटिंग का नाम दे जाएगा.
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