लालू की रैली तो यही बता रही है - न विपक्ष एक होने वाला है, न अखिलेश-मायावती
विपक्षी नेताओं सोनिया गांधी, राहुल गांधी और मायावती के रैली से दूरी बना लेने के बाद लालू को अकेले पड़ते देखा जा रहा है, लेकिन उससे ज्यादा कहीं ये विपक्ष का बिखराव लगता है.
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पटना में 27 अगस्त को 'बीजेपी भगाओ, देश बचाओ' रैली होनी है - और उसके ऐन पहले के लगातार तीन दिन लालू प्रसाद को चारा घोटाले में रांची के सीबीआई कोर्ट में हाजिर रहना है. लालू की ओर से इस दौरान कोर्ट में गवाह पेश किये जाने हैं.
बिहार के डिप्टी सीएम सुशील मोदी ने बिहार में बाढ़ के चलते लालू से रैली स्थगित करने की अपील की थी, लेकिन लालू ने इंकार कर दिया और कार्यकर्ताओं से एक-एक मुट्ठी मिट्टी लेकर पहुंचने को कहा है जिसकी खास वजह है.
विपक्षी नेताओं सोनिया गांधी, राहुल गांधी और मायावती के रैली से दूरी बना लेने के बाद लालू को अकेले पड़ते देखा जा रहा है, लेकिन उससे ज्यादा कहीं ये विपक्ष का बिखराव लगता है.
लालू मेहरबान, फिर भी मायावती ने मना क्यों किया...
26 मई को सोनिया के लंच में ही तय हुआ था कि मायावती और अखिलेश यादव दोनों पटना रैली में शामिल होंगे. यानी पहली बार मंच शेयर करेंगे - और उसके बाद भी यूपी में ऐसी रैलियां होंगी जहां दोनों साथ-साथ देखे जा सकते हैं. समझें तो ठीक वैसे ही जैसे पिछले चुनावों में यूपी के लड़के नजर आते थे.
18 जुलाई को जैसे ही मायावती ने राज्य सभा की सदस्यता से इस्तीफा दिया - सबसे पहले लालू आगे आये और उन्हें बिहार से राज्य सभा भेजने की पेशकश की.
मायावती की क्या है मजबूरी?
फिर खबर आई कि मायावती फूलपुर लोक सभा सीट से विपक्ष की संयुक्त उम्मीदवार हो सकती हैं. इस पर अखिलेश यादव की ओर से भी बयान आया कि अगर मायावती चुनाव लड़ती हैं तो समाजवादी पार्टी उनका सपोर्ट करेगी. दरअसल, फूलपुर से यूपी के डिप्टी सीएम केशव मौर्या सांसद हैं जिन्हें यूपी में विधानसभा या विधान परिषद की सदस्यता लेने के लिए सीट खाली करनी है. बीजेपी को शिकस्त देने के लिए विपक्ष ने ये प्लान बनाया था. आखिर अब ऐसा क्या हो गया कि मायावती ने रैली में हिस्सा लेने से मना कर दिया. वैसे मायावती अपने बेहद करीबी सतीशचंद्र मिश्रा को जरूर भेज रही हैं, लेकिन वो तो मौजूदगी की रस्मअदायगी से ज्यादा तो कुछ है नहीं.
इधर बीच, मुलायम सिंह यादव का भी एक बयान आया है जिसके कई तरह के राजनीतिक मायने निकलते हैं. मुलायम का कहना है कि अगर समाजवादी पार्टी और बीएसपी के बीच कोई गठबंधन होता है तो उन्हें फैसला लेना पड़ेगा. सच्चाई तो ये है कि उनके फैसले लेने से कहीं कोई फर्क नहीं पड़ने वाला. लेकिन मुलायम के फैसले से भी ज्यादा अहम बीएसपी के साथ उनके गठबंधन को लेकर विरोध लग रहा है.
कहीं ऐसा तो नहीं कि मुलायम के किसी संभावित गठबंधन के ताजा विरोध का कारण भी वही है जो 2015 में बिहार के महागठबंधन से अलग होने को लेकर था. तब चर्चा थी कि सीबीआई की चाबुक के चलते मुलायम सिंह महागठबंधन बनने के साथ ही किनारे हो लिये थे. याद कीजिए, मुलायम ने तब नीतीश को हराने तक की अपील कर डाली थी.
आखिर मायावती के पटना रैली से दूर रहने की क्या वजह हो सकती है? क्या मायावती इसलिए रैली से दूर रह रही हैं क्योंकि उन्हें अखिलेश यादव के साथ मंच शेयर करना पड़ेगा? कहीं ऐसा तो नहीं कि मायावती को भी लालू प्रसाद के भ्रष्टाचार के मामले में सजायाफ्ता होने से दिक्कत लगने लगी है, वैसे ही जैसे कांग्रेस की ओर से भी सोनिया और राहुल के प्रतिनिधि ही शामिल हो रहे हैं.
दाग के चलते दूरी या कोई और वजह?
तेजस्वी पर भ्रष्टाचार के आरोपों के नाम पर जब नीतीश कुमार ने महागठबंधन छोड़ा तो राहुल गांधी ने उन्हें धोखेबाज करार दिया. राहुल के इस बयान का मतलब तो यही था कि वो लालू और उनके परिवार के साथ खड़े हैं. इसका मतलब कि राहुल गांधी भी लालू प्रसाद और उनके परिवार के खिलाफ सरकारी एजेंसियों की जांच पड़ताल को राजनीति से प्रेरित से मान रहे थे.
वैसे राहुल गांधी की ओर से लालू परिवार के प्रति वैसा सपोर्ट पहली बार देखने को मिला था. अब तक तो यही लगता रहा कि लालू के सपोर्ट में सोनिया तो हमेशा रही हैं, लेकिन राहुल नहीं. सोनिया के लालू के प्रति समर्थन की वजह उनके विदेशी मूल के मुद्दे पर लालू का दीवार की तरह पीछे खड़े रहना भी रहा है.
लालू पर जो दाग लगे हुए हैं उनमें पिछले दो साल में कोई अंतर तो आया नहीं है. तब भी वो जमानत पर छूटे हुए थे, अब भी यथास्थिति ही बनी हुई है. यही लालू यादव रहे जिन्होंने नीतीश के डीएनए पर सवाल खड़े होने पर पटना में स्वाभिमान रैली बुलाई थी और उसमें सोनिया गांधी शामिल हुई थीं. हालांकि, उसके बाद बिहार में राहुल की रैली के लिए लालू राजी नहीं हुए और तेजस्वी को भेज दिया था.
अब लालू की रैली में न तो राहुल गांधी जा रहे हैं और न ही सोनिया गांधी. अगर लालू को दागी मानकर सोनिया-राहुल ने ये फैसला लिया है तो अब तक उनके साथ बने रहने का क्या मतलब रहा?
ये सिर्फ लालू का अकेले पड़ना नहीं है...
सीताराम येचुरी ने तो पहले ही संकेत दे दिये थे कि वो लालू की रैली से दूरी बना सकते हैं. लालू के अनुसार पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी के रैली में शामिल होने की उम्मीद है. ममता के अलावा शरद यादव का शामिल होना भी पक्का माना जा सकता है. उनके पूरे बिहार दौरे का आयोजन और उसमें शिरकत आरजेडी कार्यकर्ताओं की ही रही. हालांकि, जेडीयू प्रवक्ता केसी त्यागी ने साफतौर पर कहा है कि अगर शरद यादव रैली में शामिल होते हैं तो पार्टी में उनका आखिरी दिन होगा. लालू ने बताया है कि झारखंड मुक्ति मोर्चा नेता हेमंत सोरेन और झारखंड विकास मोर्चा के नेता बाबूलाल मरांडी भी रैली में शामिल होंगे.
क्या अकेले पड़ा लालू परिवार?
ऐसे में जबकि सोनिया और राहुल के साथ साथ मायावती भी पटना रैली से दूरी बना चुकी हैं, कहा जा रहा है - लालू अकेले पड़ रहे हैं. क्या इसे सिर्फ इसी रूप में देखा जाना चाहिये?
ये लगता तो ऐसा है कि जैसे विपक्ष एक बार फिर हर बार की तरह बिखर चुका है. विपक्षी खेमे से अब तक सिर्फ नीतीश कुमार ही तो अलग हुए हैं, बाकी तो सभी वही हैं. राष्ट्रपति चुनाव को लेकर विपक्षी एकता की ऐसी नुमाईश कई बार हुई है. दो बार तो ऐसे आयोजन सोनिया गांधी की ही तरफ से हो चुके हैं. डीएमके नेता करुणानिधि के जन्मदिन के मौके पर भी विपक्षी नेता चेन्नई में जुटे थे. शरद यादव के साझी विरासत बचाओ सम्मेलन के जरिये भी ऐसी ही कोशिश हुई थी - और अब इसी क्रम में लालू एंड संस की रैली होने जा रही है.
राष्ट्रपति चुनाव से लेकर जीएसटी के जश्न तक हर मौके पर विपक्षी एकता ऐसे ही बिखरी नजर आई है. पटना की रैली उसी कड़ी में एक और आयोजन ही तो है.
लालू ने रैली में आने वाले आरजेडी कार्यकर्ताओं से एक मुट्ठी मिट्टी लेकर आने को कहा है. लालू कहते हैं कि नीतीश बोलते थे कि मिट्टी में मिल जाएंगे लेकिन बीजेपी के साथ नहीं जाएंगे. लालू का कहना है कि मिट्टी मंगाकर वो नीतीश को याद दिलाना चाहते हैं कि वो कितना झूठ बोलते हैं. लालू के पास ऐसा कोई मैसेज सोनिया गांधी, राहुल गांधी और मायावती के लिए भी है क्या?
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