ये तो मानना पड़ेगा, लालू ने ही मिटाया सवर्णों का वर्चस्व
बिहार में पिछड़ी जातियों का अगर सामाजिक उत्थान हुआ है तो यह हृदय परिवर्तन के कारण नहीं हुआ. दबंग-सत्ताधारी जातियों को खून का घूंट पीकर इस बदलाव को स्वीकार करना पड़ा और लालू यादव...
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बिहार में लालू यादव के शासन को अगर द्विज मीडिया जंगलराज कहता है तो इसमें अचरज की कोई बात नहीं है. जब हम लोग बहुत छोटे थे तब अपनी मां के सहकर्मी के गृहप्रवेश में जाना हुआ था. हम तब शर्म से गड़ गए थे, जब वहां मौजूद युवा और बुजुर्ग महिलाएं आकर हमारे पैर छूने लगीं. मेरी मां भी यह दृश्य देख कर काफी असहज हो गईं. उनको ऐसा करने से मना किया गया. फिर भी कई महिलाएं नहीं मानीं.
मेरी उम्र के हिसाब से यह 1985-86 की बात जान पड़ती है. हमें मां ने बताया कि वे तुम लोगों के पैर इसलिए छू रही थीं क्योंकि तुम लोग 'ब्राह्मण' हो. जाहिर है जिनके घर हम गए थे, वे हिन्दू धर्म के सामाजिक पदानुक्रम में खड़ी सबसे निचली जातियों में से एक से संबंध रखते थे. बाद में गांव जाने पर खेतों में काम करने वालों के द्वारा 'गोर लगय छी मालिक' सुनता तो अजीब सा महसूस करता.
कॉन्वेंट स्कूल की शुरुआती तालीम और घर के माहौल ने अपने से बड़ों को 'अहाँ' (आप) कहकर संबोधित करना सिखाया था. हम जब खेतों में काम करने वालों को अहाँ बोलते तो गांव के दूसरे बच्चे हम पर हंसते. कुछ हमें मूर्ख मान कर सिखाते. जाति-धर्म, छुआछूत को लेकर दादी नियम मानती थीं. (दादा जी को हम भाई-बहनों में से किसी ने नहीं देखा, देख पाते तो सन्दर्भ की दृष्टि से अच्छी जानकारी मिलती कि उस जमाने में दर्शनशास्त्र के प्रोफेसर का इस सामाजिक परिघटना पर क्या पक्ष था?) मां-पिताजी दोनों आश्चर्यजनक रूप से लिबरल थे. कम से कम अपने समय के हिसाब से. फिर भी एक संस्कार और माहौल था चारों ओर जो पूरा इंसान होने से रोक लेता था.
श्रेणीक्रम को तोड़ पाना आसान नहीं था. कृषक जातियां भी गांव में दालान पर तख़्त या कुर्सी पर नहीं बैठतीं. उन में से कई आर्थिक दृष्टि से ब्राह्मणों से ज्यादा संपन्न थे, लेकिन खान-पान, उठने-बैठने में विभेदीकरण सामान्य बात थी. लगभग 25 साल बाद आज जब गांव जाता हूं तो ये बातें बहुत दूर, अतीत की बात लगती हैं. गांव की भाषा तक बदल गई. कहने का यह मतलब कतई नहीं कि वहां कोई रामराज्य आ गया है. लेकिन सदियों से बनी हुई दूरी कम तो हुई ही है.
समीकरण बदल गए हैं. और ऐसा हृदय परिवर्तन के कारण नहीं हुआ. दबंग-सत्ताधारी जातियों को खून का घूंट पीकर इस बदलाव को स्वीकार करना पड़ा. लेकिन आज भी घर की बैठकों में उन पुराने दिनों की याद लोगों को आती है और उनके मुंह से बरबस भद्दी से भद्दी गालियां निकलती है. बिहार में इस क्रान्ति के नेता लालू यादव को अगर अगड़ी जातियां 'ललुआ' कह कर बुलाती हैं और उन्हें बिहार का विनाश करनेवाला, जंगलराज लाने वाला बताती हैं तो उसमें कोई अचरज की बात नहीं है.
हां, लालू यादव के राज में बिहार में कानून व्यवस्था, शिक्षा, अर्थव्यवस्था की विरासत में मिली जर्जर स्थिति और बिगड़ी. यह किसी विनाश से कम नहीं था, लेकिन अगड़ी जातियों की लालू यादव से नफरत की मुख्य वजह यह विनाश नहीं है. वे लालू यादव से नफरत इसलिए करते हैं क्योंकि इस आदमी ने उनकी सत्ता को उखाड़ फेंका; उन बेजुबान लोगों को आवाज दी, जो हिन्दू जाति व्यवस्था में सदियों से हीन बना कर रखे गए, इंसान की पदवी से च्युत कर दिए गए थे. लालू से वे नफरत इसलिए करते हैं क्योंकि उनमें उन्हें सदियों से चले आ रहे अपने राज का अंत करने वाला दिखता है.
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