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Updated: 23 जनवरी, 2016 03:09 PM
आर.के.सिन्हा
आर.के.सिन्हा
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आज 23 जनवरी नेताजी सुभाष चन्द्र बोस का जन्मदिन है. नई पीढ़ी नेताजी के चमत्कारिक व्यक्तित्व के बारे में ज्यादा से ज्यादा जानना चाहती है. आखिरकार, क्या कारण था कि नेताजी सुभाष चंद्र बोस से हर पल अपने को असुरक्षित महसूस करते रहे पंडित जवाहरलाल नेहरू? हालांकि नेताजी ने तो उनको सदैव यथोचित सम्मान दिया और अग्रज माना. क्या नेहरू जी को कहीं ना कहीं यह लगता था कि नेताजी उनसे ज्यादा लोकप्रिय हैं और उनके रहते वे ही देश के प्रधानमंत्री के सर्वमान्य उम्मीदवार होंगे और उन्हें (नेहरू को) कोई नेताजी के मुकाबले नहीं समर्थन करेगा. क्या प्रधानमंत्री बनाने के बाद भी नेहरू को यह विश्वास था कि नेताजी जीवित हैं? क्या उनके मन के किसी कोने में ये भाव था कि नेताजी कभी भी प्रकट हो सकते हैं?

देश की आजादी के बाद भी नेहरूजी को लगता रहा कि नेताजी कभी अचानक से देश के सामने आ सकते हैं. इसका खुलासा तो अब हो ही चुका है. नेहरू जी के निर्देश पर नेताजी के कलकत्ता में रहने वाले पारिवार के सदस्यों की गतिविधियों पर IB के जासूसों द्वारा खुफिया नजर रखी जाती थी जो तबतक चलती रही जब तक नेहरू जिंदा रहे. नेहरूजी को ये तो पता ही था कि नेताजी देश के सर्वाधिक लोकप्रिय नेता हैं. अवाम उन्हें तहेदिल से सम्मान देता है. उन्हें लगता था कि अगर नेताजी फिर से लौटे तो उनकी सत्ता चली जाएगी. जाहिर है, नेहरू जी की सोच के साथ तत्कालीन कांग्रेस खड़ी थी. इसलिए ही कांग्रेस सरकारें बोस के परिवार पर खुफिया नजर रखती रहीं. नेहरू जी की 1964 में मृत्यु के बाद भी 1968 तक नेताजी के परिजनों पर खुफिया एजेसियों की नजर रहीं.

नेताजी के सबसे करीबी भतीजे अमिया नाथ बोस नेताजी की खोज में 1957 में जापान गए थे. इस बात की जानकारी नेहरू जी को मिली. उन्होंने 26 नवंबर, 1957 को देश के विदेश सचिव सुबीमल दत्ता से कहा कि वे टोक्यों में भारत के राजदूत की ड्यूटी लगायें यह पता करने के लिए कि अमिया नाथ बोस जापान में क्या कर रहे हैं. यही नहीं उन्होंने इस बात की भी जानकारी देने को कहा था कि अमिया बोस भारतीय दूतावास या बोस की अस्थियां जहां रखी गयी हैं वहां गये थे या नहीं. अब जरा अंदाजा लगाइये कि देश का प्रधानमंत्री किस तरह की सस्ती हरकत में लिप्त था. इस सनसनीखेज तथ्य का पक्का खुलासा हो चुका है. तो सवाल ये उठता है कि आखिर नेहरू जी जापान में अमिया नाथ बोस की गतिविधियों को जानने को लेकर इतने उत्सुक क्यों थे? क्या उन्हें लगता था कि यदि अमिया नाथ की गतिविधियों पर नजर रखने से नेताजी के बारे में उन्हें पुख्ता जानकारी मिल सकेगी? अमिया नाथ नेता जी के बेहद करीबी भतीजे थे.

फिर तो अमिया नाथ बोस पर देश में और उनके देश से बाहर जाने पर खुफिया नजर रखी जाने लगी. और इस बात के प्रमाण भी मौजूद हैं कि अमिया नाथ बोस पर नजर रखने के निर्देश खुद नेहरू जी ने दिए थे. नेहरु जी के बारे में कहा जाता है कि वे देश के प्रधानमंत्री बनने से पहले अमिया नाथ बोस के कलकत्ता के 1, बुडवर्न पार्क स्थित आवास में जाते थे. पर प्रधानमंत्री बनने के बाद उन्होंने अमिया नाथ बोस से संबंध लगभग तोड़ लिए. अमिय नाथ बोस न केवल एक वरिष्ठ वकील थे, वरन राजनयिक भी थे.

आनंद भवन में नेताजी

नेताजी जब भी इलाहाबाद गए तो वे नेहरू परिवार के आवास आनंद भवन जाना नहीं भूले. कांग्रेस के 1928 में कलकता में हुए सत्र में भाग लेने के लिए निमंत्रण देने के लिए नेताजी खुद आनंद भवन पहुंचे. उन्होंने मोतीलाल नेहरु और जवाहर लाल नेहरू जी को इसमें भाग लेने का व्यक्तिगत रूप से न्यौता दिया. नेताजी लगातार नेहरु जी को खत लिखते रहते थे. उनमें सिर्फ देश की आजादी से जुड़े सवालों पर ही चर्चा नहीं होती थी. वे नेहरू जी से पारिवारिक मसलों पर भी पूछताछ करते थे. जिन दिनों इंदिरा गांधी अपनी मां कमला नेहरु के पास स्वीटजरलैंड में थीं तब नेता जी ने पत्र लिखकर नेहरु जी से पूछा था, 'इंदु (इंदिरा जी के बचपन का नाम) कैसी हैं?' क्या वह स्वीटजरलैंड में अकेला तो महसूस नहीं करती? नेताजी के पंडित नेहरू को 30 जून,1936 से लेकर फरवरी,1939 तक पत्र भेजने के रिकार्ड मिलते हैं. सभी पत्रों में नेताजी ने नेहरू जी के प्रति बेहद आदर का भाव दिखाया है.

आखिरी खत नेता जी का

लेकिन, नेहरू जी को लिखे शायद उनके आखिरी खत के स्वर से संकेत मिलते हैं कि नेताजी को समझ आ गया था कि वे (नेहरू जी) उनसे दूरियां बना रहे हैं. ये खत भी कांग्रेस के त्रिपुरी सत्र के बाद लिखा गया. यानी 1939 में. अपने उस 27 पन्नों के खत में वे साफ कहते हैं, 'मैं महसूस करता हूं कि आप (नेहरू जी) मुझे बिल्कुल नहीं चाहते.'

दरअसल नेताजी इस बात से आहत थे कि नेहरु जी ने 1939 में त्रिपुरी में हुए कांग्रेस के सत्र में उनका साथ नहीं दिया. नेता जी फिर से कांग्रेस के त्रिपुरी सत्र में अध्यक्ष निर्वाचित हुए थे. पर उन्होंने विजयी होने के बाद भी अपना पद छोड़ दिया था. क्यों छोड़ा था, इस तथ्य से सारा देश वाकिफ है. देश को ये भी पता है कि नेताजी ने कांग्रेस अध्यक्ष पद के चुनाव में गांधी जी के उम्मीदवार डा. पट्टाभी सीतारमैय्या को शिकस्त दी थी. गाँधी जी ने हद से बाहर जाकर नेताजी की उम्मीदवारी का खुलकर विरोध किया था. यहाँ तक कह दिया था कि 'सितारम्या की हार मेरी होगी.' फिर भी नेता जी भारी बहुमत से जीते थे. इस नतीजे से कांग्रेस में आतंरिक कलह तेज हो गई थी. गांधी जी ही नहीं चाहते थे कि नेताजी फिर से कांग्रेस के अध्यक्ष बने. गांधी की इस राय से नेहरू जी भी इत्तेफाक रखते थे.

तटस्थ रहते नेहरूजी

तब नेताजी ने अपने लंदन में रहने वाले भतीजे अमिया बोस को 17 अप्रैल,1939 को लिखे पत्र में कहा था, 'नेहरू ने मुझे अपने व्यवहार से बहुत पीड़ा पहुंचाई है. अगर वे त्रिपुरी में तटस्थ भी रहते तो पार्टी में मेरी स्थिति बेहतर होती. उन्होंने उसी पत्र में आगे लिखा कि कांग्रेस में नेहरू जी की स्थिति बहुत पतली हुई. वे जब त्रिपुरी सत्र में बोल रहे थे, तब उन्हें बुरी तरह हूट किया गया. कांग्रेस के त्रिपुरी सत्र के बाद से नेहरू नेताजी से दूरियां बनाने लगे.

उधर, नेहरू जी के नेताजी को लेकर बदले मिजाज का एक उदाहरण लीजिए. उन्होंने गुवाहाटी में आयोजित एक सभा को संबोधित करते हुए कहा था कि अगर नेता जी अपनी सेना के साथ भारत को आजाद करवाने के लिए आक्रमण करेंगे तो वे खुद उनसे दो-दो हाथ करेंगे. ये उन दिनों की बातें हैं जब नेताजी के नेतृत्व में आजाद हिन्द फौज भारत को अंग्रजों से मुक्त कराने के लिए मणिपुर पहुँचने वाली थी. इसमें कोई शक नहीं है कि अगर नेताजी जीवित होते तो आजाद भारत की तस्वीर बिलकुल अलग होती. हालांकि अब अगर-मगर करने का कोई लाभ नहीं है.

बापू का सम्मान

दरअसल, नेताजी तहे दिल से गांधी जी का सम्मान करते थे. यह बात पूरी दुनिया को तब मालूम हुई जब 1942 का वक्त आया. कांग्रेस का नेतृत्व चुप था. सबसे पहले नेताजी ने देशवासियों से अपील की कि गाँधी को बड़ा मानो. लेकिन, उन्हें नेहरू जी की गांधी जी को लेकर निजी निष्ठा की भावना नापसंद थी. वे इसकी वजह समझ नहीं पाते थे. वे अलग मिजाज की शख्सियत थे. नेताजी को जब मालूम चला कि उनकी माता का निधन हो गया है तो भी उन्होंने अपने काम को प्रभावित नहीं होने दिया. वे तब सिंगापुर में थे. इसके बाद वे अपनी पत्नी और पुत्री को यूरोप में छोड़कर निकल गए थे, देश को आजाद कराने के लिए. उन्हें मालूम था कि शायद वे फिर उन्हें दोबारा नहीं देख पाएं. उनके लिए निजी संबंध और परिवार देश के सामने गौण थे. वे मानते थे कि वे नेहरू जी के साथ मिलकर देश को एक नए मुकाम पर लेकर जा सकते हैं. लेकिन नेहरु जी अपने को गांधी जी से अलग होकर नहीं देखते थे. बेशक, 1939 के बाद दोनों के रास्ते अलग हो गए.

हालांकि ब्रिटिश सरकार भी मानती थी कि नेताजी और नेहरु जी भारत के लिए अहम होंगे. कलकता में कांग्रेस के सत्र के बाद ब्रिटेन के गृह सचिव ने 21 फरवरी, 1929 को लंदन में भेजी अपनी एक रिपोर्ट में ये बात कही थी. पर इतना तो निश्चित है कि नेहरू जी के मन में नेताजी को लेकर हीन भावना थी. उन्हें पता था कि नेताजी लोकप्रियता और ज्ञान के स्तर पर उनसे कहीं आगे हैं.

लेखक

आर.के.सिन्हा आर.के.सिन्हा @rksinha.official

लेखक वरिष्ठ संपादक, स्तभकार और पूर्व सांसद हैं.

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