Lockdown 5.0 न सही- अगले 'मन की बात' में बढ़िया टास्क तो चाहिए ही
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी (Narendra Modi) के 'मन की बात' (Mann Ki Baat) कार्यक्रम में Lockdown 5.0 के जिक्र की संभावनाओं को खारिज कर दिया गया है. फिर क्या होगा? ऐसे सवाल सबके मन में होंगे - क्या प्रधानमंत्री मोदी कोई नया टास्क देने वाले हैं?
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लॉकडाउन 5.0 (Lockdown 5.0) को लेकर थोड़े संशय की स्थिति बन गयी है. मौजूदा लॉकडाउन 4.0 की अवधि 31 मई को खत्म हो रही है - और हर बार की तरह सभी सोच रहे हैं कि उसके बाद क्या होने वाला है. अगर सरकारी तौर पर कोई खंडन नहीं आया होता तो सोच विचार की दिशा कुछ और ही होती.
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का 'मन की बात' कार्यक्रम भी 31 मई को ही होने वाला है, मौजूदा लॉकडाउन के आखिरी दिन. चूंकि प्रधानमंत्री हमेशा ही समसामयिक चीजों के बारे में बात करते हैं, इसलिए अपेक्षा भी होती है. एक मन की बात में प्रधानमंत्री मोदी ने कोरोना वॉरियर्स के काम को लेकर खूब चर्चा की थी - और कोरोना वायरस के संक्रमण को मात दे चुके लोगों की बातें भी सुनवाई थी - ताकि वे दूसरों के लिए प्रेरणास्रोत बनें.
अब जबकि सरकारी तौर पर लॉकडाउन 5.0 के मन की बात में जिक्र की संभावना को खारिज कर दिया गया है - अपेक्षा ये होने लगी है कि अरसे बाद प्रधानमंत्री मोदी कोई बढ़िया टास्क जरूर देंगे.
हकीकत को भी खारिज किया जा सकता है क्या?
कैबिनेट सचिव राजीव गौबा ने राज्यों से 31 मई के बाद की स्थिति को बेहतर बनाने के लिए सुझाव मांगे हैं. राजीव गौबा ने सभी राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों के अधिकारियों से वीडियो कांफ्रेंसिंग के जरिये मीटिंग की है - और सबको 30 मई तक अपनी राय देने के लिए कहा है.
ये राजीव गौबा ही थे जो 30 मार्च को 21 दिन के लॉकडाउन के बाद अवधि बढ़ाये जाने की जो रिपोर्ट प्रकाशित हुई थीं, उसे सिरे से खारिज कर दिये थे. जैसे प्रतिक्रिया गृह मंत्रालय के प्रवक्ता की तरफ से आयी है, राजीव गौबा को भी ऐसी हैरानी हुई थी - ये बात अलग है कि तब से लेकर तीन बार लॉकडाउन को बढ़ाया जा चुका है.
I’m surprised to see such reports, there is no such plan of extending the lockdown: Cabinet Secretary Rajiv Gauba on reports of extending #CoronavirusLockdown (file pic) pic.twitter.com/xYuoZkgM5e
— ANI (@ANI) March 30, 2020
#FactCheckThe quoted story claims to have inside details about #Lockdown5, from MHA Sources.
All claims made therein are mere speculations by the reporter. To attribute them to MHA is incorrect and being irresponsible.#FakeNewsAlerthttps://t.co/0L1r7eGuUh via @indiatoday
— Spokesperson, Ministry of Home Affairs (@PIBHomeAffairs) May 27, 2020
संपूर्ण लॉकडाउन लागू होने से मुश्किलें अचानक बढ़ तो गयीं, लेकिन ये भी लगा कि एहतियाती उपाय कठिन भले हों लेकिन कारगर जरूर होते हैं. बीच बीच में बताया भी गया कि अगर लॉकडाउन लागू नहीं होता तो कोरोना संक्रमितों की संख्या में भारी इजाफा हो जाता. ये सुन कर लोगों को उम्मीद जगती कि चलो ऐसा करने से भी महा आपदा से निजात मिल जाये वो भी कम नहीं होगा.
सड़कों पर मजदूरों का रेला पैदल चला जा रहा था. कोई साइकिल से तो कोई पैदल ही. जिसके लिए जो संभव हुआ वो चलता रहा. लॉकडाउन लागू भी रहा और लोग घरों की ओर बढ़ते भी रहे. हौसला ऐसा कि आम दिनों में जो बात सोच कर भी मन सिहर उठे वैसा भी कई लोगों ने कर डाला. 13 साल की उस बच्ची ने तो कमाल ही कर दिया - अपने घायल पिता को साइकिल पर बिठाकर गुरुग्राम से बिहार अपने घर लेती गयी. जब सफर पर निकली तब उसके लिए पिता के वजन के कारण हैंडल संभालना भी मुश्किल हो रहा था. फिर भी हिम्मत नहीं हारी और घर पहुंच कर ही दम ली. वैसे सबकी ऐसी किस्मत भी नहीं. कइयों ने तो रास्ते में ही थक कर दम तोड़ दिया और कई लोग बसों, ट्रकों और ट्रेन से कट कर मर गये.
जब श्रमिक स्पेशल ट्रेनों में मजदूरों के भूख से दम तोड़ देने की खबरें आती हैं, तभी रेल मंत्रालय ट्विटर पर एक तस्वीर पोस्ट करता है - एक साफ सुथरी गद्दीदार सीट पर भोजन का भारी भरकम पैकेट रखा हुआ है. ठीक वैसे ही जैसे एसी कोच में बिस्तर रखे होते हैं. हकीकत क्या है, रेल मंत्री को भी मालूम होता अगर वो भी रिपोर्ट देखते और पढ़ते. झारखंड के मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन ने तो बताया भी था कि उनके पास अपडेट नहीं होते हैं और वो राज्यों पर श्रमिक स्पेशल ट्रेनों को लेकर राजनीतिक बयानबाजी करते रहते हैं. श्रमिक स्पेशल ट्रेनों का हाल तो उन हालात से भी बुरा लगता है जब सुरेश प्रभु के बाद पीयूष गोयल ने रेल मंत्रालय का कार्यभार संभाला था. फर्क बस इतना है कि जो कुछ हो रहा है उसे तकनीकी तौर पर ट्रेन एक्सीडेंट नहीं कहा जा सकता.
कई बार ऐसा भी लगा कि चलो इतने बड़े देश में, इतनी बड़ी जंग में ऐसी तकलीफें तो झेलनी ही पड़ेंगी. उम्मीद बनी रही कि चलो एक दिन सब ठीक हो जाएगा - लेकिन अब लॉकडाउन निराश करने लगा है.
जब खबर मिलती है कि मुंबई से गोरखपुर के लिए निकली श्रमिक स्पेशल ट्रेन ओडिशा के राउरकेला पहुंच जाती है तो सुनने में ही थोड़ा अजीब लगता है. जब रेल मंत्रालय की सफाई आती है कि कंजेशन की वजह से रूट डायवर्ट किया गया तो और भी अजीब लगता है. जब खबर ये आती है कि श्रमिक स्पेशल ट्रेनों में सवार 7 लोगों ने रास्ते में ही दम तोड़ दिया तो काफी तकलीफ होती है - और जब मालूम होता है कि जो सात लोग मौत के शिकार हुए उसकी वजह भूख रही क्योंकि उनको खाना और पानी नहीं मिला तब तो तकलीफ और भी बढ़ जाती है. प्रधानमंत्री मोदी के मन की बात के इंतजार में बैठे ये हर उस व्यक्ति के मन की बात है जो मीडिया रिपोर्ट के जरिये लोगों तक पहुंच रहा है.
श्रमिक स्पेशल ट्रेनों के ही तीन फोटो हैं, दो PTI और एक रेलवे की - बीच वाली तस्वीर रेलवे की है
अमेरिकी राष्ट्रपति अक्सर मीडिया रिपोर्ट को फेक न्यूज करार देते रहे हैं. उन अखबारों की रिपोर्ट को भी जिनके वाटरगेट खुलासे से तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति को गद्दी छोड़ने को मजबूर होना पड़ा था. डोनाल्ड ट्रंप दूसरी पारी की तैयारी कर रहे हैं और एक दिन ये भी पता चल ही जाएगा कि ट्रंप जिसे फेक न्यूज बता रहे थे उनकी हकीकत क्या रही. अगर फिर भी लोग ट्रंप को मौका देते हैं तो मीडिया रिपोर्ट खारिज मान ली जाएंगी. तब तो तुलसीदास को भी नये सिरे से पढ़ना और समझना होगा - 'बहुमत को नहीं दोष गोसांई'.
लॉकडाउन ने काफी निराश किया है
लॉकडाउन को लेकर विपक्ष शुरू से ही हमलावर रहा है. शुरू शुरू में लोगों को लगता था कि ये तो विपक्ष का अपना एजेंडा है, आखिर उसे भी तो अपनी राजनीतिक दुकान चलानी है. अब तो ऐसा लग रहा है कि भले ही विपक्ष के सरकार पर हमले के पीछे अपना एजेंडा हो, लेकिन वो धीरे धीरे ठीक भी लगने लगा है - ऐसा इसलिए भी हो रहा है क्योंकि लॉकडाउन के हालात निराश करने लगे हैं.
एक तरफ लॉकडाउन की अवधि बढ़ती जा रही है, दूसरी तरफ कोरोना संक्रमितों को आंकड़ा भी 50 हजार, एक लाख और फिर डेढ़ लाख पार करता ही जा रहा है. पहले सिर्फ शहरों तक ही कोरोना का प्रकोप समझ आ रहा था, अब तो गांव गांव एक जैसी हालत हो चली है.
समझाइश तो यही है कि वे लोग ही एक जगह से दूसरी जगह जा रहे हैं जो जिनकी कोरोना की कोई हिस्ट्री नहीं है और न ही संक्रमण की कोई संभावना ही समझ आयी है. फिर आखिर कैसे लोगों के घर पहुंचते ही पॉजिटिव होने की रिपोर्ट आ रही है. क्वारंटीन के बावजूद ऐसा क्यों हो रहा है? थर्मल स्क्रीनिंग के बावजूद ऐसे मामले सामने क्यों आ रहे हैं? ये ठीक है कि ऐसे लोग भी कोरोना पॉजिटिव हो सकते हैं जिनमें पहले कोई लक्षण न दिखे हों - लेकिन सवाल ये है कि जो पूरा का पूरा गांव पूरी तरह ठीक था वहां स्थानीय स्तर पर कोई संक्रमित नहीं निकला है और जो बाहर से पहुंचा है वही संक्रमण का कारण बना है.
ये तो यही इशारा कर रहा है कि या तो वो शख्स वहीं संक्रमण का शिकार हुआ है जहां वो पहले रह रहा था - या फिर रास्ते में संक्रमण हुआ है.
प्रधानमंत्री जब तक सोशल डिस्टैंसिंग और दो गज की दूरी लक्ष्मण रेखा बताते रहे तब तक तो ऐसी चीजें कम ही देखने को मिलीं. जब से प्रधानमंत्री मोदी ने नये टास्क देना बंद कर दिया है, ये सब हो रहा है. लोगों की तरह सरकारी अमला भी बस जैसे तैसे रस्म अदायगी निभा रहा है.
इंडियन एक्सप्रेस ने राजनीति शास्त्र के एक छात्र की आपबीती प्रकाशित की है. ये आपबीती सूरत-वारंगल श्रमिक स्पेशल ट्रेन में गुजारे गये हैदराबाद के उस छात्र का भोगा हुआ सच है. वो गांधीनगर के सेंट्रल यूनिवर्सिटी ऑफ गुजरात का छात्र है जो अपने कुछ दोस्तों के साथ घर लौटने के लिए इस पीड़ा दायक सफर को गले लगाने को मजबूर होता है.
छात्र ने बताया है कि कैसे 20 लोगों की क्षमता वाली बस में 40 लोगों को भर दिया गया और स्टेशन पहुंचने के बाद ड्राइवर ने बस लॉक कर दिया और बोला कि जब उनकी बारी आएगी तो ही वे उतर पाएंगे. छात्र बताता है कि तेज धूप के कारण बस किसी आग की भट्टी की तरह तप रही थी. बस से निकलने के बाद ट्रेन में सवार होने की वैसी ही होड़ मची जैसे त्योहार के मौकों पर देखा जाता है. ट्रेन की सीट भी लकड़ी का होता है, गद्दीदार नहीं जैसा कि रेल मंत्रालय भोजन के पैकेट के साथ तस्वीरें ट्वीट कर रहा है. ट्रेन में भोजन मिला है, लेकिन पानी के बोतल प्लेटफॉर्म पर यूं ही फेंक दिये जाते हैं और लोग टूट पड़ते हैं. जाहिर है लोग लूटने के लिए दौड़ेंगे ही और फिर झगड़ा भी वैसे ही होगा जैसे लूट के सामानों के लिए होता है.
सोशल डिस्टैंसिंग का हाल भी छात्र ने सुनाया है, सीट तीन लोगों के लिए बनी है, लेकिन पांच-छह लोग जैसे तैसे बैठे हुए हैं - ये उसके कोच का हाल है. बाकी में भी ठीक वैसा ही हो सकता है और नहीं भी हो सकता है - लेकिन अगर बाकी खाली हैं तो जिम्मेदारी किसकी है?
अगर ये श्रमिक स्पेशल ट्रेनें लॉकडाउन शुरू होते ही चला दी गयी होतीं तो क्या ठीक नहीं होता? जब मजदूरों का हुजूम घरों के लिए सड़कों पर निकल पड़ा था तो इतनी देर क्यों हुई? राहुल गांधी का ये कहना कि लॉकडाउन फेल हो चुका है, कांग्रेस पार्टी का अपना एजेंडा हो सकता है, लेकिन क्या वे लोग जो हालात के मारे हैं उनको भी ऐसा ही लगता होगा? राहुल गांधी अगर लॉकडाउन को फेल बता कर सवाल पूछ रहे हैं कि प्लान बी क्या है, तो क्या वास्तव में हर कोई ऐसी बातों को पॉलिटिकल एजेंडा समझ कर खारिज कर देगा? वे लोग जो इसकी पीड़ा से गुजरे हैं जिनके अपने कोरोना वायरस के संक्रमण से पहले ही किसी और वजह से दम तोड़ चुके हैं. उनकी भी तो कोई सोच होगी. अगर ऐसा नहीं है तो छत्तीसगढ़ के क्वारंटीन सेंटर में सांप के काटने से मर जाने से तो अच्छा ही है कि बिहार के ऐसे ही किसी सेंटर में मौत की दस्तक से पहले कुछ देर अश्लील डांस ही देख लिया जाये. मौत का भय और तकलीफ कुछ तो कम होगी. है कि नहीं?
देश के लोगों को 'मन की बात' का बेसब्री से इंतजार है, लेकिन एक उम्मीद भी कि उनके भी 'मन' की कुछ बातें उसमें जरूर सुनने को मिलेंगी और वो मौजूदा हालात को हंसते हंसते आगे भी झेल लेंगे - वरना लॉकडाउन ने तो अब तक निराश ही किया है!
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