मध्य प्रदेश चुनाव नतीजा बढ़ी हुई वोटिंग से सत्ता-विरोधी नहीं हुआ
मध्य प्रदेश में इस बार पिछले चुनाव के मुकाबले 3 फीसदी अधिक वोटिंग हुई है. आमतौर पर इस तरह की वोटिंग को मौजूदा सरकार के खिलाफ गुस्से के रूप में देखा जाता है. लेकिन मध्य प्रदेश का इतिहास बताता है, ऐसा है नहीं.
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यूं तो किसी भी चुनाव में वोटिंग पर्सेंटेज मतदाताओं की पसंद की ओर एक इशारा करता है, लेकिन मध्यप्रदेश में पिछले चुनाव नतीजों की तुलना वोटिंग पर्सेंटेज बढ़ने से की जाए तो पता चलता है कि यह सीधे-सीधे सत्ता विरोधी नहीं होता. मध्य प्रदेश में इस बार हुई 75 फीसदी वोटिंग को भाजपा और कांग्रेस दोनों अपने पक्ष में मान रहे हैं. जब सच दोनाेें में से एक ही हैंं. तो आखिर वो सच किसके पक्ष में है?
एक ओर शिवराज सिंह कह रहे हैं कि उन्हें पूरा भरोसा है एक बार फिर मध्य प्रदेश में कमल खिलेगा. वहीं दूसरी ओर, कमलनाथ बोले कि पहले उन्होंने कहा था कांग्रेस को 140 सीटें मिलेंगी, लेकिन वोटिंग देखकर लग रहा है नतीजे और भी आश्चर्यजनक होंगे. अब ये वोट किसके पक्ष में गए हैं, इसका फैसला तो 11 दिसंबर को मतगणना के दिन ही होगा. लेकिन पिछले चुनावाेें के नतीजाेें का विश्लेषण दिलचस्प इशारा करता है.
मध्य प्रदेश में इस बार हुई 75 फीसदी वोटिंग को भाजपा और कांग्रेस दोनों की अपने पक्ष में मान रहे हैं.
अगर पिछले 4 विधानसभा चुनावों को 2018 के विधानसभा चुनाव से जोड़कर देखें तो पता चलता है कि वोटिंग पर्सेंटेज लगातार बढ़ा ही है. सबसे पहले 1998 में मध्य प्रदेश चुनाव में 60.72 फीसदी मतदान हुआ था, जिसमें कांग्रेस दूसरी बार जीती थी. लेकिन इसके बाद 2003 में 67.25 फीसदी मतदान हुआ, जिसमें कांग्रेस हार गई और मध्य प्रदेश में कमल खिला. इसके बाद 2008 और 2013 में 69.28 फीसदी और 72.07 फीसदी वोट पड़े, यानी दोनों बार ही वोटिंग बढ़ी, लेकिन लगातार भाजपा जीतती रही. ऐसे में इस बार बढ़ी हुई वोटिंग का मतलब ये नहीं निकाला जा सकता है कि वोट सत्ता के विरोध में पड़े हैं. बल्कि अगर ध्यान से देखा जाए तो वोटिंग बढ़ने की वजहें कुछ और ही हैं.
महिला वोटर्स का बढ़ना
अगर आंकड़ों पर नजर डाली जाए तो पता चलता है कि इस बार के चुनाव में कुल 2.78 फीसदी की बढ़ोतरी हुई है. लेकिन अगर पुरुषों और महिलाओं के वोट अलग-अलग देखे जाएं तो महिलाओं ने पुरुषों को हरा दिया है. और ये शिवराज सिंह चौहान के लिए राहत की बात हो सकती है.
2013 में वोटिंग: कुल 72.13%, पुरुष 73.95%, महिला 70.11%
2018 मेंं वोटिंग: कुल 74.85%, पुरुष 75.72%, महिला 73.86%
2 चनाव में फर्क: कुल +2.72, पुरुष +1.77, महिला +3.75 (पुरुषों का दोगुना)
पिछले चुनाव में तो 230 विधानसभा सीटों में से 25 पर पुरुषों के मुकाबले महिलाओं ने अधिक वोटिंग की थी. इनमें अधिकतर विंध्य क्षेत्र की सीटें थीं. और प्रदेश में अभूतपूर्व बहुमत के साथ शिवराज सिंह की सरकार बनी थी.
अगर पुरुषों और महिलाओं के वोट अलग-अलग देखे जाएं तो महिलाओं ने पुरुषों को हरा दिया है.
'मामा' शिवराज का जादू चल सकता है
महिला वोटर यदि मध्यप्रदेश में ज्यादा मतदान कर रही हैं तो इसे शिवराज सिंह चौहान के लिए सार्थक माना जा सकता है. सूबे में 'मामा' के नाम से मशहूर शिवराज ने अपनी कई योजनाओं को सिर्फ महिलाओं के लिए केंद्रित रखा है. अकेली लाडली लक्ष्मी योजना ही 15 लाख लड़कियोंं तक पहुंंची है. इसके अलावा मुख्यमंत्री कन्यादान योजना, आंगनवाडि़यों में किशोरी बालिका दिवस, मंगल दिवस, गांव की बेटी, प्रतिभा किरण... ये कुछ ऐसे कार्यक्रम है जिन्होंंने शिवराज सिंह की साख को महिलाओं में ऊंचा किया है. किसानों के असंतोष के बावजूद महिलाओं में शिवराज की छवि निर्विवाद है. यदि ताजा चुनाव में महिलाओं ने बढ़चढ़कर वोटिंग की है, तो यह शिवराज सिंह चौहान के लिए राहत देने की बात भी हो सकती है.
नए (युवा) वोटर
इस बार वोटिंग बढ़ने के पीछे सबसे बड़ी वजह ये है कि इस बार बहुत से नए मतदाताओं ने वोट दिया है. उन्होंने वोटिंग में 3 फीसदी की बढ़ोत्तरी की वजह उन 15 लाख नए वोटर्स को बताया है, जिन्होंने पहली बार वोट डाला है. इनमें भी बड़ी तादाद ऐसी लड़कियों की है, जो शिवराज सरकार की योजनाओं का लाभ लेती रही हैं.
मतदाताओं को पोलिंग बूथ तक लाना
भाजपा और कांग्रेस दोनों ने ही मध्य प्रदेश में मतदाताओं को पोलिंग बूथ तक लाने की व्यवस्था की थी. भाजपा ने लोगों को पोलिंग बूथ तक पहुंचाने में बेहतर काम किया. जबकि कांग्रेस में इसका दारोमदार संगठन से ज्यादा चुनाव लड़ रहे उम्मीदवारो पर निर्भर रहा. यानी जितना मजबूत उम्मीदवार, उतना ताकतवर उसका बूथ मैनेजमेंट. दोनों पार्टियों की इन कोशिश के कारण भी इस बार वोटर्स का मतदान के प्रति रुझान बढ़ा है.
आक्रामक चुनाव प्रचार और सोशल मीडिया
भाजपा ने तो मध्य प्रदेश में आक्रामक चुनाव प्रचार किया ही है. साथ ही, 3 राज्यों तक सिमट चुकी कांग्रेस ने भी अपनी साख बचाने के लिए चुनाव प्रचार में कोई कमी नहीं छोड़ी. पीएम मोदी, अमित शाह और राहुल गांधी के अलावा शिवराज सिंह चौहान, कमलनाथ-सिंधिया की जोड़ी ने भी बहुत सारी रैलियां की हैं. इसके इस चुनाव में सोशल मीडिया ने भी मतदाताओं का राजनीतिक रूप से सक्रिय बनाए रखा. वे बीजेपी-कांग्रेस के समर्थन और विरोध में सोशल मीडिया पर सक्रिय रहे. और ये सक्रियता उन्हें मतदान वाले दिन बूथ तक भी लेकर पहुंची. हालांकि, इस बात का आकलन करना मुश्किल है कि प्रचार के दौरान सोशल मीडिया की बहस किसके पक्ष में ज्यादा थी, लेकिन कमलनाथ के विवादास्पद बयान जरूर चर्चा का विषय बने रहे.
चुनाव आयोग की भूमिका
इस बार मध्य प्रदेश के चुनाव में चुनाव आयोग ने भी अहम भूमिका निभाई है. उसने सुरक्षित और निष्पक्ष चुनाव कराने में कोई कमी नहीं छोड़ी. लोगों में विज्ञापनों के जरिए मतदान को लेकर जागरुकता फैलाई और पोलिंग बूथ तक लोगों की पहुंच भी सुनिश्चित कराई.
सत्ता विरोधी फैक्टर?
इस चुनाव में सत्ता विरोधी फैक्टर को सिरे से खारिज भी नहीं किया जा सकता है. लोग शिवराज सिंह से गुस्सा नहीं हैं, लेकिन कहीं न कहीं लोगों में 15 साल पुरानी सरकार से ऊब हाेे सकती है. इस स्थिति में अगर कांग्रेस चुनाव जीत जाती है तो यह आश्चर्यजनक नहीं होगा. वोटिंग पर्सेंटेज में बढ़ोत्तरी का हमेशा मतलब सत्ता विरोधी वोटिंग ही नहीं होता है, लेकिन कांग्रेस ने मध्य प्रदेश में सत्ता विरोधी भावनाओं को एकजुट कर के उन्हें अपने हक में जरूर कर लिया है. किसानों पर गोली चलाने के मुद्दे के अलावा 64 बागी भाजपा नेता भी चुनाव लड़ रहे हैं. मोदी सरकार की नोटबंदी और जीएसटी ने भी लोगों में भाजपा के खिलाफ गुस्सा पैदा किया है.
पिछले चुनाव के ट्रेंड ने ये साफ कर दिया है कि बढ़ी हुई वोटिंग को सत्ता के विरोध में नहीं समझा जा सकता है. बढ़ी हुई वोटिंग के लिए जिम्मेदार फैक्टर्स की लिस्ट भी आप देख ही चुके हैं, जिससे साफ हो जाता है कि सत्ता विरोधी भावनाओं को कांग्रेस ने भुनाया जरूर है, लेकिन उसके अलावा भी बहुत ही वजहें हैं, जिन्होंने वोटिंग बढ़ाने में मदद की है. वोटिंग के पैटर्न में अभी इस बात का रहस्य खुलना बाकी है िकि मध्यप्रदेश के शहरी और ग्रामीण अंचल में हुए वोटिंग में क्या फर्क है. शहरों म में जहांं भाजपा परंपरागत रूप से हावी रही है, वहींं क्या किसानों का गुस्सा बीजेपी को नुकसान पहुंचाएगा, जैसा कि गुजरात चुनाव में हुआ था? देखना दिलचस्प होगा.
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