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Updated: 01 मई, 2020 08:12 PM
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महाराष्ट्र दिवस पर उद्धव ठाकरे (Uddhave Thackeray) को तकरीबन वैसी ही खुशखबरी मिली है, जैसी मई दिवस पर झारखंड के मजदूरों को तेलंगाना में सौगात मिली. घर जाने का इंतजाम होना अभी के लिए तो सबसे बड़ी बात रही. लॉकडाउन में फंसे 1200 मजदूरों को लेकर तेलंगाना से पहली स्पेशल ट्रेन झारखंड रवाना हो चुकी है. किसी और के लिए ये बताना तो मुश्किल है कि ज्यादा खुश उद्धव ठाकरे होंगे या ट्रेन में बैठे वे मजदूर - क्योंकि खुशी तो अंदर से महसूस करने की चीज होती है. सच तो यही है कि फिलहाल दोनों ही कोरोना वायरस से पैदा हुए हालात में लॉकडाउन के साइड इफेक्ट के मारे हुए हैं.

ये सही है कि उद्धव ठाकरे की कुर्सी पर मंडराता खतरा एक कदम टल जरूर गया है. राज्यपाल के पत्र पर एक्शन में आये चुनाव आयोग ने महाराष्ट्र विधान परिषद (Maharashtra MLC Election) की नौ सीटों पर 21 मई को चुनाव कराने के लिए अधिसूचना जारी कर दी है. फिर तो चुनाव होंगे ही, लेकिन राजनीतिक रूप से बीजेपी फॉर्म में तभी लौटेगी भी - और वो देखने लायक होगा.

उद्धव ठाकरे की प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी (Narendra Modi) को फोन करने और अब राज्यपाल भगत सिंह कोश्यारी की सलाह पर चुनाव आयोग की अधिसूचना के बाद - क्या माना जा सकता है कि उद्धव ठाकरे की राजनीतिक ताकत बढ़ने लगी है?

क्या ये उद्धव ठाकरे का लोहा मानने जैसा है?

एक तो मौके की राजनीति होती है - और एक जिसमें दूरगामी सोच के साथ राजनीतिक फैसले लिये जाते हैं. महाराष्ट्र की राजनीति में अभी यही चल रहा है.

उद्धव ठाकरे मौके की राजनीति कर रहे हैं - और देखा जाये तो बीजेपी नेतृत्व दूरगामी सोच के साथ फैसले ले रहा है. दोनों ही राजनीतिक तौर पर सही हैं, लेकिन मौके की राजनीति जरूरी नहीं कि टिकाऊ भी हो. दूरगामी सोच की राजनीति में भी खतरा होता है कि बाद के हालात बदल गये तो? हो सकता है कांग्रेस 2014 तक कांग्रेस नेतृत्व का जोर भी मौके की राजनीति पर ही रहा हो - और अरसे से बीजेपी दूरगामी सोच के साथ राजनीति करती आ रही थी. दोनों दलों की मौजूदा पोजीशन तो यही कहानी सुना रही है.

छह महीने पहले भी उद्धव ठाकरे और उनकी टीम मौके की ही राजनीति कर रही थी. तब के दौर में बीजेपी भी पहले मौके की राजनीति से बचती चली आ रही थी, लेकिन अचानक देवेंद्र फडणवीस का मन डोल गया और तीन दिन के मुख्यमंत्री बन कर ऐसा हाल कर लिये कि अब तो मौके की छाछ भी फूंक फूंक कर पी रहे हैं. जब राज्यपाल भगत सिंह कोश्यारी ने चुनाव आयोग को पत्र लिखा तो देवेंद्र फडणवीस की प्रतिक्रिया रही कि ये अच्छा हुआ है क्योंकि राज्यपाल की नियुक्ति वाले विधायक का मंत्री या मुख्यमंत्री बनना ठीक नहीं होता.

राज्यपाल कोश्यारी ने चुनाव आयोग से अनुरोध किया था कि जल्द से जल्द महाराष्ट्र विधान परिषद की 9 खाली सीटों पर चुनाव कराया जाये. राज्यपाल ने चुनाव आयोग को महाराष्ट्र में 24 अप्रैल से खाली पड़ीं 9 सीटों की तरफ ध्यान दिलाया था. दरअसल, कोरोना संकट को देखते हुए चुनाव आयोग ने अनिश्चित काल के लिए चुनाव टाल दिये थे.

राज्यपाल ने चुनाव आयोग को लॉकडाउन में केंद्र सरकार की गाइडलाइन में मिलने वाली छूटों का हवाला दिया और जल्दी से फैसले लेने का आग्रह किया था. राज्यपाल का कहना रहा कि लॉकडाउन के बीच मिले छूट में विधान परिषद के चुनाव कुछ दिशानिर्देशों के साथ हो सकते हैं.

uddhav thackerayमहाराष्ट्र दिवस के मौके पर कार्यक्रम में उद्धव ठाकरे

राज्यपाल के आग्रह पर चुनाव आयोग ने फौरन मीटिंग बुलायी और विचार करने के बाद तत्काल प्रभाव से अधिसूचना भी जारी हो गयी. अब महाराष्ट्र विधान परिषद की 9 सीटों पर 21 मई, 2020 को चुनाव होने जा रहा है.

महाराष्ट्र मंत्रिमंडल की तरफ से राज्यपाल भगत सिंह कोश्यारी को दो बार प्रस्ताव भेजे गये थे कि वो उद्धव ठाकरे को विधान परिषद के लिए मनोनीत करें, लेकिन राज्यपाल ने ऐसा नहीं किया क्योंकि उद्धव ठाकरे न तो खेल, कला, लेखन या समाजसेवा किसी भी कैटेगरी में फिट हो पा रहे थे. नियमों के तहत नियुक्ति तो कैबिनेट की सिफारिश पर ही होती है और राज्यपाल ही करते हैं लेकिन मनोनयन के लिए इन्हीं कैटेगरी में से होना जरूरी होता है.

वैसे महाराष्ट्र दिवस के मौके पर मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे ने राज भवन जाकर राज्यपाल भगत सिंह कोश्यारी से मुलाकात भी की. हालांकि, बताया यही गया कि ये शिष्टाचार मुलाकात रही. वैसे शुक्रिया कहना भी तो शिष्टाचार का ही हिस्सा होता है.

जब कोई रास्ता नहीं सूझा तो उद्धव ठाकरे ने सीधे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को फोन लगाया और कहा कि महाराष्ट्र में राजनीतिक अस्थिरता फैलाने की कोशिश हो रही है - और बहुत जरूरी है कि वो इस मामले में दखल दें. सुनने में आया कि उद्धव ठाकरे के आग्रह पर प्रधानमंत्री मोदी ने कहा था कि देखेंगे और अब तो साफ है देख लिया. अच्छे से देख लिया. ऐसे देखा कि सब कुछ उद्धव ठाकरे के मन मुताबिक होने जा रहा है.

जो कुछ भी राजनीतिक तौर पर होने जा रहा है उसमें स्थायी भाव तो नहीं है. ऐसा बिलकुल नहीं है कि उद्धव ठाकरे को अब पांच साल के लिए सरकार चलाने की बीजेपी ने छूट दे दी हो. उद्धव ठाकरे की किस्मत से चुनाव आयोग का ये फैसला भी कुछ कुछ वैसे ही है जैसे वित्त वर्ष दो महीने के लिए बढ़ा दिया गया या शैक्षणिक सत्र को सितंबर से शुरू किया जा रहा हो. तकनीकी तौर पर नहीं लेकिन व्यावहारिक राजनीति का यही तकाजा है - और अगर उद्धव ठाकरे इसे लॉकडाउन व्यवस्था से ज्यादा समझने लगते हैं तो ये तो उनकी बड़ी भूल साबित होगी.

लेकिन क्या ये उद्धव ठाकरे की बढ़ती राजनीतिक ताकत का नतीजा नहीं है?

है भी - और नहीं भी है. उद्धव ठाकरे को ये दिन अभी इसलिए देखने पड़े क्योंकि अचानक से कोरोना वायरस का संकट खड़ा हो गया. वैसे बीजेपी के कुछ नेता उद्धव ठाकरे और

शिवसेना को ही इसका जिम्मेदार बता रहे थे. अगर उद्धव ठाकरे चाहते तो कोई भी एमएलसी इस्तीफा दे देता और वो कब के विधायक बन चुके होते - लेकिन ऐसा नहीं किया. हो सकता है मान कर चल रहे हों कि जब 24 मई से पहले 9 सीटों के लिए चुनाव होना निश्चित हो तो किसी और को इस्तीफा देने की क्या जरूरत.

ये ठीक है कि कोरोना संकट के कारण ही उद्धव ठाकरे संवैधानिक संकट में फंस गये, लेकिन ये भी सौ फीसदी सच है कि कोरोना वायरस और लॉकडाउन के चलते ही उन्हें मुख्यमंत्री बने रहने का रास्ता भी साफ हुआ है. अगर बीजेपी नेतृत्व हरकत में आ जाता तो उद्धव ठाकरे को कुर्सी पर बैठे रहने और विरोधी राजनीतिक गठबंधन को सत्ता में बने रहने के लिए बीजेपी की तरह से ऐसा पास मिलना नामुमकिन ही था.

शिवसेना भले ही कुछ देर के लिए खुश हो ले कि बीजेपी को उद्धव ठाकरे का लोहा मानने के लिए मजबूर होना पड़ा है - तो ये भी कहा जा सकता है कि ये महज चार दिन का ही ख्याली पुलाव है.

ये भी सही है कि उद्धव ठाकरे अपने 100 दिन की सरकार का इम्तिहान पहले ही दे चुके हैं और कोई बड़ा सवाल नहीं उठा है. कोरोना वायरस पर काबू पाने के लिए भले ही उद्धव ठाकरे अभी जूझ रहे हों, लेकिन कुर्सी पर खतरा कम करने में तो सफल हो ही गये हैं. फिलहाल.

खतरा टला है, खत्म नहीं हुआ है

उद्धव ठाकरे को कुर्सी बचाने का मौका मिल जाना बता रहा है कि बीजेपी अभी बैकफुट पर खेल रही है - क्योंकि ये वक्त का तकाजा है. बीजेपी वक्त की नजाकत को अच्छी तरह समझ रही है. असल बात तो ये है कि बीजेपी को गर्म लोहे का इंतजार है जब वार करे तो अचूक हो, बेकार न चला जाये.

बीजेपी के फिलहाल खामोश रह जाने की बड़ी वजह भी. अगर उद्धव ठाकरे की सरकार गिर जाती तो लोगों में साफ साफ मैसेज जाता कि बीजेपी ने ऐसा कर दिया. वस्तुस्थिति ये रही कि बीजेपी चुपचाप रह जाती और उद्धव ठाकरे को सारे दांव पेच आजमाने के लिए खुला छोड़ देती. बस चुपचाप सब देखती रहती.

उद्धव ठाकरे के पास भी कुर्सी पर बने रहने के कुछ उपाय बचे हुए थे, लेकिन वे सभी जोखिम भरे थे. कामयाबी की शर्त महाविकास आघाड़ी का अटूट रहना और उद्धव ठाकरे के नेतृत्व को सपोर्ट करना भी रहा. उद्धव ठाकरे चाहते तो एक दिन इस्तीफा देकर अगले दिन फिर से मुख्यमंत्री पद की शपथ ले लेते.

इसमें तो कोई दोराय नहीं होनी चाहिये कि उद्धव ठाकरे ने इमरजेंसी के हालात का राजनीतिक फायदा उठाया है. चूंकि उद्धव ठाकरे ने फोन कर प्रधानमंत्री मोदी से मदद मांगी थी, इसलिए निराश होने की कम ही संभावना रही होगी. और प्रधानमंत्री मोदी की आश्वस्ति के चलते अमित शाह भी धैर्य के साथ सब कुछ मूकदर्शक की तरह देख रहे होंगे. वैसे भी ये अमित शाह ही हैं जिनकी वजह से उद्धव ठाकरे मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बैठ पाये थे. वरना, अगर गठबंधन में तनाव और दरार की नौबत से पहले अमित शाह पहले की तरह मातोश्री हो आये होते कहानी दूसरी ही होती. उद्धव ठाकरे की सरकार को उम्र बख्शी गयी है और वो सिर्फ आपातकालीन है. अभी तो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को उद्धव ठाकरे मनाने में कामयाब रहे हैं - आगे क्या ऐसे ही वो अमित शाह को भी मना पाएंगे?

उद्धव ठाकरे ने भले ही कुछ और भी सोच रखा हो, लेकिन आगे बढ़ने से पहले उनका मेन स्वीच चेक करने का फैसला सही रहा क्योंकि प्रधानमंत्री मोदी ने उनको निराश नहीं होने दिया है. अब तो उद्धव ठाकरे भी मान ही रहे होंगे - मोदी है तो मुमकिन है!

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