2021 में ममता बनर्जी का भी वही हाल है जो 2012 में मोदी का था!
ममता बनर्जी (Mamata Banerjee) बंगाल में आज वही चुनौती फेस कर रही हैं जो नौ साल पहले नरेंद्र मोदी (Narendra Modi) ने गुजरात के मुख्यमंत्री रहते झेली थी - और खास बात ये है कि सारी चीजों के गवाह वही प्रशांत किशोर (Prashant Kishor) ही हैं.
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ममता बनर्जी (Mamata Banerjee)2021 में जिस तरह तीसरी पारी की जंग लड़ रही हैं, 2012 में नरेंद्र मोदी (Narendra Modi) भी गुजरात में ऐसी ही चुनौतियों से दो-दो हाथ कर रहे थे - और ये भी संयोग ही है कि 9 साल पहले जैसी चुनौतियां चुनावी रणनीतिकार प्रशांत किशोर (Prashant Kishor) के सामने रहीं, एक बार फिर वही आ खड़ी हुई हैं.
हालात जरा भी बदले हों, लगता तो नहीं है. हां, फर्क ये जरूर है कि तब प्रशांत किशोर को लोग इस कदर नहीं जानते थे - और उनकी बातों, ट्वीट या ऑडियो लीक जैसी चीजों पर किसी का ध्यान तक नहीं जाता था.
2012 में गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी के लिए प्रशांत किशोर ने जिस तरह की चुनावी मुहिम चलायी थी, 2021 में वो पश्चिम बंगाल में मुख्यमंत्री ममता बनर्जी के लिए उससे कहीं ज्यादा बढ़िया अभियान चला रहे होंगे - फर्क एक ये भी है कि बिहार चुनाव के बाद एक बार फिर उनका अभियान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के खिलाफ फोकस है.
ये भी संयोग ही है कि प्रशांत किशोर के नये क्लाइंट ने उनके करियर पर ही खतरे की तलवार लटका दी है, जिस पुराने क्लाइंट के साथ काम की कामयाबी ने प्रशांत किशोर को भारत की चुनावी राजनीति का बेताज बादशाह बना दिया - अब नया क्लाइंट उसे खतरे में डाल चुका है.
अब तो प्रशांत किशोर कहने लगे हैं कि बीजेपी की सीटें 100 से ज्यादा आ गयीं तो वो चुनावी मुहिम चलाने का ठेका लेना ही छोड़ देंगे. फिर तो पंजाब के मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह के भी चितिंत होने की वजह है - क्योंकि अगर बीजेपी की बंगाल में सीटें 100 से ज्यादा आ गयीं तो उनको प्रशांत किशोर की सेवाओं से वंचित होना पड़ सकता है.
2012 का गुजरात VS 2021 का बंगाल
एक सवाल फिलहाल काफी मौजूं हो गया है - क्या ममता बनर्जी का भी हाल भी 2021 में गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी जैसा हो गया है?
तब मोदी चुनावी रैलियों में बार बार कहा करते थे, 'मेरा मुकाबला सीबीआई से है.' कांग्रेस नेतृत्व अपनी तरफ से मामूली जोर नहीं लगाया था, ममता बनर्जी के सामने भी तकरीबन वैसे ही हालात हैं और वो भी ठीक वैसे ही जूझने को मजबूर हैं.
ये ममता बनर्जी की साफ सुथरी छवि ही है कि सीबीआई या ऐसी कोई दूसरी जांच एजेंसी उनके पीछे नहीं लगी है - हां, अभिषेक बनर्जी और उनकी पत्नी को टारगेट कर राजनीतिक दुश्मनी निभाये जाने की बात और है जो ममता बनर्जी भी शिद्दत से महसूस कर ही रही हैं.
ममता बनर्जी को लगता है कि फिलहाल चुनाव आयोग ही उनके साथ सीबीआई और इनकम टैक्स डिपार्टमेंट जैसे रोल में पेश आ रहा है. पहले से ही ममता बनर्जी चुनाव आयोग से सिर्फ पश्चिम बंगाल में 8 चरणों में चुनाव कराये जाने को लेकर ही खफा रहीं - वैसे भी कोरोना विस्तार में चुनाव आयोग के फैसले पर अलग से सवाल उठने लगे हैं.
ममता बनर्जी के खिलाफ चुनाव आयोग ने 24 घंटे चुनाव प्रचार पर बैन लगा दिया तो उनको धरने पर अकेले बैठना पड़ा. इससे पहले जब वो धरने पर अपने चहेते पुलिस अफसर के लिए बैठी थीं तो पूरा सपोर्ट सिस्टम उनके साथ नजर आया.
देश भर से राजनीतिक समर्थक बयान जारी कर ममता बनर्जी के पीछे खड़े देखने को मिले थे. इस बार तो खुल कर भी सपोर्ट मांगने के बावजूद शरद पवार जैसे नेता खामोशी अख्तियार कर चुके हैं. उद्धव ठाकरे भी घर पहले संभाले कि दोस्ती निभायें. अखिलेश यादव और मायावती को तो जैसे मुख्तार के यूपी पहुंचने के साथ ही सांफ सूंघ गया है - राहुल गांधी ने तो आधा चुनाव बीत जाने के बाद बंगाल का रुख किया है.
लेकिन ममता बनर्जी भी हर मौके के लिए कोई न कोई आइडिया ढूंढ़ ही लेती हैं - अब धरने पर चाय तो बना नहीं सकतीं. न ही लोगों के लिए खाना पका सकती हैं. आखिर अकेले धरने पर कोई कर भी क्या सकता है - तभी तो ममता बनर्जी पेंटिंग बना रही हैं.
ममता बनर्जी का एकला चलो अभियान - धरना और पेंटिंग!
कोरोना की पिछली लहर में ममता बनर्जी पर लॉकडाउन ठीक से लागू न करने के लिए केंद्रीय गृह मंत्रालय की तरफ से नोटिस जारी किया गया था. जांच पड़ताल के लिए केंद्र से टीम भी भेजी गयी थी. मौतों के आंकड़े छिपाने के आरोप लगे थे, लेकिन जो डॉक्टर मौतों के आंकड़ों को लेकर सवाल कर रहे थे वे ही आज चुनाव आयोग को चिट्ठी लिख कर पूछ रहे हैं कि अमित शाह मास्क क्यों नहीं लगाते - जब भी वो रोड शो या रैली कर रहे होते हैं?
फिलहाल महाराष्ट्र और दिल्ली में कोरोना विस्फोट की तो चर्चा जोर शोर से हो रही है, लेकिन पश्चिम बंगाल को लेकर न तो वैसी कोई चिंता जतायी जा रही है न ही नोटिस थमाने जैसी कोई तत्परता.
क्या पश्चिम बंगाल के लिए भी 2 मई का इंतजार हो रहा है - जैसे विपक्ष का सीधा आरोप रहा है कि मध्य प्रदेश में जब तक शिवराज सिंह चौहान शपथ नहीं ले लिये, तब तक देश में लॉकडाउन नहीं लगा.
ममता बनर्जी की मौजूदा मुसीबतों के साये में जरा याद कीजिये कैसे गुजरात में मोदी तब कांग्रेस नेतृत्व का मुकाबला कर रहे थे. ठीक पहले 2007 के चुनाव में सोनिया गांधी, नरेंद्र मोदी का मौत का सौदागर बता चुकी थीं - और 2012 में भी वैसे ही आक्रामक रहीं.
बीजेपी नेतृत्व भी ममता बनर्जी के खिलाफ बिलकुल वैसे ही हमलावर है जैसे 2012 में कांग्रेस नेतृत्व रहा. जैसे कांग्रेस नेता जैसे तब नरेंद्र मोदी को 2002 के दंगों को लेकर कठघरे में खड़ा करते रहे, आज बीजेपी नेता ममता बनर्जी को भी तोलाबाजी और कट मनी को लेकर हमलावर हैं. एक फर्क जरूर है कि ममता बनर्जी की कमजोर कड़ी भतीजे अभिषेक बनर्जी और उनकी पत्नी रुजिरा बनर्जी हैं, जबकि मोदी के मामले में ऐसा कोई नाजुक मोड़ नहीं था.
पश्चिम बंगाल बीजेपी अध्यक्ष दिलीप घोष तो मुख्यमंत्री की टांगों तक पर टिप्पणी कर देते हैं - और कूच बेहार जैसी घटनायें दोहराये जाने का धमकी भरे अंदाज में इशारे कर रहे हैं.
कौन बनेगा देश में नेता विपक्ष का?
गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी तो 2012 का चुनाव भी जीते और दो साल बाद बीजेपी को लोक सभा का चुनाव जिता कर देश के प्रधानमंत्री की कुर्सी पर भी बैठ गये, लेकिन तमाम समानता के बावजूद ममता बनर्जी के सामने मुश्किलें अलग है और बाकियों की कौन कहे प्रशांत किशोर की बातों से भी संशय के ही संकेत मिलते हैं.
जब 2012 में मोदी तत्कालीन सत्ताधारी कांग्रेस नेतृत्व से लड़ रहे थे तो मनमोहन सरकार भ्रष्टाचार के तमाम आरोपों से जूझ रही थी, लेकिन अब जबकि ममता बनर्जी करीब करीब वैसी ही लड़ाई लड़ रही हैं तो प्रधानमंत्री मोदी की लोकप्रियता को उनके चुनावी रणनीतिकार प्रशांत किशोर भी सातवें आसमान पर होने जैसा मान रहे हैं.
प्रशांत किशोर मौजूदा चुनाव में ममता बनर्जी की जीत का दावा तो कर रहे हैं - और बीजेपी के हिस्से की सीटों के 100 का आंकड़ा भी पार न करने के दावे कर रहे हैं, लेकिन जिस तरह से वो ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस सरकार के खिलाफ सत्ता विरोधी लहर और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की देश भर में लोकप्रियता को महसूस कर रहे हैं.
लगता तो ये है जैसे प्रशांत किशोर खुद भी ममता बनर्जी की जीत को लेकर पूरी तरह आश्वस्त नहीं हैं - खासकर वैसे जैसे 2012 और 2014 में नरेंद्र मोदी को लेकर रहे, 2015 में नीतीश कुमार को लेकर रहे होंगे, 2017 में कैप्टन अमरिंदर सिंह, 2019 में जगनमोहन रेड्डी, 2020 में अरविंद केजरीवाल और एक बार फिर 2022 में पंजाब में कांग्रेस के मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह के लिए ₹1 की सैलरी पर भी हो रहे होंगे.
जो हालात हैं, उसमें ममता बनर्जी अगर चूक भी जाती हैं तो मोदी विरोध के नाम पर राष्ट्रीय स्तर पर उनके गैरहिंदीभाषी होने के बावजूद काफी हद छा जाने की संभावनाएं प्रबल नजर आ रही हैं - क्योंकि मोदी विरोध की एकमात्र आवाज फिलहाल ममता बनर्जी ही बची लगती हैं.
कांग्रेस नेतृत्व तो लगता है विपक्ष की भूमिका में रस्म अदायगी भी नहीं निभा पा रहा है. हो सकता है कांग्रेस नेतृत्व बंगाल चुनाव से दूर रह कर ममता बनर्जी को परोक्ष रूप से सपोर्ट कर रहा हो, जैसे दिल्ली विधानसभा चुनाव में महसूस किया गया - तब तो यही लगा था कि कांग्रेस चाहती थी कि अरविंद केजरीवाल भले वापसी कर लें, लेकिन बीजेपी ने जीत पाये. पश्चिम बंगाल में भी इरादे कुछ कुछ ऐसे ही लग रहे हैं.
2013 से पहले और फिर 2015 से 2017 तक अपनी छवि और राजनीतिक-प्रशासनिक अनुभव की बदौलत नीतीश कुमार ये रोल निभाने को तैयार लगते थे - और कुछ हद तक हिंदीभाषी होने और साफ सुथरी इमेज के साथ अरविंद केजरीवाल भी. नीतीश कुमार तो बहुत पहले ही हथियार डाल चुके थे, जब से अरविंद केजरीवाल हनुमान चालीसा पढ़ते पढ़ते दिल्ली में दिवाली मनाने लगे, बची खुची उम्मीद भी टूट चुकी है - और ऐसे में ममता बनर्जी जीतें चाहें हारें, देश में विपक्ष की नेता वाली जगह में उनके फिट होने की संभावना बढ़ गयी है.
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