राहुल से परहेज करने वाली ममता को प्रियंका कहां तक पसंद हैं?
ममता बनर्जी ने जिस तरह प्रियंका गांधी के सोनभद्र दौरे का सपोर्ट किया है, वैसी गर्माहट तो राहुल गांधी को लेकर देखने को नहीं ही मिली है. क्या ममता बनर्जी की राजनीति में सोनिया गांधी की जगह प्रियंका वाड्रा लेने जा रही हैं?
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योगी आदित्यनाथ सरकार ने अगर रोका नहीं होता तो प्रियंका गांधी वाड्रा और डेरेक ओब्रायन की आपस में मुलाकात होती ही, ये कतई जरूरी नहीं था. हुआ तो यही होता कि प्रियंका गांधी सोनभद्र के उम्भा गांव जातीं, नरसंहार के पीड़ित परिवारों से मिलतीं, फिर मीडिया में यूपी की बीजेपी सरकार पर हमला बोलतीं और दिल्ली लौट जातीं.
ठीक वैसे ही ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस का तीन सदस्यों का प्रतिनिधिमंडल भी उम्भा गांव जाकर लोगों से मिलता जुलता और दो चार ट्वीट कर कोलकाता लौट जाता. कोलकाता की राजनीति अपने हिसाब से चल रही होती और दिल्ली की अपने तरीके से.
यूपी के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के एक गलत राजनीतिक फैसले ने बीजेपी नेतृत्व की जीतोड़ मेहनत पर बहुत ज्यादा न सही लेकिन कुछ न कुछ पानी तो फेर ही दिया है. पश्चिम बंगाल से तृणमूल कांग्रेस को सत्ता से बेदखल करने के लिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह एक भी मौका नहीं चूकते. दोनों बड़े नेता देश में कहीं भी रैली कर रहे हों - किसी न किसी बहाने ममता बनर्जी उनके भाषण में निशाने पर आ ही जाती हैं. हो सकता है योगी आदित्यनाथ मौका-ए-वारदात पर सबसे पहले पहुंचना चाह रहे हों, इसीलिए बाकियों को रोके रखा होगा - लेकिन ममता बनर्जी और प्रियंका गांधी की दोस्ती बढ़ने लगी है तो इसका पूरा श्रेय बीजेपी अपने सबसे चर्चित चेहरों में से एक योगी आदित्यनाथ को ही देना चाहेगी, भले ही ये बात सार्वजनिक तौर पर साझा करना उसके मुश्किल हो. असल बात तो यही है.
ममता को प्रियंका पसंद हैं!
राहुल गांधी से ममता बनर्जी को शुरू से ही परहेज रहा है और वो बात खत्म तो अब भी नहीं हुई लगती, लेकिन प्रियंका गांधी के साथ ऐसा नहीं लगता. खास कर उनके ताजा यूपी दौरे के बाद. ममता बनर्जी के कार्यक्रमों से दूरी बनाते राहुल गांधी को भी देखा गया है, हालांकि, कांग्रेस नेता प्रतिनिधि के तौर पर कोलकाता रैली में गये जरूर थे. आम चुनाव से पहले राहुल गांधी और ममता बनर्जी की मुलाकात शरद पवार के घर पर हुई थी जिसमें दिल्ली में अरविंद केजरीवाल की आम आदमी पार्टी के साथ गठबंधन पर भी गहन विमर्श हुआ था. सारी कवायद के बावजूद न तो दिल्ली में गठबंधन हुआ और न ही दिल्ली में. बाद में बालाकोट एयरस्ट्राइक के बाद 21 विपक्षी दलों की मीटिंग में भी दोनों नेताओं की भेंट हुई थी. होने को तो विपक्षी दलों की मीटिंग आम चुनाव के नतीजों के पहले भी होनी थी, लेकिन उसे 23 मई तक टाल दिया गया - और फिर तो कोई मतलब ही नहीं रह गया.
पहले भी देखा गया है कि ममता बनर्जी दिल्ली आकर सोनिया गांधी से मिलने तो 10, जनपथ तक पहुंच जाती हैं लेकिन राहुल गांधी से मिलने में उनकी कोई दिलचस्पी नहीं दिखती. विपक्षी दलों की वो मीटिंग न हो पाने में ममता और राहुल का मनमुटाव ही रहा होगा - क्योंकि चुनाव प्रचार के दौरान पश्चिम बंगाल जाकर राहुल गांधी ने ममता बनर्जी को खूब खरी खोटी सुना डाली थी. राहुल के हमले भी करीब करीब वैसे ही रहे जैसे मोदी और शाह के हुआ करते हैं. उस मीटिंग के लिए टीडीपी नेता एन. चंद्रबाबू नायडू पहले दिल्ली आकर राहुल गांधी से मिले फिर ममता बनर्जी से मिलने कोलकाता भी गये लेकिन ममता बनर्जी ने जैसे तैसे टाल दिया.
क्या ममता बनर्जी को राहुल गांधी से ज्यादा प्रियंका वाड्रा पसंद हैं?
ममता बनर्जी और सोनिया गांधी हमेशा मिलती रही हैं. ममता बनर्जी और राहुल गांधी की मुलाकातें भी कई बार हुई हैं, लेकिन प्रियंका गांधी और ममता बनर्जी की अभी तक कोई औपचारिक मुलाकात नहीं हुई है. बस इतना हुआ है कि वाराणसी एयरपोर्ट पर धरने पर बैठे टीएमसी नेताओं से मिलने प्रियंका गांधी पहुंच गयीं. मुलकात भी हुई और बातचीत भी. ध्यान देने वाली बात ये है कि इस मुलाकात का वीडियो ममता बनर्जी की पार्टी ने ट्विटर पर शेयर किया और कहा, 'धरने पर बैठे टीएमसी प्रतिनिधिमंडल के पास आने और सोनभद्र नरसंहार पर अपने विचार साझा करने के लिए प्रियंका गांधी को शुक्रिया.'
Thank you @priyankagandhi for coming by and exchanging thoughts on the #SonbhadraMassacre with the delegation of Trinamool MPs on dharna #video outside Varanasi airport. What a brutal killing of tribals for land rights pic.twitter.com/rwuPXDwZqd
— All India Trinamool Congress (@AITCofficial) July 20, 2019
ममता बनर्जी ने भी प्रियंका गांधी के दौरे का समर्थन किया है. ममता बनर्जी ने कहा कि प्रियंका गांधी ने जो किया उसमें कुछ गलत नहीं था. दूसरी तरफ टीएसमी प्रतिनिधिमंडल को वाराणसी एयरपोर्ट पर ही रोक दिये जाने से खपा ममता बनर्जी ने बीजेपी पर तगड़ा हमला बोला. ममता बनर्जी ने कहा कि जब भी बंगाल में सांप्रदायिक हिंसा होती है, बीजेपी अपना प्रतिनिधिमंडल भेज देती है. वे न तो किसी इजाजत लेते हैं, न किसी की सुनते हैं. सीधे घटनास्थल पर पहुंच जाते हैं. ममता ने कहा है कि टीएमसी के प्रतिनिधिमंडल को उत्तर प्रदेश में जाने नहीं दिया गया.
आखिर ममता बनर्जी ने राहुल गांधी के सपोर्ट में ऐसा बयान कितनी बार दिया है? याद करना मुश्किल होता है. किसी एक मुद्दे पर सभी के साथ होने की स्थिति में और इस मामले में बात अलग है. सोनभद्र जाने का प्लान प्रियंका गांधी ने तब किया जब अखिलेश यादव ने एक बयान और मायावती ने कुछ बातें बोल कर इतिश्री कर ली. मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के मौके जाने का प्रोग्राम भी तो प्रियंका के बाद ही आया है. ऐसे में ममता बनर्जी का टीएमसी का प्रतिनिधिमंडल भेजना और फिर नाम लेकर प्रियंका गांधी को सपोर्ट करना किसी का भी ध्यान खींचने के लिए काफी लगता है. ये ठीक है कि दोनों का कॉमन एजेंडा है और सियासी दुश्मन भी एक ही, इसलिए वे एक दूसरे को सपोर्ट कर रहे हैं - लेकिन ये बात कुछ आगे तक जाती नजर आती है. प्रियंका गांधी हिरासत में लिये जाने के बाद धरने पर बैठ जाती हैं. धरना भी तभी खत्म करती हैं जब योगी सरकार को झुका लेती हैं - और फिर मिलने आने के वादे के साथ लौट जाती हैं. एयरपोर्ट पर पहुंच कर टीएमसी नेताओं से मिलती हैं और दोनों पक्ष एक दूसरे को सपोर्ट करते हैं. फिर इस बात को टीएमसी की ओर से ट्विटर पर शेयर किया जाता है. प्रियंका गांधी को टैग करते हुए शेयर किया जाता है. ममता बनर्जी न्यूज एजेंसी को बयान देकर प्रियंका गांधी के कदम के प्रति समर्थन जताती हैं - ये सब यूं ही तो नहीं माना जा सकता है. खासकर तब जबकि राजनीति में एक एक शब्द और व्यक्त करते वक्त चेहरे के हाव भाव के भी विशेष अर्थ निकाले जाते हों.
आगे क्या होने वाला है ये तो दोनों नेताओं पर निर्भर करता है कि वे बात को कितना आगे बढ़ाने को आतुर हैं. मगर, एक बात तो साफ है कि ममता बनर्जी राहुल गांधी के मुकाबले ज्यादा कम्फर्टेबल होंगी, ये संकेत दे दिया है.
बंगाल में गठबंधन की राह निर्बाध है
चुनावी हार जीत अपनी जगह होती है, लेकिन राजनीतिक लड़ाई में विरोधी दलों को शिकस्त देना भी बहुत मायने रखता है. प्रियंका गांधी ने 24 घंटे धरने पर बैठने के बाद तभी लौटी हैं जब उनकी मांगें पूरी हुई हैं. साफ है इसे योगी सरकार के झुकने के तौर पर ही देखा जाएगा. कांग्रेस के लिए ये जश्न का दिन जैसा रहा लेकिन अफसोस की बात ये रही कि शीला दीक्षित का निधन हो गया - जो दिल्ली में कांग्रेस के अनाथ हो जाने जैसा है. शीला दीक्षित अपनी सूझबूझ से तमाम राजनीतिक दुश्वारियों को बावजूद दिल्ली में कांग्रेस को खड़ा करने के लिए आखरी दम तक जूझती रहीं.
पश्चिम बंगाल में 2020 में विधानसभा के चुनाव होने वाले हैं और ममता बनर्जी तैयारियों में जुट गयी हैं. ममता को सत्ता से बेदखल करने में केंद्र में सत्ताधारी बीजेपी भी शिद्दत से जुटी हुई है.
पश्चिम बंगाल में ये कहना तो मुश्किल होगा कि ममता बनर्जी और कांग्रेस अगर हाथ मिलाते हैं तो किसकी जरूरत सबसे ज्यादा पूरी होती है. बीजेपी ने आम चुनाव में 18 सीटें जीत कर टीएमसी को तो 34 से 22 पर ला ही दिया. कांग्रेस ने तो दो सीटें जीत भी ली, सीपीएम के खाते में तो जीरो बैलेंस ही रहा. मौके की नजाकत को समझते हुए ममता बनर्जी ने कांग्रेस और सीपीएम दोनों को टीएमसी के साथ आने का न्योता दे रखा है. वैसे ममता की अपील को एक तरीके से स्थानीय नेताओं ने तत्काल ही ठुकरा दिया, लेकिन ऐसा भी नहीं की चुनावी गठबंधन की सारी संभावनाएं ही खत्म हो गयीं. वैसे भी कांग्रेस ने टीएमसी के साथ किसी भी गठबंधन के विरोधी अधीर रंजन चौधरी को पहले ही दिल्ली बुला लिया है.
पश्चिम बंगाल में कांग्रेस और टीएमसी के बीच किसी तरह का चुनावी समझौता न होने के लिए जो दो लोग जिम्मेदार रहे हैं, फिलहाल वे बदली हुई भूमिका में हैं. अधीर रंजन चौधरी को लोक सभा में कांग्रेस का नेता बना दिया गया है. पहले वो पश्चिम बंगाल कांग्रेस के अध्यक्ष हुआ करते रहे. दूसरे, राहुल गांधी हैं. राहुल गांधी भी अब कांग्रेस के एक कार्यकर्ता के रूप में खुद को प्रोजेक्ट कर रहे हैं क्योंकि अध्यक्ष का पद उन्होंने अपनी मर्जी से छोड़ दिया है.
सोनिया गांधी भी मानती रही हैं कि उनके और राहुल गांधी के काम करने की स्टाइल बिलकुल अलग है. वजह जो भी हो लेकिन सोनिया गांधी ने कई राजनीतिक दलों को साथ लेकर केंद्र में 10 साल तक यूपी की सरकार चलायी है और राहुल गांधी अब तक मिलजुल कर चुनाव भी नहीं लड़ सके हैं. कहने को तो यूपी में समाजवादी पार्टी से 2017 में और 2019 में एनसीपी और नेशनल कांफ्रेंस से कांग्रेस का चुनावी समझौता हुआ था, लेकिन फ्रेंडली मैच भी तो होते रहे. ऐसे में न सकारात्मक नतीजों की उम्मीद थी न आये ही. जहां तक समाजवादी पार्टी के साथ कांग्रेस के चुनावी गठबंधन की बात है तो उसे भी फाइनल शेप देने का श्रेय तो प्रियंका गांधी को ही दिया जाता है.
प्रियंका गांधी कांग्रेस की नयी अध्यक्ष बनती हैं या नहीं अभी ये कहना तो मुश्किल है, लेकिन मिर्जापुर दौरे को बाद पार्टी में उनकी हैसियत और काबिलयत दोनों को तवज्जो मिलने जा रही है, इससे इंकार नहीं किया जा सकता. फिर तो सिर्फ ममता बनर्जी ही क्यों प्रियंका गांधी की पहल से दूसरे राजनीतिक दलों से भी गठबंधन संभव लगने लगा है.
ममता बनर्जी की राजनीति में धरनों की बड़ी भूमिका रही है. वो राइटर्स बिल्डिंग के बाहर सेना को अभ्यास करते देख कर विधानसभा में रात गुजार देती हैं तो कमिश्नर के सपोर्ट में चौराहे पर धरना देने लगती हैं. प्रियंका गांधी का चुनार गेस्ट हाउस में धरना और उसकी सफल परिणति निश्चित रूप से ममता बनर्जी को आकर्षित की होगी - और यही वजह लगती है कि ममता बनर्जी को प्रियंका गांधी का साथ पसंद आने लगा है.
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