कांग्रेस को साथ रखते हुए भी ममता बनर्जी नही बन पाएंगी विपक्ष का चेहरा? जानिए क्यों...
ममता बनर्जी भले ही विपक्ष के नेतृत्व का फैसला मिल जुलकर करने का दावा कर रही हों. लेकिन, उनकी विपक्षी दलों को एकजुट करने की कवायद कमजोर ही नजर आती है. एनसीपी के मुखिया शरद पवार से लेकर चुनावी रणनीतिकार प्रशांत किशोर तक किसी भी तीसरे या चौथे मोर्चे के विकल्प को नकार चुके हैं. जिसके आधार पर कांग्रेसनीत यूपीए (UPA) गठबंधन ही एकमात्र विकल्प नजर आता है.
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पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनाव में जीत दर्ज करने के बाद से ही तृणमूल कांग्रेस की मुखिया ममता बनर्जी (Mamata Banerjee) प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी (Narendra Modi) और भाजपा (BJP) के खिलाफ एक संयुक्त विपक्षी मोर्चा खड़ा करने के मिशन 2024 की कोशिशों में लगी हुई हैं. बीते दिनों शहीद दिवस पर ममता बनर्जी ने औपचारिक रूप से संयुक्त विपक्षी मोर्चा बनाने की कोशिश में कांग्रेस (Congress) को भी शामिल कर लिया था. बंगाल विधानसभा चुनाव के बाद पीएम मोदी के खिलाफ विपक्ष का राजनीति का केंद्र बनकर उभरी ममता बनर्जी इन दिनों दिल्ली दौरे पर अपने समीकरणों को दुरुस्त करने की कवायद में जुटी हुई हैं. विपक्ष के नेताओं से मुलाकात करने की कड़ी में उन्होंने कांग्रेस के तीन वरिष्ठ नेताओं के साथ पार्टी की अंतरिम अध्यक्ष सोनिया गांधी (Sonia Gandhi) से भी मुलाकात की. तृणमूल कांग्रेस मुखिया की सोनिया गांधी से मुलाकात के दौरान राहुल गांधी (Rahul Gandhi) भी मौजूद रहे. जो कहीं न कहीं ये इशारा करता है कि 2024 के लिए विपक्ष के चेहरे पर कांग्रेस समझौता करने के मूड में नही है.
हालांकि, ममता बनर्जी ने सोनिया गांधी से मुलाकात के बाद इस मीटिंग को सकारात्मक बताया. साथ ही उन्होंने विपक्ष के चेहरे पर पूछे गए सवाल पर कहा कि वो कोई राजनीतिक ज्योतिषी नही हैं. ममता बनर्जी ने राजनीति के एक मंझे हुए खिलाड़ी की तरह खुद को आम कार्यकर्ता बताया. लेकिन, गैर-भाजपाई मुख्यमंत्रियों के साथ अपने बेहतर रिश्तों के विषय में बताना टीएमसी सुप्रीमो नहीं भूलीं. वैसे, ममता बनर्जी भले ही विपक्ष के नेतृत्व का फैसला मिल जुलकर करने का दावा कर रही हों. लेकिन, उनकी विपक्षी दलों को एकजुट करने की कवायद कमजोर ही नजर आती है. एनसीपी के मुखिया शरद पवार से लेकर चुनावी रणनीतिकार प्रशांत किशोर तक किसी भी तीसरे या चौथे मोर्चे के विकल्प को नकार चुके हैं. जिसके आधार पर कांग्रेसनीत यूपीए (UPA) गठबंधन ही एकमात्र विकल्प नजर आता है. कांग्रेस को साथ लेकर ममता बनर्जी विपक्षी एकजुटता का संदेश देने की कोशिश कर रही हैं. लेकिन, कांग्रेस को साथ रखते हुए भी ममता बनर्जी विपक्ष का चेहरा नही बन पाएंगी? आइए जानते हैं ऐसा क्यों है...
राजनीति में केवल अच्छे रिश्तों के भरोसे राष्ट्रीय स्तर पर सर्वस्वीकार्य चेहरा नहीं बना जा सकता है.
ममता बड़ा चेहरा, लेकिन एक ही राज्य में सीमित
पश्चिम बंगाल चुनाव के दौरान 'एक पैर पर बंगाल और दोनों पैरों से दिल्ली' जीतने की बात कहने वाली ममता बनर्जी निश्चित तौर पर पीएम मोदी के खिलाफ एक सशक्त चेहरा बनकर उभरी हैं. लेकिन, उनका राजनीतिक प्रभाव पश्चिम बंगाल तक ही सीमित है. 2019 के लोकसभा चुनाव के दौरान भाजपा ने ममता बनर्जी का गढ़ माने जाने वाले पश्चिम बंगाल में जो सेंध लगाई थी, वो सबके सामने है. विधानसभा चुनाव में भी भाजपा का प्रदर्शन कमजोर नहीं कहा जा सकता है. पिछले चुनाव में 3 विधानसभा सीटों के मुकाबले 70 से ज्यादा सीटों पर जीत हासिल करना छोटी बात नहीं है. ममता बनर्जी के संबंध गैर-भाजपाई मुख्यमंत्रियों से अच्छे हो सकते हैं. लेकिन, राजनीति में केवल अच्छे रिश्तों के भरोसे राष्ट्रीय स्तर पर सर्वस्वीकार्य चेहरा नहीं बना जा सकता है.
कांग्रेस की हर राज्य में उपस्थिति
2014 और 2019 के दो आम चुनाव लगातार हारने के बावजूद भी क्षेत्रीय स्तर पर कांग्रेस की उपस्थिति देश के तकरीबन हर राज्य में है. भारत के किसी राज्य में कांग्रेस सत्ता में हो या न हो, उन तमाम राज्यों में कांग्रेस अपनी उपस्थिति दर्ज कराती है. चुनावी रणनीतिकार प्रशांत किशोर ने भी बीबीसी को दिए इंटरव्यू में इस बात को स्वीकारा है कि 2019 के लोकसभा चुनाव में 20 प्रतिशत वोट के साथ कांग्रेस ने भले ही केवल 52 सीटें जीती हों. लेकिन, पार्टी के पास अभी भी देश की अलग-अलग विधानसभाओं में 880 विधायक हैं. तमाम राज्यों में अपने चुनावी कैंपेन और रणनीति के जरिये मुख्यमंत्री बनाने वाले प्रशांत किशोर के इस दावे को हल्के में नहीं लिया जा सकता है. वो मानते हैं कि भाजपा के सामने सबसे बड़ा विपक्षी दल कांग्रेस ही है.
महागठबंधन या मोर्चा राज्यों में फेल
ममता बनर्जी कांग्रेस को साथ लाने की कोशिशें कर रही हैं. लेकिन, क्या कांग्रेस केवल प्रधानमंत्री पद के लिए देश के अन्य राज्यों में खुद को कमजोर करना का जोखिम उठाएगी. 2024 से पहले करीब 15 राज्यों में विधानसभा चुनाव होने हैं. इन राज्यों में से ज्यादातर में भाजपा के सामने मुख्य विपक्षी दल कांग्रेस ही है. अगले साल होने वाले यूपी, उत्तराखंड, पंजाब, गोवा और मणिपुर के विधानसभा चुनावों में क्या कांग्रेस अपनी पार्टी से ऊपर किसी अन्य विपक्षी दल को तरजीह देगी. यूपी में प्रियंका गांधी ने भले ही कांग्रेस के गठबंधन के दरवाजे खोले हों. लेकिन, पंजाब और उत्तराखंड में शायद ही कांग्रेस का आम आदमी पार्टी से गठबंधन हो सकेगा. वहीं, इन राज्यों में बसपा का भी काफी जनाधार है, जिसे नजरअंदाज नहीं किया जा सकता है. आखिर ममता बनर्जी ऐसा कौन सा फॉर्मूला निकाल कर लाएंगी, जिस पर सभी क्षेत्रीय राजनीतिक दल तैयार हो जाएं.
उत्तर भारत के राज्यों में जहां कांग्रेस भाजपा के सामने पहले से ही मुख्य विपक्षी दल है, किसी अन्य राजनीतिक दल को उभरने का मौका किस आधार पर देगी. यही हाल दक्षिण भारत का भी है. दक्षिण भारत के आंध्र प्रदेश, तेलंगाना, कर्नाटक, केरल और तमिलनाडु जैसे राज्यों में कांग्रेस की उपस्थिति ठीक-ठाक है. लेकिन, इन राज्यों के क्षेत्रीय दलों को आगे बढ़ाकर कांग्रेस अपने लिए सर्वाइवल का संकट शायद ही खड़ा करना चाहेगी. कुल मिलाकर देश के विपक्षी दलों को एकजुट करने की पहले भी असफल कोशिशें की जा चुकी हैं. ममता बनर्जी और कांग्रेस विपक्ष को एकजुट करने की बात जरूर कह रहे हों. लेकिन, ये फेल ही हो जाएगा.
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