2019 में देश को नया नेता दे सकता है गैर-कांग्रेस और गैर-बीजेपी मोर्चा
सोनिया गांधी के डिनर से दूर रहीं ममता बनर्जी शरद पवार के बुलावे पर दिल्ली आ रही हैं. चार दिन के दौरे में ममता उन सभी नेताओं से मिलने वाली हैं जो या तो गैर-बीजेपी मोर्चा बना रहे हैं या फिर गैर-कांग्रेस मोर्चा.
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कभी राम जेठमलानी ने नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री बनाने की वकालत की थी. 2017 में जेठमलानी ने वकालत से संन्यास ले लिया. बाद में जेठमलानी प्रधानमंत्री मोदी को एक पत्र लिखा और कहा - 'आज अपनी नासमझी पर शर्म आती है.’ दरअसल, जेठमलानी काले धन के मुद्दे पर प्रधानमंत्री मोदी से खफा हैं और यही वजह है कि अब वो मोदी सरकार को सत्ता से बेदखल करने की मुहिम में शामिल हो गये हैं.
12 मार्च को जेठमलानी ने एक चिट्ठी अपने पुराने साथियों को लिखी है, ये हैं - यशवंत सिन्हा, शत्रुघ्न सिन्हा और अरुण शौरी. चिट्ठी के जरिये जेठमलानी ने साथियों से कहा है कि वो ममता बनर्जी की अगुवाई में एंटी मोदी कैंप में शामिल हो गए हैं.
जेठमलानी लिखते हैं, 'माफी चाहूंगा, मैंने खुद को ममता बनर्जी के समक्ष पेश कर दिया है और उन्होंने मेरे प्रस्ताव का खूबसूरती से जवाब दिया है. साथ ही कहा कि वो मौजूदा बीजेपी शासन को खत्म करके रहेंगी.'
ममता बनर्जी का बढ़ता कद
सोनिया गांधी के डिनर में शामिल होनेवालों में शरद पवार भी थे, लेकिन ममता बनर्जी ने अपना प्रतिनिधि भेज दिया था. अब शरद पवार ने एक बैठक बुलाई है और ममता बनर्जी खुद उसके लिए खास तौर पर दिल्ली आ रही हैं. टीएमसी सूत्रों के जरिये खबर आई है कि ममता बनर्जी 26 मार्च से चार दिन के दौर पर दिल्ली आ रही हैं. इसी महीने एनसीपी नेता प्रफुल्ल पटेल ने ममता से मुलाकात कर बैठक का न्योता दिया था.
सबके साथ ममता
शरद पवार द्वारा बुलाई जा रही इस बैठक का मुख्य मुद्दा 2019 का आम चुनाव है. पवार की ओर से विपक्ष के सभी नेताओं को बुलाया गया है जिसमें कांग्रेस भी शामिल है.
जेठमलानी की पहल और प्रफुल्ल पटेल की मुलाकात के अलावा तेलंगाना राष्ट्र समिति के नेता के चंद्रशेखर राव भी इसी एजेंडे के तहत ममता बनर्जी से मिल चुके हैं.
राव की लाइन शुरू से ही शरद पवार से अलग है, ‘‘देश को कुछ अच्छे की आवश्यकता है. अगर बीजेपी जाती है और कांग्रेस आती है तो क्या होगा? क्या इससे कोई चमत्कार होगा? हम समान सोच वाली पार्टियों से बातचीत कर रहे हैं.''
साफ है राव सिर्फ गैर बीजेपी ही नहीं गैर-कांग्रेस मोर्चे की भी बात कर रहे हैं. राव की पहल पर ममता का कहना रहा, 'ये एक अच्छी शुरुआत है. राजनीति एक लगातार चलने वाली प्रक्रिया है. बातचीत शुरू हो चुकी है. नेताओं को एक-दूसरे से बात करने दीजिए. एक दिन वे सभी संघीय मोर्चा बनाने के लिए साथ आएंगे. हम संघीय मोर्चे को मजबूत देखना चाहते हैं.'
दोनों हाथों में लड्डू!
देखा जाये तो ममता बनर्जी के दोनों हाथों में लड्डू हैं, बस एक फर्क है. एक लड्डू में घी की मात्रा कम और एक में ज्यादा है. ममता बनर्जी संभावित दोनों मोर्चे के नेताओं से संपर्क कायम किये हुए हैं. साथ ही, वो दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल को भी नहीं छोड़ रही हैं. ममता बनर्जी केजरीवाल को भी विपक्षी मोर्चे में साथ रखने की बात कर रही हैं. वैसे केजरीवाल का साथ रहना एकतरफा तो कत्तई नहीं हो सकता. रिपोर्ट बताती हैं कि केजरीवाल एक झटका ममता को भी दे चुके हैं. ये बात यूपी विधानसभा चुनाव से पहले की है. एक बार ममता ने विपक्षी नेताओं की एक मीटिंग रखी थी. केजरीवाल ने भी हामी भर दी थी, लेकिन जब उन्हें पता चला कि मीटिंग शरद पवार के घर होनी है तो वे पलटी मार गये. वैसे उस मीटिंग में अखिलेश यादव को भी बुलाया गया था जो तब यूपी के सीएम रहे, लेकिन उन्होंने भी मीटिंग से दूरी बना ली.
एनडीए छोड़ने को बेताब नेताओं की फौज
एनडीए में पहले अकेली बाकी आवाज हुआ करती थी - शिवसेना. सामना के जरिये या फिर संजय राउत के मुहं से उद्धव ठाकरे बीजेपी पर अरसे से हमलावर रहे हैं. कई बार रैलियों में वो खुद भी वही जबान बोलते हैं. अब उद्धव ठाकरे से भी दो कदम आगे बढ़ाते हुए टीडीपी नेता चंद्रबाबू नायडू अलग लाइन बना कर खड़े हो गये हैं.
हाल ही में एक और एनडीए सहयोगी राम विलास पासवान भी एनडीए को कांग्रेस से नसीहत लेने की सलाह देते देखे गये. पासवान के बयान को भी उनके ट्रैक रिकॉर्ड को देखते हुए पाला बदलने की संभावनाओं से जोड़ कर देखा गया.
फेडरल फ्रंट की तैयारी...
एक दिलचस्प वाकया और हुआ है. पासवान के बयान को नीतीश कुमार का भी समर्थन मिला है. नीतीश को अभी एनडीए की नयी पारी में ज्यादा दिन हुए भी नहीं है और उनकी बातों में वो तासीर नहीं दिखती जैसी उन्होंने कहा था - 2019 में मोदी का कोई विकल्प नहीं हो सकता. नीतीश के नये पैंतरे की वजहें भी हैं. हाल की घटनाओं के बाद बीजेपी नेताओं के बयान से नीतीश खासे खफा हैं. अररिया, दरभंगा और भागलपुर की घटनाएं और उस पर बीजेपी नेताओं के रिएक्शन नीतीश के सरदर्द बढ़ाने वाले लगते हैं. खासतौर पर गिरिराज सिंह की बातें नीतीश को ज्यादा नागवार गुजरी हैं.
नीतीश ने पटना में जो कुछ कहा उसमें बाकियों को समझने के लिए उन्होंने पूरा मसाला छोड़ दिया है. मीडिया से मुखातिब नीतीश बीजेपी के साथ सरकार बनाने के बाद पहली बार एक ऐसी बात कहे जिसके निश्चित तौर पर खास मायने हैं, 'हम सब लोगों की पृष्टभूमि आप जानते हैं. इसमें और धर्म निरपेक्षता के मुद्दे पर स्टैंड में कोई परिवर्तन नहीं है.' लगे हाथ नीतीश ने एक और सलाह दे डाली, 'प्रेम सहिष्णुता और सद्भावना से देश आगे बढेगा.' नीतीश ने कोई नाम नहीं लिया, लेकिन मैसेज तो बीजेपी के लिए ही था.
अपनी को विस्तार देते हुए नीतीश ने साफ किया कि वो किसी भी गठबंधन के साथ रहें, लेकिन उनकी मूल अवधारणा में बदलाव नहीं हुआ है. नीतीश ने जोर देकर समझाया कि भ्रष्टाचार और समाज को तोड़ने-बांटने वाली नीति से समझौता नहीं कर सकते.
तो क्या पासवान के बयान का सपोर्ट कर नीतीश कुमार ने बीजेपी नेतृत्व को मैसेज देने की कोशिश की है? क्या नीतीश कुमार बीजेपी को बताना चाहते हैं कि उनकी और पासवान की केमिस्ट्री बिहार में कितना मायने रखती है? और ये भी कि बिहार के लिए तो वो हमेशा अपना हाथ खुला रखते हैं और जब जी चाहे किसी से भी मिला सकते हैं.
ऐसे में जबकि चंद्रबाबू नायडू राष्ट्रीय राजनीति में अपनी भूमिका तलाश रहे हैं और ममता बनर्जी लोगों की आंखों का तारा बनती जा रही हैं, क्या नीतीश कुमार फिर से पाला बदलने की फिराक में हैं?
एक बात तो अब नीतीश को भी मालूम है, नये दौर में वो प्रधानमंत्री पद के दावेदार नहीं हैं. असल में बीजेपी से हाथ मिलाकर उन्होंने अपना दावा कमजोर कर लिया, वरना राहुल गांधी फैक्टर को छोड़ दें तो विपक्ष में मोदी को टक्कर देने वाला कोई नीतीश जैसा कोई नेता नहीं था. अब नीतीश के सामने चुनौती होगी कि वो मोदी को ही नेता मानते रहें या फिर नये समीकरणों में ममता के नाम पर राजी हो जायें. क्या फर्क पड़ता है जब खुद कुर्सी पर नहीं बैठना तो. कम से कम ममता के रहते कुर्सी तो सुरक्षित रहेगी ही.
अब तक सत्ता पक्ष की ओर से नरेंद्र मोदी और उन्हें चैलेंज करने वाले राहुल गांधी 2019 के लिए दावेदारी जता रहे हैं, लेकिन अब इसमें एक नया नाम भी जुड़ता नजर आ रहा है. ये तो तय है कि गैर-बीजेपी-कांग्रेस मोर्चा देश 2019 में एक नया नेता जरूर देने वाला है.
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