मराठा आरक्षण: ये आग अब कभी नहीं बुझेगी
महाराष्ट्र की राजनीति में मराठाओं का दबदबा शुरू से रहा है. लेकिन राजनीतिक उठा-पटक में कुछ समीकरण ऐसे बने कि मराठा-अस्मिता का मुद्दा मराठा आरक्षण में बदल गया. और अब इस पर काबू पाना किसी पार्टी के बस का नहीं है.
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पहले तो ये साफ करना जरूरी है कि महाराष्ट्र मे मराठा एक जाति है. और हर मराठी यानी मराठी भाषा बोलने वाले मराठा नहीं होते. दरअसल इतिहास की वजह से ये गफलत हो जाती है. इतिहास में कई जगहों पर ‘मरहट्टो’ का जिक्र आता है लेकिन इसका मतलब उस वक्त आज के महाराष्ट्र राज्य के इलाके मे रहने वाले लोग इस तरह ले सकते हैं. खैर बात इसलिये निकल रही है कि मराठा आरक्षण को लेकर आंदोलन एकबार फिर तूल पकड़ रहा है. जहां तक हो सके आंदोलनकर्ता नेताओं को आंदोलन से दूर रख रहे हैं लेकिन बावजूद इसके इस आंदोलन के इर्दगिर्द रहना हर पार्टी और नेता की मजबूरी है. भले इस आंदोलन को हवा कौन दे रहा है इसको लेकर राजनीतिक गलियारों में कई अटकलों का खेल चल रहा हो. मराठा समाज की महाराष्ट्र की राजनीति पर पकड़ ही इतनी गहरी है.
1960 में जब मराठी भाषियों के लिये महाराष्ट्र का निर्माण हुआ तब पहले मुख्यमंत्री और मराठा स्ट्रांगमैन कहे जानेवाले शरद पवार के गुरु यशवंतराव चव्हाण को ये कहना पड़ा था कि ये राज्य मराठी लोगों का है. मराठाओं का नहीं. मराठा समाज का दबदबा था ही इतना मजबूत. महाराष्ट्र में ब्राम्हण समाज का वर्चस्व, फिर वो कांग्रेस में क्यों ना हो, खत्म करने का काम मराठा नेताओं ने ही किया था. और तब से अबतक महाराष्ट्र विधानसभा में, महाराष्ट्र के मंत्रिमंडल में और महाराष्ट्र से चुनकर जानेवाले सांसदों में यहां तक कि मुख्यमंत्रियों में सबसे अधिक मौका इसी समाज को मिलता रहा. ये समाज हमेशा ज्यादातर कांग्रेस के साथ ही रहा. हां, शरद पवार के कांग्रेस छोड़ने के बाद समाज बंटा लेकिन कभी विपक्षी शिवसेना या बीजेपी के साथ नहीं गया. तमाम कोशिशें हुईं लेकिन इस समाज पर कांग्रेस का वर्चस्व कायम रहा.
मराठा आरक्षण के आंदोलन में विरोध-प्रदर्शन अब धीरे-धीरे हिंसक होने लगा है.
लेकिन मंडल आयोग ने राजनीति बदल दी. मराठा समाज को छोड़कर बाकी बैकवर्ड यानी ओबीसी को साथ लेकर अपनी पैठ बनाना शिवसेना बीजेपी ने जरूरी समझा. आरक्षण से लैस ओबीसी राजनीति में नया फोर्स बन रहे थे. और यहीं से मराठा समाज में आरक्षण की मांग उठना धीरे-धीरे शुरु हुई. 1999 मे एनसीपी बनने के बाद अपना वजूद बचाये रखने के लिये एनसीपी के नेताओं ने मराठा वोटबैंक को बचाये रखने के लिये खास कोशिशें शुरू की. महाराष्ट्र मे मराठा महासंघ, संभाजी ब्रिगेड जैसे संगठन भले ही राजनीति दल नहीं थे लेकिन मराठा नेताओ का छत्र उनपर कायम था. 2004 में विदेशी लेखक जेम्स लेन की छत्रपति शिवाजी महाराज पर आई किताब की कुछ आपत्तिजनक पंक्तियों पर मचे बवाल को सोच समझ कर हवा दी गई. यहां तक कि 2004 में महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव का वो एक प्रमुख मुद्दा भी बना. हिंदुत्व को छेद देने के लिये ये मराठा राजनीति काम आई. एनसीपी को कांग्रेस से भी ज्यादा सीटें मिली.
आरक्षण की मांग लेकर सड़क पर उतरते-उतरते 2012 साल आया. छत्रपति शिवाजी महाराज वंशज संभाजी भोसले के नेतृत्व में मराठा आरक्षण की मांग को लेकर आंदोलन ने तूल पकड लिया. इस वक्त कांग्रेस एनसीपी सरकार एंटी-इनकंबंसी भी झेल रही थी. 2014 चुनाव का रास्ता मुश्किल लग रहा था. सुप्रीम कोर्ट ने आरक्षण पर 50 प्रतिशत की कैप लगा दी थी और महाराष्ट्र मे 52 प्रतिशत आरक्षण था. ऐसे में कानून के मुताबिक मागासवर्गीय आयोग से मराठा आरक्षण के पक्ष में प्रस्ताव लाकर ही मराठा समाज को आरक्षण दिया जा सकता था. लेकिन आयोग में इसको लेकर मतभेद थे और आयोग ने इस पर रिपोर्ट पेश करने से ही इंकार कर दिया. लेकिन राजनीतिक दबाव कहें या मजबूरी कि पृथ्वीराज चव्हाण सरकार ने कांग्रेस नेता और मंत्री नारायण राणे की एक कमेटी बनाई. कमेटी के सुझाव के आधार पर मराठा समाज को सरकारी नौकरियों में और शिक्षा संस्थाओं में 16 प्रतिशत आरक्षण मंजूर कर अध्यादेश भी जारी कर दिया. इसी कमेटी के सिफारिश पर मुसलमानों को भी 5 प्रतिशत आरक्षण की घोषणा की गई. ये बात और है कि इसके बावजूद कांग्रेस एनसीपी अपनी सरकार नहीं बचा पायी.
अब चुनौती नई सरकार के सामने थी. नई सरकार आते ही उसे इस अध्यादेश को कानून बनाकर सदन में पास करना पड़ा. कानून के खिलाफ बांबे हाईकोर्ट में जनहित याचिका दायर की गई और अदालत ने राणे कमेटी की रिपोर्ट ना मानते हुए मराठा आरक्षण को खारिज कर दिया. और तब से ये मामला अदालत में अटका हुआ है. इस बीच दो साल पहले मराठा समाज ने आरक्षण के साथ एट्रोसिटी ऐक्ट रद्द करने की मांग भी जोड़ दी. नई सरकार पर दबाव बनाने केलिये महाराष्ट्र में भारी संख्या मे जुलूस निकाले गये. सरकार फिर अदालत में गई. लेकिन अब अदालत मागासवर्गिय आयोग से मराठा आरक्षण पर रिपोर्ट चाहती है और तभी इस बारे में कुछ फैसला हो पायेगा.
नये सिरे से शुरू हुए आंदोलन के लिये कारण भी काफी साफ है कि महज दो हफ्ते पहले सरकार ने विधानसभा में घोषणा की कि वो सरकारी नौकरीयों में 70,000 नई भर्ती करने वाली है. बस क्या था, हाथ से मौका जाता देख मराठा समाज में फिर से आंदोलन गूंज उठा. ये एक ऐसा विषय है कि सारी पार्टियां इसके पक्ष में हैं. लेकिन अदालत के सामने सबके हाथ बंधे हुए हैं. लेकिन दूसरी तरफ महाराष्ट्र में सत्ता के करीब रहे समाज को कुछ ही प्रतिशत सरकारी नौकरीयों में हिस्सा चाहिये. ये बात साफ दिखती है कि युवाओं में रोजगार की उपलब्धता की कितनी कमी है. ये चक्र ऐसा है कि वो अब उलटा नहीं घुम सकता. इससे 100 प्रतिशत राजनीतिक फायदा ही होगा, ये भी नहीं कहा जा सकता. लेकिन ये अब करना ही पड़ेगा.
बहरहाल जाते-जाते एक और जानकारी. हाईकोर्ट ने मराठा आरक्षण को लेकर सरकार की बात को खारिज कर दिया, लेकिन माना कि मुसलमान पिछड़ा समाज है. और कम से कम शिक्षा में उन्हें आरक्षण मिलना चाहिये. लेकिन इस पर सरकार तो चुप है ही, विपक्षी दल कांग्रेस और एनसीपी को भी इसको लागू करवाने में कोई खास दिलचस्पी नजर नहीं आती.
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