मायावती ने विपक्षी एकता की कोशिशों को दिया तगड़ा झटका,’ हाथी’ चलेगा अब अकेला...
बसपा सुप्रीमो मायावती ने भाजपा के खिलाफ विपक्षी एकता की कोशिशों को तगड़ा झटका दिया है। 15 जनवरी अपने जन्मदिन के अवसर पर मायावती ने 2024 को लेकर बसपा की रणनीति का खुलासा कर पूरे विपक्ष को बेचैन कर दिया है.
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बसपा सुप्रीमो मायावती ने भाजपा के खिलाफ विपक्षी एकता की कोशिशों को तगड़ा झटका दिया है. 15 जनवरी अपने जन्मदिन के अवसर पर मायावती ने 2024 को लेकर बसपा की रणनीति का खुलासा किया. उन्होंने साफ किया कि बहुजन समाज पार्टी लोकसभा चुनाव अकेले अपने दम पर लड़ेगी. किसी के साथ कोई भी गठबंधन नहीं होगा. यही नहीं 2023 में जिन राज्यों में विधानसभा चुनाव होने हैं वहां भी कोई गठबंधन नहीं किया जाएगा.बसपा सुप्रीमो मायावती अपने 67वें जन्मदिन के मौके पर अलग अंदाज में नजर आईं. उन्होंने प्रेस कॉन्फ्रेंस में मीडिया के हर एक सवाल का जवाब दिया. फिर चाहे वो बसपा को चुनाव में मिल रही हार पर सवाल हो या भाजपा के पसमांदा प्रेम पर. मायावती ने हर सवाल का खुलकर जवाब दिया. मायावाती ने कहा कि 2023 में कर्नाटक, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और 2024 के लोकसभा के चुनाव बसपा अकेले लड़ेगी. किसी के साथ कोई गठबंधन नहीं करेगी, क्योंकि कांग्रेस ने कुछ दिनों से ये भ्रम फैला रखा था कि वो बसपा से गठबंधन करेंगे, लेकिन बसपा ये नहीं करेगी. बसपा प्रमुख मायावती ने कहा कि कांग्रेस और कुछ अन्य दल हमारी पार्टी से गठबंधन करने की कोशिश कर रहे हैं, लेकिन हमारी विचारधारा अन्य पार्टियों से एकदम अलग है. बसपा लोकसभा चुनाव और विधानसभा चुनावों में किसी भी पार्टी से कोई गठबंधन नहीं करेगी.
अपने जन्मदिन पर बसपा सुप्रीमो मायावती ने2024 के मद्देनजर तमाम सियासी अटकलों को विराम दे दिया है
बहुजन समाज पार्टी की अध्यक्ष मायावती ने अपने जन्मदिन के मौके पर एक बड़ा ऐलान किया. उन्होंने कहा है कि आने वाले विधानसभा चुनावों और लोकसभा चुनाव 2024 में पार्टी किसी भी दल के साथ गठबंधन नहीं करेगी. मतलब, बसपा का हाथी अब अकेला चलेगा और मायावती अब अपने दम पर चुनावी मैदान में उतरेगी और जीत दर्ज करेगी. इस प्रकार के कयास पहले से लगाए जा रहे थे. माना जा रहा था कि बसपा किसी भी राजनीतिक दल के साथ गठजोड़ करने को अब इच्छुक नहीं है. इसका कारण बसपा के वोट बैंक के बीच बनता एक निगेटिव माहौल है.
उत्तर प्रदेश की राजनीति में बहुजन समाज पार्टी करीब 25 फीसदी वोट बैंक की राजनीति करती रही है. लेकिन, लोकसभा चुनाव 2014 के बाद से पार्टी की स्थिति लगातार खराब होती गई. वर्ष 2007 में यूपी विधानसभा चुनाव के समय मायावती ने पार्टी के बहुजन को सर्वजन में बदलकर प्रदेश में अकेले दम पर सरकार बनाने लायक बहुमत दिला दिया था. इस चुनाव में बसपा के कोर वोट बैंक दलित, मुस्लिम और ओबीसी के साथ ब्राह्मण वोट को जोड़ा गया. हालांकि, यह दांव मायावती पर भारी पड़ गया. इस चुनाव के बाद पार्टी लगातार प्रदेश के चुनावी मैदान में पिछड़ती चली गई.
करीब 2 साल बाद ही हुए लोकसभा चुनाव 2009 में पार्टी को आशातीत सफलता नहीं मिली. वर्ष 2009 के लोकसभा चुनाव में बसपा ने 20 सीटों पर जीत दर्ज की थी. सत्ता में रहने के बावजूद प्रदेश में पार्टी तीसरे स्थान पर रही. बसपा के आगे समाजवादी पार्टी और कांग्रेस थी. सपा को 23 और कांग्रेस को 21 सीटों पर जीत मिली थी. 2007 के यूपी चुनाव में बसपा के साथ गया ब्राह्मण वोट बैंक कांग्रेस से जुड़ा और पूरा खेल पलट गया. मायावती ने अपने शासनकाल में विकास और कानून व्यवस्था की स्थिति का जिक्र अब तक करती हैं, लेकिन इसे अपने वोट बैंक तक पहुंचाने में वे कामयाब नहीं रहीं.
2007 से 2012 तक उत्तर प्रदेश की सत्ता में रहने और प्रभावी कानून व्यवस्था के बावजूद मायावती प्रदेश की राजनीति में वह छाप नहीं छोड़ पाई, जिससे उनकी वापसी संभव हो सके. ऐसे में उन्होंने आगामी राजस्थान, कर्नाटक, मध्य प्रदेश जैसे राज्यों में होने वाले विधानसभा चुनाव और वर्ष 2024 के आम चुनाव से पहले गठबंधन न करने की घोषणा कर बड़ा संदेश अपने वोट बैंक को देने का प्रयास किया है. लोकसभा चुनाव 2014 के बाद से हुए चुनाव परिणाम इसकी गवाही देते हैं. बसपा ने इस दरम्यान कई राजनीतिक दलों के साथ गठबंधन किया, लेकिन उसका परिणाम पार्टी के पक्ष में उस स्तर पर निकल कर नहीं आया.
बसपा के संस्थापक कांशीराम पंजाब से आकर उत्तर प्रदेश की राजनीति को खासा प्रभावित किया था. लेकिन, पंजाब चुनाव 2022 में बसपा ने अकाली दल से गठबंधन किया और पार्टी को कोई बड़ी सफलता नहीं मिली. अन्य राज्यों में भी पार्टी को गठबंधन का लाभ नहीं मिल पाया है. समान विचारधारा वाली पार्टियों से गठबंधन के बाद भी मायावती अपने वोट बैंक को अपने पक्ष में मोड़ पाने में कामयाब नहीं हो पाई. वोट ट्रांसफर कराने में कामयाबी नहीं मिली तो अब उन्होंने वोट बैंक के बीच खुद को स्थापित करने का निर्णय ले लिया है.
कांशीराम ने बहुजन समाज को उचित राजनीतिक प्रतिनिधित्व की बात करते हुए बसपा की स्थापना की थी. वे अपने उस लक्ष्य को लेकर चलते रहे. लेकिन, वर्ष 2007 में मायावती ने जिस मनुवाद की खिलाफत को लेकर पार्टी का गठन किया गया, उस ब्राह्मण समाज को साथ ले लिया. इसके बाद दलितों का एक प्रकार से इस पार्टी से मोहभंग हुआ. वर्ष 2014 में उत्तर प्रदेश की राजनीति में प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी की दखल ने गैर यादव ओबीसी वर्ग को अपनी तरफ लाने में बड़ी कामयाबी हासिल की.
यह बसपा के लिए पहला झटका था. इसके बाद से लगातार मायावती को झटके लगे हैं. वर्ष 2014 के लोकसभा चुनाव से स्थिति में बदलाव होता दिखा. उत्तर प्रदेश की राजनीति पलटी. सवर्ण और ओबीसी एक पाले में आए तो तमाम गठबंधन धराशायी हो गए. भाजपा ने इसके बाद मायावती की दलित पॉलिटिक्स में सेंधमारी की. वर्ष 2022 के विधानसभा चुनाव परिणाम इसकी गवाही देते हैं. वर्ष 2014 के लोकसभा चुनाव में बसपा को 19.60 फीसदी वोट मिले, लेकिन पार्टी का एक भी सांसद नहीं चुना जा सका.
समाजवादी पार्टी के साथ गठबंधन मायावती के लिए भारी पड़ा. जिस प्रकार वर्ष 2007 में छोटे लक्ष्य के लिए ब्राह्मणों को साधने का जो दांव मायावती ने खेला था, कुछ उसी प्रकार की स्थिति फिर दिखी. मायावती का वोट बैंक समाजवादी पार्टी की खिलाफत करता रहा था. लखनऊ का गठबंधन गांवों में उतर नहीं पाया. इस कारण वर्ष 2019 के लोकसभा चुनाव में 19.3 फीसदी वोट हासिल करने के बाद भी बसपा भाजपा को 49 .6 फीसदी यानी करीब 50 फीसदी वोट हासिल करने से रोक नहीं पाई. गठबंधन से नाराज वोट बैंक ने भाजपा का रुख कर लिया.
उत्तर प्रदेश चुनाव 2022 में कुछ यही स्थिति दिखी. गैर जाटव दलित वोट भाजपा और सपा में बंटता दिखा. मायावती अब इसी वोट बैंक को साधने की कोशिश करती दिख रही हैं. अपने आधार वोट बैंक दलित और मुस्लिम को साधने की कोशिश मायावती ने शुरू की है. पश्चिमी उत्तर प्रदेश में इमरान मसूद जैसे नेताओं के जरिए पार्टी का जनाधार बढ़ाने का प्रयास है. चलो गांव की ओर कार्यक्रम के जरिए पार्टी अपने वोटरों को मनाने की कोशिश करेगी. उन्हें समझाया जाएगा कि पार्टी अब अपने पुराने स्वरूप में लौट आई है.
लोग मानते हैं या नहीं, देखना दिलचस्प होगा. इसके अलावा मायावती ने भाजपा पर निशाना साधते हुए इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीन (ईवीएम) को लेकर सवाल उठाए हैं और मतपत्रों से चुनाव कराने की मांग की हैं . साथ ही मुख्य निर्वाचन आयुक्त से मतपत्र से चुनाव कराये जाने के लिए पुरजोर मांग करते हुए कहा, ‘देश में ईवीएम के जरिये चुनाव को लेकर यहां की जनता में किस्म-किस्म की आशंकाएं व्याप्त हैं और उन्हें खत्म करने के लिए बेहतर यही होगा कि अब यहां आगे छोटे-बड़े सभी चुनाव पहले की तरह मतपत्रों से ही कराए जाएं.'
उल्लेखनीय है कि मायावती पहले भी ईवीएम की भूमिका को लेकर सवाल उठाती रही हैं और अब 2024 में होने वाले लोकसभा चुनावों को लेकर उन्होंने एक बार फिर मतपत्र से चुनाव कराने की मांग पर जोर दिया है. मायावती ने कहा कि बहुजन समाज के लोगों की हितैषी बसपा का मुख्य लक्ष्य धन्नासेठों से दूर रहकर एससी-एसटी, ओबीसी व मुस्लिम समाज आदि से मिलकर बने इस बहुजन समाज के लोगों में भाईचारे के गठजोड़ के बल पर चुनाव जीतकर इनके सामाजिक और आर्थिक लक्ष्य को प्राप्त करना है.
गौरतलब है कि गत उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में एक करोड़ 18 लाख वोट पाने वाली बसपा का खाता बमुश्किल ही खुल पाया. पार्टी सिर्फ रसड़ा सीट ही जीत पाई है. जबकि प्रदेश में दलित वोटरों की संख्या लगभग तीन करोड़ है. ऐसे में बड़ी संख्या में दलित वोट बैंक शिफ्ट होने से बसपा के रणनीतिकारों की नींद उड़ गई है. बसपा का सबसे बड़ा वोट बैंक भी दलित वोटर ही रहे हैं. इसके साथ बसपा सोशल इंजीनियरिंग कर चुनाव परिणामों को प्रभावित करती रही है.
यहां तक कि इसके दम पर पार्टी ने एक बार पूर्ण बहुमत से सत्ता प्राप्त की थी. मगर विस चुनाव 2022 में उसके सारे समीकरण ध्वस्त हो गए. प्रदेश में कुल 15.2 करोड़ वोटर हैं. इनमें से 12.9 फीसदी वोट बसपा को मिला. उसे कुल एक करोड़ 18 लाख 73 हजार 137 वोट मिले. यूं तो प्रदेश में लगभग तीन करोड़ दलित वोटर हैं. मगर सभी के वोट बसपा को मिलते रहे हैं, ऐसा नहीं है. उसमें एक बड़ा वर्ग हमेशा से बसपा के साथ रहा है. इस बार के चुनाव परिणाम में बड़ी संख्या में दलित वोट बैंक शिफ्ट होने की बात सामने आ रही है.
वहीं, यह भी सही है कि बसपा का काडर वोटर यानी जाटव वर्ग इस बार भी उसके साथ ही रहा है. गौरतलब है कि वर्ष 2017 के चुनाव में बसपा को 22.23 फीसदी वोट (एक करोड़ 92 लाख 81 हजार 340 मत) मिले थे. उस समय पार्टी को 19 सीटें मिली थीं. मगर इस बार पार्टी को 10 फीसदी कम वोट मिले और सीट भी सिर्फ एक मिली है.अब बसपा सुप्रीमो मायावती को डर है कि दलित वोटर स्थायी रूप से कहीं दूसरे दलों में शिफ्ट न हो जाएं. उन्होंने हार के बाद अपनी सफाई में यह चिंता जाहिर की है.
उन्होंने भाजपा और सपा पर निशाना साधा ही है. वहीं, कांग्रेस को भी खासतौर से कटघरे में खड़ा किया है. कहा, कांग्रेस घोर जातिवादी पार्टी है. उसने बाबा साहब डॉ. आंबेडकर को हमेशा अपने रास्ते का रोड़ा मानकर सीधे चुनाव में कभी कामयाब नहीं होने दिया. उन्होंने कांग्रेस जैसी जातिवादी पार्टियों से अपने समाज के लोगों को दूर रहने की सलाह दी.अपने घटते जनाधार को वापस लेन के लिए ही मायावती अब एकला चलो की नीति अपनाना चाहती है जिसके कारण विपक्षी एकता को एक प्रकार से झटका ही लगा हैं.
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