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Updated: 06 फरवरी, 2019 03:48 PM
आशीष वशिष्ठ
आशीष वशिष्ठ
  @drashishv
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कोई जमाना था जब लखनऊ में मायावती के महलनुमा आवास में मीडिया की इंट्री पर अघोषित रोक थी. बसपा का कोई प्रवक्ता या मीडिया प्रभारी भी नहीं था, जिससे मीडियाकर्मी हाल-हवाल ले सकें. कुल मिलाकर ये कहा जाए कि बसपा की नजर में मीडिया की अहमियत एक बड़े से 'सिफर' के अलावा कुछ और नहीं थी.

बसपा संस्थापक काशीराम के जमाने से ही बहुजन समाज पार्टी न तो मीडिया को कोई भाव देती थी, और न ही मीडिया ही बसपा को 'बड़े काम की बीट' समझता था. यानी दोनों ओर बराबर का सौदा था. काशीराम के मीडिया से तल्ख रिश्‍ते भी जगजाहिर हैं. उत्तर प्रदेश और देश की राजनीति में दखल बढ़ने के साथ मीडिया बसपा को 'मतलब भर' की तवज्जो देने लगा. लेकिन बसपा ने मीडिया के साथ अपना पुराना सुलूक और रिशता कायम रखा.

बसपा की ओर से बिना किसी नाम और हस्ताक्षर के जारी प्रेस नोट के अलावा मीडिया के पास बसपा की खबर छापने का कोई दूसरा बड़ा 'सोर्स' नहीं है. मीडिया ने बसपा की ज्यादातर खबरें मायावती के आवास और कार्यालय की चारदीवारी के बाहर से ही लिखी हैं. बसपा के चंद नेताओं के मीडिया से मधुर संबंध हैं, लेकिन खबर देने के मामले में वो 'बहन मायावती' की बनाई 'लक्ष्मण रेखा लांघने' की हिम्मत नहीं जुटा पाते.

Mayawati on twitterपत्रकार वाताओं में मायावती की दबंगई के आगे पत्रकार प्राय: रक्षात्‍मक ही रहे. और संवाद ज्‍यादातर एकतरफा ही हुआ.

वर्ष 2007 में सोशल इंजीनियरिंग के बलबूते यूपी में पूर्ण बहुमत की सरकार बनाने के बाद भी बसपा का मीडिया के प्रति व्यवहार में ज्यादा अंतर नहीं आया. लखनऊ और दिल्ली के गिने-चुने पत्रकारों की मायावती तक पहुंच थी. बसपा के शासनकाल में वर्ष 2010 में लखनऊ के एक स्थानीय अखबार के चेयरमैन और मैनेजिंग एडिटर का सरकारी मकान रातों-रात मकान खाली करवाने और गृहस्थी का सामान सड़क पर फेंकने का मामला सुर्खियों में रहा था.

वर्ष 2011 में लखनऊ में सीएमओ हत्याकांड और डॉ. सचान की मौत की खबर का पर्दाफाश करने वाले न्यूज चैनल के पत्रकार को लखनऊ पुलिस उठा कर ले गई और उनके साथ बदसलूकी की गई. इस मामले में लखनऊ के पत्रकार सड़कों पर उतर आये थे. इस मामले में बसपा सरकार की जमकर फजीहत हुई थी. जिन दो पुलिस अफसरों से पत्रकार के साथ मारपीट और बदसलूकी की थी, वो बसपा आलाकमान में करीबी माने जाते थे. और जिस पत्रकार के साथ मारपीट और बदसलूकी की गयी थी कि फिलवक्त वो यूपी बीजेपी की प्रदेश प्रवक्ता हैं.

किसी जमाने में यूपी के राजनीतिक गलियारों और पत्रकारों में यह चर्चा आम थी कि, ''मायावती कहती हैं कि हमें प्रेस की कोई जरूरत नहीं है. हमारा वोटर अखबार नहीं पढ़ता.'' वास्तव में मायावती ऐसा मानकर बैठी थी कि उनका वोट बैंक उनके साथ 'फेविकोल के जोड़' की तरह जुड़ा है. वो जिस तरफ कहेंगी उनका वोट बैंक और समर्थक उस दिशा में चल पड़ेगा.

2012 में यूपी विधानसभा चुनाव में मायावती यह भ्रम और घमंड दोनों कांच की तरह चकनाचूर हो गया. मायावती का सोशल इंजीनियरिंग और सर्व समाज के फार्मूले बुरी तरह फ्लॉप साबित हुये. मायावती की पूर्ण बहुमत की सरकार को सपा ने सत्ता से बेदखल कर दिया. बसपा के हिस्से में यूपी की 403 में से मात्र 80 सीटें आयीं. सपा ने पूर्ण बहुमत की सरकार बनायी.

2012 में यूपी की सत्ता से बेदखल होने के बाद मायावती ने 'राजनीतिक प्रयोग' बंद करने के साथ मीडिया से रिश्‍ते सुधारने की नीति पर अमल करना शुरू किया. 2014 के लोकसभा चुनाव के दौरान बसपा की प्रेस कांफ्रेंस में मीडिया की भीड़ जुटायी जाने लगी. मीडिया ने भी पुरानी कड़वाहट को भुलाकर अपने 'पत्रकारिता धर्म' को निभाया और बसपा की प्रेसवार्ता से लेकर अन्य कार्यक्रमों की भरपूर कवरेज की.

मायावती के सोशल मीडिया पर मंगल-प्रवेश की खबर कुछ इस तरह जारी हुई:

बसपा की राजनीति की करीब से समझने वाले मानते हैं कि मायावती प्रेस से एकतरफा संवाद ही कायम रखने की अपने गुरु काशीराम की नीति पर चल रही थी. लेकिन बदलते समय के साथ वो यह समझ ही नहीं पायी कि उनके परंपरागत और पक्के वोट बैंक में 'युवाओं' की अच्छी-खासी भागीदारी हो चुकी है. ये युवा वर्ग सोशल मीडिया के हर मंच पर 'एक्टिव' था.

बीजेपी ने 2014 में सोशल मीडिया के माध्यम से बसपा के कोर वोट बैंक में अच्छी-खासी सेंध लगाने का काम किया, नतीजा बसपा का यूपी समेत देशभर में खाता ही नहीं खुल सका.  लोकसभा चुनाव में 'सिफर' पर सिमट जाने के बाद मायावती की राजनीतिक चिन्ताएं तो बढ़ी ही वहीं उसे मीडिया और खासकर सोशल मीडिया की ताकत का एहसास हुआ. बावजूद इसके मीडिया के सामने लिखा-लिखाया भाषण पढ़ने और सवाल-जवाब से बचने की शैली में मायावती ने कोई बदलाव नहीं किया.

मायावती को इस बात का एहसास था कि भले ही लोकसभा चुनाव में बसपा का खाता नहीं खुल पाया, लेकिन उसके वोट शेयर में कोई खास फर्क नहीं पड़ा है. ऐसे में मायावती ने 2014 की हार के गम को भुलाकर अपना ध्यान यूपी विधानसभा के चुनाव में लगाया. 2017 तक आते-आते बसपा के दरवाजे मीडिया के लिये कुछ और ज्यादा खुले. विधानसभा चुनाव में मिली करारी शिकस्त ने मायावती के राजनीतिक भविष्य पर गहरा प्रश्न चिह्न लगा दिया. सूत्रों की अनुसार विधानसभा चुनाव में हार का जब मायावती ने मंथन-चिंतन पार्टी नेताओं से किया तो हार के तमाम कारणों के अलावा पार्टी की सोशल मीडिया और मैन स्ट्रीम मीडिया में गैरहाजिरी को भी एक वजह बताया गया. 2017 के विधानसभा चुनाव में सपा की ऐतिहासिक जीत में सोशल मीडिया की बड़ी भूमिका थी.

2012, 2014 और 2017 के बाद अब दरवाजे पर 2019 का आम दस्तक दे रहा है. इस बार मायावती को मौका चूकने के मूड में नहीं है. इसलिए उसने अपने दिल पर भारी पत्थर रखकर समाजवादी पार्टी से दोस्ती की है. सीटों का बराबर बंटवारा भी सपा-बसपा गठबंधन में हो चुका है. मायावती लोकसभा चुनाव में एक-एक कदम बड़े सोच-समझकर रख रही है. उन्हें इस बात का पूरा एहसास है कि अगर इस बार वो चूक गयी तो उनकी राजनीतिक दुकान का शटर पूरी तरह गिर जाएगा. बीती 12 जनवरी को लखनऊ में सपा-बसपा गठबंधन के घोषणा की प्रेसवार्ता पंचतारा होटल में आयोजित की गयी. जिसमें मायावती और अखिलेश ने लिखे भाषण पढ़े और मायावती ने खुलकर मीडिया के सवालों के जवाब भी दिये.

सार्वजनिक जीवन में छवि गढ़ने और चुनाव में हार-जीत में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले सोशल मीडिया की ताकत किसी से छिपी नहीं है. देर से ही सही मायावती को भी यह बात समझ आ गयी कि बदलते समय में विरोधी को हराने के लिये लड़ाई के हथियार भी बदलने होंगे. सोशल मीडिया बीजेपी का मजबूत हथियार है. कांग्रेस भी सोशल मीडिया में काफी हद तक भाजपा के बराबर पहुंच चुकी है. समाजवादी पार्टी भी सोशल मीडिया के जरिए युवाओं और वोटरों से 'कनेक्ट' रहती है. ऐसे में मायावती ने अपने कोर वोट बैंक के साथ देश-दुनिया में अपनी आवाज पहुंचाने के लिये सोशल मीडिया के मंच पर दस्तक दे दी है.  मतलब साफ है कि अब बसपा की ओर से एकतरफा संवाद की परिपाटी खत्म होने का आधिकारिक ऐलान हो चुका हे.

राजनीतिक विश्‍लेषकों के अनुसार बसपा में मायावती ने सोशल मीडिया के मंच पर आमद दर्ज कराकर ये संकेत दे दिया है कि ये बदले जमाने की बीएसपी है. बीती 15 जनवरी को जन्म दिन पर मायावती के साथ नजर आए उनके भतीजे आकाश को भी इस परिवर्तन की वजह माना जा रहा है. जानकार इसे कांग्रेस के 'प्रियंका इफेक्ट' की काट से लेकर, राष्ट्रीय स्तर पर मायावती की छवि गढ़ने कोशिश के तौर पर देख रहे हैं. जो कुछ भी हो, मायावती का सोशल मीडिया के मंच पर इंट्री विरोधियों के लिये एक नये खतरे से कम नहीं है.

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लेखक

आशीष वशिष्ठ आशीष वशिष्ठ @drashishv

लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं

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