कश्मीर के लाल चौक के लिए स्वतंत्रता दिवस के मायने
शहर के मध्य में लाल चौक पर मौजूद यही घंटा-घर 1947 के बाद से जम्मू-कश्मीर की दयनीय राजनैतिक इतिहास का गवाह बना. यही नहीं, इस स्थान ने पिछले 26 सालों में यहा हिंसा और खून-खराबे का दौर भी खूब देखा है.
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कई इतिहासकार इस बात से सहमत होंगे कि कश्मीर के लाल चौक का नाम एक सिख वाम नेता और बुद्धिजीवी बीपीएल बेदी ने मॉस्कों के मशहूर 'रेड स्क्वायर' के नाम पर रखा था. बेदी 'नया कश्मीर' के भी लेखक हैं. हिंदी फिल्मों के मशहूर अभिनेता कबीर बेदी के पिता बीपीएल बेदी दरअसल शेख मोहम्मद अब्दुल्लाह के बेहद करीबी मित्र थे. और 'नया कश्मीर' डोगरा महाराज हरी सिंह के शासन काल में जम्मू और कश्मीर के लिए एक प्रकार से महत्वपूर्ण संवैधानिक रूपरेखा के बराबर थी.
इतिहासकारों के अनुसार उस दौर में कश्मीर की राजनीति में पंजाबी और मुस्लिम वाम नेताओं का खासा प्रभुत्व था. एक इतिहासकार के अनुसार असल स्थान जो लाल चौक के रूप में प्रचलित हुआ वह पैलेडियम सिनेमा के सामने वाला हिस्सा था. इस स्थान के पास एक गोलकार पोडियम है जहां झंडा फहराने के लिए उपयुक्त स्थान मौजूद था.
बाद के दिनों में घाटी के मशहूर मिशनरी स्कूल टिंडेल बिस्को के सामने एक घंटा-घर का निर्माण हुआ. शहर के मध्य में लाल चौक पर मौजूद यही घंटा-घर 1947 के बाद से जम्मू-कश्मीर दयनीय राजनैतिक इतिहास का गवाह बना. यही नहीं, इस स्थान ने पिछले 26 सालों में यहा हिंसा और खून-खराबे का दौर भी खूब देखा है. इस लिहाज से भी लगता है कि लाल चौक इस जगह का उपयुक्त नाम है.
बीते वर्षों में में इस घंटा-घर से कई राजनेताओं ने जोशीले भाषण दिए. कुछ ने वादे किए तो कुछ ने कभी भारत और कभी पाकिस्तान के झंडे फहराकर राजनैतिक संदेश देने की कोशिश की. कभी यह केवल प्रतीकात्मक रहा तो कभी आडंबर से भरा हुआ.
यह श्रीनगर का ही लाल चौक था जहां 1948 में भारत के पहले प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने तिरंगे झंडे को फहराया. दिलचस्प यह है कि यही वह जगह भी है जहां उन्होंने यह वादा किया था कि कश्मीर को अपना राजनैतिक भविष्य चुनने के लिए जनमत का मौका मिलेगा.
नेहरू ने 2 नवंबर, 1947 को वादा किया था कि, 'कश्मीर के भविष्य का फैसला यहीं के लोग करेंगे. हमने यह वादा किया है महाराजा (हरि सिंह) ने इसका समर्थन भी किया है. यह वादा हम केवल कश्मीर के लोगों से ही नहीं बल्कि दुनिया से भी कर रहे हैं. हम इससे पीछे नहीं हट सकते और न ही हटेंगे.'
और फिर यही वह जगह भी है जहां शेख मोहम्मद अब्दुल्लाह ने अपने दोस्त पंडित नेहरू की जमकर प्रशंसा की और उनके लिए कवि खुसरो की लिखी उस पर्सियन कविता को पढ़ा था-
'मैं अब तुम हो जाता हूं और तुम मैं बन जाओ
मैं तुम्हारा शरीर और तुम मेरी आत्मा बन जाओ
ताकि कोई यह न कह सके कि हम-तुम अलग-अलग हैं.'
चार दशक बाद, गणतंत्र दिवस के मौके पर 26 जनवरी, 1992 को हिंदू पार्टी माने जाने वाली भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) के राष्ट्रीय अध्यक्ष मुरली मनोहर जोशी ने लाल चौक आकर घंटा घर पर तिरंगा झंडा फहराया. एक तरह से 1989 से यह चलन बन गया जब भारत के स्वतंत्रता दिवस और गणतंत्र दिवस पर यहां सुरक्षा के इंतजाम बेहद कड़े कर दिए जाते. कई बार इसके लिए कंटीले तारों का इस्तेमाल किया जाता रहा है.
1992 में जब कश्मीर में विद्रोही गुट सबसे मुखर था. जोशी को उस समय वहां से जल्दबाजी में हटाना पड़ा जब घंटा-घर से कुछ मीटर दूर एक आतंकियों की ओर से चलाया गया एक रॉकेट आकर गिरा. तब से ही सुरक्षाकर्मी रिपब्लिक और इंडिपेंडेस डे के मौके पर वहां तिरंगा फहराने की रवायत जारी रखे हुए हैं. हालांकि आधिकारिक रूप से यह जरूरी नहीं है.
साल-1989 के बाद से राजनैतिक सिंबल के तौर पर भी घंटा-घर के ऊपर झंडा फहराना जरूरी हो गया. खासकर, 1992 में मुरली जोशी के प्रयोग के बाद इसे लगातार जारी रखा गया. दोनों देशों की ओर से कई राजनीतिज्ञों और कार्यकर्ताओं ने इस इच्छा के साथ लाल चौक का दौरा किया है कि उन्हें वहां घंटा घर के ऊपर तिरंगा या फिर हरे रंग का झंडा फहराने का मौका मिल सके. यह इस बात पर निर्भर है कि वे किस ओर खड़े हैं.
हाल में कुछ कश्मीर युवाओं ने 2008, 2009 और 2010 में भारत-विरोधी मुद्दे का प्रचार करते हुए घंटा-घर पर पाकिस्तान का झंडा फहराया और यूट्यूब पर इससे जुड़े वीडियो भी मौजूद है.
क्या इस प्रकार झंडा फहरने का कोई नतीजा मिलता है? या यह केवल प्रतीकात्मक, शक्ति प्रदर्शन का जरिया बन कर रह गया है. मुझे अरुण जेटली की बात याद आ रही है जो उन्होंने 2013 में जम्मू में आयोजित नरेंद्र मोदी की ललकार रैली के बाद अपने ब्लॉग में कही थी. वह ये कि, 'जम्मू और कश्मीर को भारत में पूरी तरह मिला लेना भारतीय जनसंघ और अब बीजेपी की विचारधारा का महत्वपूर्ण हिस्सा है.'
धारा-370 को कश्मीर में अलवागवादियों को बढ़ावा देने का जिम्मेदार ठहराते हुए जेटली ने नेहरू की दूरदर्शिता की भी आलोचना की और लिखा, 'नेहरू की कश्मीर को लेकर अलग राज्य जैसी सोच ने 1953 के पहले के हालात को पैदा किया है जहां सेल्फ रूल और आजादी तक की बात हो रही है. इसने जम्मू और कश्मीर तथा देश के अन्य हिस्सों के बीच संवैधानिक और राजनैतिक रिश्ते को और कमजोर किया है.'
बीजेपी नेता जेटली का मानना है कि जम्मू और कश्मीर को पूर्ण रूप से भारत में शामिल करने की श्यामा प्रसाद मुखर्जी की नीति ही सबसे अच्छी है. लेकिन सवाल यह कि क्या यह जबर्रदस्ती हासिल किया जा सकता है? समस्या की जड़ में जाए बिना और जमीनी सच्चाई के प्रति गंभीर हुए बिना क्या यह सपना पूरा होगा?
बहरहाल, भारत का 69वां स्वतंत्रता दिवस नजदीक आ रहा है. इसे देखते हुए लाल चौक के आसपास सुरक्षा एक बार फर चाक-चौबंद कर दी गई है. श्रीनगर के बख्शी स्टेडियम में होने वाले परेड को देखते हुए भी सुरक्षा के कडे इंतजाम किए जा रहे हैं. आम आदमियों की रोज तलाशी ली जा रही है. छात्रों के लिए 15 अगस्त के परेड में हिस्सा लेना आवश्यक बनाया जा रहा है. भारत के स्वतंत्रता दिवस के नाम पर कश्मीरियों को कई प्रकार के मुश्किल हालात का सामना करना पड़ रहा है.
क्या कोई यह सोच सकता है कि राष्ट्रीयता की सोच को बढ़ाने के लिए किए जा रहे ऐसे कार्य लोगों को इस सोच से और दूर ले जा सकते हैं? क्या आप बलपूर्वक लोगों में झंडे के प्रति सम्मान लाने की कोशिश कर रहे हैं? राष्ट्रीयता की सोच के लिए बल का प्रयोग और लोगों को परेशान करने की क्या जरूरत है?
इस बार भी 15 अगस्त को कश्मीर का लाल चौक वीरान नजर आएगा. यहां, वही कंटीले तार होंगे. चप्पे-चप्पे पर सुरक्षाकर्मी होंगे. लेकिन घंटा-घर पर तिरंगे को फहराने में उनका साथ देने के लिए कोई और मौजूद नहीं होगा. घड़ी की टिक-टिक जारी रहेगी और एक और पन्ना इतिहास में दर्ज हो जाएगा.
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