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Updated: 29 मई, 2020 07:29 PM
मृगांक शेखर
मृगांक शेखर
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26 मई को सुप्रीम कोर्ट ने प्रवासी मजदूरों (Migrant Workers) की मुश्किलों पर स्वतः संज्ञान लेते हुए केंद्र और राज्य सरकारों को नोटिस दिया था और 28 मई तक जवाब मांगा था. सुनवाई के बाद सुप्रीम कोर्ट ने राज्य सरकारों को मजदूरों का कदम कदम पर ख्याल रखने के आदेश दिये. साथ ही, पूछा कि राज्य सरकारें बताएं कि उनका ट्रांसपोर्ट प्लान क्या है? रजिस्ट्रेशन कैसे किया जा रहा है? कितने प्रवासी मजदूर अभी घर लौटने का इंतजार कर रहे हैं - और उनकी संख्या कितनी है? ये सारी जानकारी कोर्ट को मुहैया कराने के लिए सुप्रीम कोर्ट ने 5 जून तक की मोहलत दी है.

सबसे बड़ी अदालत की नोटिस के जरिये ये जानने की कोशिश रही कि सरकारों ने प्रवासी मजदूरों को मौजूदा स्थिति से उबारने के लिए क्या इंतजाम किये हैं?

बाकी सब तो ठीक रहा लेकिन सुनवाई के दौरान सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता और मजदूरों की तरफ से पेश कपिल सिब्बल (Tushar Mehta and Kapil Sibal) के बीच जो नोक-झोंक हुई उसके राजनीतिक निहितार्थ काफी दिलचस्प लगते हैं - ये भी गंभीरता से विचार करना होगा कि मजदूरों की बात करने वाले को गिद्ध (Vultures) समझा जाने लगा है.

मजदूर न पैदल चलेंगे, न किराया देंगे

प्रवासी मजदूरों की हालत पर सुनवाई के दौरान सुप्रीम कोर्ट ने माना कि निश्चित तौर पर केंद्र सरकार और राज्य सरकारों की तरफ से कोशिशें हुई हैं, लेकिन लोगों तक फायदा नहीं पहुंचा है - और कई जगह चूक हुई है.

सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस अशोक भूषण, जस्टिस संजय किशन कौल और एमआर शाह की बेंच के सामने केंद्र सरकार के अलावा उत्तर प्रदेश और महाराष्ट्र सरकार ने तो अपनी दलीलें पेश की और बाकियों को अदालत ने 5 जून तक अपना पक्ष रखने को कहा है.

migrant workersभला मजदूरों की हालत पर सुप्रीम कोर्ट को तरस तो आयी!

अपने आकलन में सुप्रीम कोर्ट ने पाया कि मजदूरों के रजिस्ट्रेशन की प्रक्रिया में कई खामियां हैं, तभी तो रजिस्ट्रेशन कराने के बाद भी घर लौटने के लिए उनको लंबा इंतजार करना पड़ा. कोर्ट ने माना कि मजदूरों के ट्रांसपोर्ट और खाने-पीने के इंतजामों में भी दिक्कतें हैं. सारी बातों पर गौर करने के बाद सुप्रीम कोर्ट ने ये भी बता दिया कि मजदूरों के साथ सरकारों को अब कैसे पेश आना है - अब से मजदूर न पैदल चलेंगे, न वे कोई किराया देंगे और न ही किसी चीज का पैसा देंगे.

1. किसी भी प्रवासी मजदूर से ट्रेन या बस का किराया नहीं लिया जाएगा - रेल किराया दो राज्य सरकारों के बीच शेयर किया जाये, लेकिन प्रवासी मजदूरों से कोई पैसा नहीं लिया जाएगा.

2. रेल यात्रा के दौरान, स्टेशन से गाड़ी के चलने पर राज्य सरकारें यात्रियों के खाने-पीने का इंतजाम करें - और यात्रा के दौरान ये काम रेलवे को करना होगा.

3. राज्य सरकारें ये सुनिश्चित करें कि रजिस्ट्रेशन के बाद प्रवासी मजदूरों को जल्द से जल्द उनका सफर शुरू और खत्म हो सके.

4. अगर प्रवासी मजदूर सड़कों पर कहीं पैदल चलते दिखें तो स्थानीय प्रशासन उनके खाने-पीने की व्यवस्था करे - और शेल्टर होम में ले जाये.

तुषार मेहता ने बताया कि केंद्र सरकार ने 3700 श्रमिक स्पेशल ट्रेनें चला रखीं है जिनसे 27 मई तक 91 लाख प्रवासी मजदूर अपने घर जा चुके हैं. साथ ही, राज्यों के सहयोग से 40 लाख लोगों को सड़क मार्ग से शिफ्ट किया गया है.

मजदूरों की तरफ से पेश हुए कांग्रेस नेता और सीनियर वकील कपिल सिब्बल ने बताया कि 2011 की जनगणना में 3 करोड़ प्रवासी मजदूर थे जो अब 4 करोड़ हो चुके हैं. सरकार ने 27 दिन में 91 लाख लोगों को घर भेजा है. इस तरह तो सबको भेजने में तीन महीने और लग जाएंगे.

ये सुनते ही तुषार मेहता ने पूछ लिया कि कपिल सिब्बल को कैसे पता कि सभी घर लौटना चाहते हैं?

कपिल सिब्बल ने तपाक से पूछ लिया - आपको कैसे पता कि नहीं जाना चाहते?

क्या मजदूरों की बात करने वाला गिद्ध है?

अव्वल तो कोई भी अदालत ऐसे मामलों की सुनवाई ही नहीं करती जो सुनने के काबिल नजर न आये. सुप्रीम कोर्ट तो कतई नहीं. मजदूरों के मामले में दायर तो कुछ याचिकाएं भी हुई थीं, लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने ये मामला मीडिया रिपोर्ट देख कर स्वतः संज्ञान से लिया था - फिर भी सरकारी वकील को हर तरफ राजनीति ही नजर आ रही थी.

सुप्रीम कोर्ट की कार्यवाही पर फाइल की गयी मीडिया रिपोर्ट से तो ऐसा ही लगता है जैसे बेंच के सामने दोनों पर वैसे ही दलीलें पेश कर रहे थे जैसे टीवी पर दो पार्टियों के प्रवक्ता नजर आते हैं. कई बार देखने को मिलता है कि कानून के जानकार प्रवक्ता जिस मुद्दे पर बात करते हैं उसके कानूनी पहलू पर भी विस्तार से बोलते हैं और अपने हिसाब से अपना पक्ष रखते हैं. सुप्रीम कोर्ट में भी ऐसा ही दिखा जहां सिर्फ कानून ही नहीं बल्कि राजनीति की भी बातें खूब हुईं.

चूंकि मीडिया रिपोर्ट ही सुप्रीम कोर्ट की सुनवाई का पहला आधार बना, लिहाजा तुषार मेहता की दलीलों में उस पर भी जोर दिखा - 'बीते कुछ दिनों में कुछ ही अप्रिय घटनाएं हुई हैं, लेकिन इन्हें बार-बार दिखाया गया है.'

ऐसी बातों को आखिर क्या और कैसे समझा जाये? अगर सरकार मानती है कि कोई अप्रिय घटना हुई है तो उसे एक बार दिखा कर चुप हो जाना चाहिये क्योंकि उससे लोगों में गलत मैसेज जाएगा और आने वाले चुनावों में उसका खामियाजा भुगतना पड़ेगा? अगर अप्रिय घटनाओं को भी बार बार न दिखाया जाये तो क्या न्यूज चैनल भी लॉकडाउन में जब दूरदर्शन पर रामायण और महाभारत चल रहा हो तो उसे ही दिखायें - ताकि केंद्रीय मंत्री और पार्टी के नेता अपने घर में बैठ कर टीवी देखते हुए तस्वीर ट्विटर पर शेयर कर सकें.

सुनवाई के दौरान कई बार तो कानूनी दलीलें राजनितिक बहसों की तरह लगने लगी थीं. सुन कर ऐसा लगा जैसे राहुल गांधी के सवालों के बाद जवाब देने बीजेपी नेता और केंद्रीय मंत्री मोर्चा संभाल लेते हैं?

तुषार मेहता का कहना रहा कि सुप्रीम कोर्ट को राजनीतिक मंच नहीं बनाया जाना चाहिये. बेशक ऐसा नहीं होना चाहिये. मगर, क्या सुप्रीम कोर्ट में मजदूरों की मुश्किलों के बारे में वस्तुस्थिति से अवगत कराना महज एक राजनीतिक कवायद लगती है?

तुषार मेहता की दलील काटते हुए कपिल सिब्बल बोले - ये मानवीय आपदा है.

लगता है कपिल सिब्बल के इस जवाब को गलत साबित करने के लिए तुषार मेहता के पास तर्क कम पड़ रहे थे, लिहाजा वो निजी स्तर पर सवाल करने लगे. वो भी तब जबकि कपिल सिब्बल ने आपदा को पूरी मानवता से जोड़ कर समझाने की कोशिश की थी.

तुषार मेहता का अगला सवाल था - आपका इस आपदा से निपटने के लिए क्या योगदान है? कपिल सिब्बल आंकड़ों के सहारे बहस कर रहे थे, जैसे मजदूरों की तादाद के हिसाब से सरकारी इंतजामों पर सवाल उठाये थे, तुषार मेहता को जवाब भी उसी लहजे में दिया - 4 करोड़.

फिर बोले - ये मेरा योगदान है.

अब तो सवाल ये उठता है कि क्या मजदूरों की मुश्किलों और सरकारी खामियों पर सवाल पूछने से पहले कोई योगदान भी देना होगा? अगर कपिल सिब्बल कुछ कम योगदान दिये होते तो क्या सवाल नहीं पूछ पाते?

क्या अब सुप्रीम कोर्ट में जनहित से जुड़े मसलों पर बहस के लिए काननू की डिग्री और वकालत के अनुभव के साथ साथ सोशल वर्क में कोई डिग्री और कार्यानुभव भी पेश करना होगा? और क्या जनहित के मुद्दे पर सवाल उठाने वाले से ऐसा सवाल पूछना राजनीतिक नहीं माना जाएगा?

अभी वो गिद्ध कौन है?

सुप्रीम कोर्ट में तुषार मेहता ने साउथ अफ्रीका के फोटो पत्रकार केविन कार्टन का जोर शोर से जिक्र किया. सूडान की भूखमरी को लेकर जिस तस्वीर का जिक्र तुषार मेहता कर रहे थे उसे पुलित्जर पुरस्कार मिला था, लेकिन कुछ ही दिन बाद केविन कार्टन ने आत्महत्या कर ली थी.

child and vultureमजदूरों की का मुद्दा उछालने वालों की असलियत समझाने के लिए SG तुषार मेहता ने सुप्रीम कोर्ट में इसी तस्वीर को मिसाल बना कर दलील पेश की

तुषार मेहता ने पूरा किस्सा सुनाया - फोटो जब अखबार में छपा तो तमाम सवाल पूछे गये. एक पत्रकार ने पूछा बच्चे का क्या आखिर क्या हुआ? फोटो पत्रकार ने कहा नहीं मालूम क्योंकि उसे घर लौटना था. फिर रिपोर्टर ने पूछा वहां कितने गिद्ध थे? केविन कार्टन का जवाब था - एक था. रिपोर्टर ने कहा वहां एक नहीं दो गिद्ध थे - एक के हाथ में कैमरा था. ये सदमा केविन कार्टन बर्दाश्त न कर सके ओर चार महीने बाद खुदकुशी कर ली.

तुषार मेहता ने कहा कि कोरोना महामारी पर काबू पाने के लिए सरकार लगातार काम कर रही है और कुछ लोग सोशल मीडिया पर और इंटरव्यू देकर सिर्फ नकारात्मकता फैला रहे हैं. ये ऐसे बुद्धिजीवी हैं जो एसी कमरों में बैठ कर सिर्फ नुक्स निकालने में लगे रहते हैं. कहा भी कि ऐसे लोगों ने क्या सहयोग किया है, इन्हें गिद्ध और बच्चे की कहानी के जरिये समझा जा सकता है. सरकारी वकील, दरअसल, मजदूरों की हालत को लेकर याचिका दायर करने वालों पर कहानी सुना कर कटाक्ष कर रहे थे?

फिर तो साफ साफ समझ में आ जाना चाहिये तुषार मेहता की नजर में वे सभी गिद्ध जैसे ही हैं जो मजदूरों की परेशानी की बात कर रहे हैं. तुषार मेहता केंद्र की प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सरकार का पक्ष रख रहे थे - सवाल ये है कि क्या सरकार भी वही सोचती है जो तुषार मेहता की सोच समझ में आ रही है? जिस किसी की भी ऐसी सोच हो, उससे भला मजदूरों के दर्द को समझने को लेकर कितनी उम्मीद करनी चाहिये? क्या आपको भी लगता है कि मजदूरों की बात करने वाले गिद्ध हैं? फिर तो तुषार मेहता के नजरिये से ऐसी सोच वालों को कुछ और नहीं बल्कि केविन कार्टन को ही फॉलो करना चाहिये!

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लेखक

मृगांक शेखर मृगांक शेखर @mstalkieshindi

जीने के लिए खुशी - और जीने देने के लिए पत्रकारिता बेमिसाल लगे, सो - अपना लिया - एक रोटी तो दूसरा रोजी बन गया. तभी से शब्दों को महसूस कर सकूं और सही मायने में तरतीबवार रख पाऊं - बस, इतनी सी कोशिश रहती है.

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